−१

संख्या रेखा की पहली नकारात्मक संख्या

गणित में −१ अथवा −1 (ऋणात्मक एक अथवा माइनस एक) 1 (एक) का योज्य व्युत्क्रम है अर्थात् यह वह संख्या है जिसमें 1 जोड़ने पर योज्य तत्समक 0 (शून्य) प्राप्त होता है। यह ऋणात्मक पूर्णांक है जो ऋणात्मक दो (−2) से बड़ा एवं 0 से छोटा है।

← −2 −1 0 →
-1 0 1 2 3 4 5 6 7 8 9
गणन−1, माइनस एक, ऋणात्मक एक
क्रमसूचकऋणात्मक प्रथम
भाजक1
अरबी١
चीनी负一,负弌,负壹
बंगाली
द्विआधारी (बाइट)
सचिह्न: 1000000012
2एससी: 111111112
हेक्स (बाइट)
सचिह्न: 0x10116
2एससी: 0xFF16

बीज गणितीय गुणधर्म

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किसी संख्या को −1 से गुणा करने पर इसके तुल्य ऋणात्मक संख्या प्राप्त होती है अर्थात् उसका चिह्न बदल जाता है। व्यापक रूप में एक धनात्मक संख्या को −1 से गुणा करने पर वो ऋणात्मक हो जाती है और ऋणात्मक संख्या को −1 से गुणा करने पर वो धनात्मक हो जाती है। अतः किसी संख्या x के लिए (−1) ⋅ x = −x लिखा जाता है। इसे बंटन नियम और 1 को गुणात्मक तत्समक वाली उपप्रमेय से सिद्ध किया जा सकता है:

x + (−1) ⋅ x = 1 ⋅ x + (−1) ⋅ x = (1 + (−1)) ⋅ x = 0 ⋅ x = 0.

यहाँ हमने यह तथ्य काम में लिया है कि किसी भी संख्या x को शून्य से गुणा करने पर 0 प्राप्त होता है जो समीकरण के लिए निरसन का अनुसरण करता है

0 ⋅ x = (0 + 0) ⋅ x = 0 ⋅ x + 0 ⋅ x.

अन्य शब्दों में,

x + (−1) ⋅ x = 0,

अतः x का योज्य व्युत्क्रम (−1) ⋅ x है अर्थात् (−1) ⋅ x = −x सिद्ध किया जा सकता है।

संख्या −1 का वर्ग (अर्थात् −1 को −1 से गुणा करने पर) 1 प्राप्त होता है। इसके परिणामस्वरूप दो ऋणात्मक संख्याओं का गुणा धनात्मक प्राप्त होता है। इस परिणाम की बीजगणितीय उपपत्ति के लिए हम इस समीकरण से आरम्भ करते हैं

0 = −1 ⋅ 0 = −1 ⋅ [1 + (−1)].

पहली असमिका उपरोक्त परिणाम के अनुसार है और दूसरा उस परिभाषा के अनुसार जिसके अनुसार −1 का योज्य व्युत्क्रम 1 है: यह ठीक वह संख्या है जिसमें 1 जोड़ने पर 0 प्राप्त होता है। अब इस बंटन नियम के उपयोग से यह देखा जा सकता है कि

0 = −1 ⋅ [1 + (−1)] = −1 ⋅ 1 + (−1) ⋅ (−1) = −1 + (−1) ⋅ (−1).

तीसरी असमिका गुणात्मक तत्समकता के अनुसार है। लेकिन अब इस समीकरण के दोनों तरफ 1 जोड़ने पर

(−1) ⋅ (−1) = 1.

उपरोक्त तर्क सभी वलय में लागू होते हैं। वलय एक अमूर्त बीजगणित की एक अवधारणा है जिसमें वास्तविक संख्याओं को पूर्णांकों के व्यापकीकरण से प्राप्त किया जाता है।[1]:पृ॰48

 
समिश्र अथवा कार्तीय समतल में 0, 1, −1, i और −i

यद्यपि −1 का कोई वास्तविक वर्गमूल नहीं है, समिश्र संख्या i समीकरण i2 = −1 को संतुष्ट करती है और इसे −1 का वर्गमूल माना जा सकता है।[2] इसके अतिरिक्त अन्य समिश्र संख्या −i है जिसका वर्ग −1 है क्योंकि प्रत्येक शून्यतर समिश्र संख्या के ठीक दो वर्गमूल होते हैं और ये बीजगणित की मूलभूत प्रमेय का अनुशरण करता है। चतुष्टयी बीजगणित में – जहाँ मूलभूत प्रमेय लागू नहीं होती – जिसमें समिश्र संख्यायें शामिल हैं, समीकरण x2 = −1 अनन्त हल प्राप्त होते हैं।[3][4]

प्रतिलोम और व्युत्क्रमणीय अवयव

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व्युत्क्रम फलन f(x) = x−1 जहाँ 0 के अतिरिक्त x के सभी मान गुणात्मक व्युत्क्रम को निरूपित करता है

शून्यतर संख्या का घातांक ऋणात्मक संख्याओं तक विस्तृत किया जा सकता है जहाँ किसी संख्या की घात −1 लगाने पर गुणात्मक व्युत्क्रम प्राप्त होता है:

x−1 = 1/x.

यह परिभाषा ऋणात्मक पूर्णांकों पर भी लागू होती है और वास्तविक संख्याओं a और b के लिए घातांक नियम xaxb = x(a + b) का पालन करती है।

किसी फलन f(x) के मूर्धांक में −1 लिखने पर वो प्रतिलोम फलन f −1(x) को निरूपित करता है जहाँ ( f(x))−1 विशेषतः बिन्दुवार व्युत्क्रम को निरूपित करता है।[a] जहाँ f एकैकी आच्छादी फलन है जो प्रत्येक xX के निवेशी प्रांत के लिए प्रत्येक yY निर्गत सहप्रांत निर्दिष्ट होता है

f −1( f(x)) = x और f −1( f(y)) = y

जब सहप्रांत का उपसमुच्चय, फलन f में निर्दिष्ट है तब इसका प्रतिलोम उस उपसमुच्चय के फलन के अधीन पूर्व-प्रतिबिम्ब अथवा प्रतिलोम प्रतिबिम्ब प्राप्त होगा।

ऋणात्मक पूर्णांकों का घातांक x के गुणात्मक व्युत्क्रम x−1 को परिभाषित करने वाली वलय के व्युत्क्रमणीय अवयवों तक विस्तृत किया जा सकता है; इसके सन्दर्भ में इन अवयवों को एकांक माना जाता है।[1]:पृ॰49

किसी क्षेत्र F के किसी बहुपद प्रांत F [x] में बहुपद x का कोई व्युत्क्रम नहीं होता है। यदि इसका कोई व्युत्क्रम q(x) है तो हम लिख सकते हैं[5]

x q(x) = 1 ⇒ deg (x) + deg (q(x)) = deg (1)
                


 ⇒ 1 + deg (q(x)) = 0

                


 ⇒ deg (q(x)) = −1 जो सम्भव नहीं है और अतएव F [x] एक क्षेत्र नहीं है। अधिक विशिष्ट रूप में चूँकि बहुपद एक नियतांक नहीं है, यह F में एकक नहीं है।

इन्हें भी देखें

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  1. उदाहरण के लिए प्रतिलोमज्या फलन (sin x का व्युत्क्रम) को (sin−1(x) से निरूपित किया जाता है।
  1. नाथनसन, मेल्विन बी॰ (2000). "Chapter 2: Congruences". Elementary Methods in Number Theory. ग्रेजुएट टेक्स्ट इन मैथेमेटिक्स. 195. न्यूयॉर्क: स्प्रिंगर. पपृ॰ xviii, 1−514. MR 1732941. OCLC 42061097. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-387-98912-9. डीओआइ:10.1007/978-0-387-22738-2_2.
  2. बाउर, कैमरून (2007). "Chapter 13: Complex Numbers". Algebra for Athletes (दूसरा संस्करण). हौप्पाज: नोवा साइंस पब्लिशर्स. पृ॰ 273. OCLC 957126114. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-60021-925-2.
  3. पर्लिस, सैम (1971). "Capsule 77: Quaternions". Historical Topics in Algebra. Historical Topics for the Mathematical Classroom. 31. रेस्टन, वीए: नेशनल काउंसिल ऑफ़ टीचर्स ऑफ़ मैथमैटिक्स. पृ॰ 39. OCLC 195566. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780873530583.
  4. पोर्टियस, इयान आर॰ (1995). "Chapter 8: Quaternions". Clifford Algebras and the Classical Groups (PDF). Cambridge Studies in Advanced Mathematics. 50. Cambridge: कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस. पृ॰ 60. MR 1369094. OCLC 32348823. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780521551779. डीओआइ:10.1017/CBO9780511470912.009.
  5. Czapor, Stephen R.; Geddes, Keith O.; Labahn, George (1992). "Chapter 2: Algebra of Polynomials, Rational Functions, and Power Series". Algorithms for Computer Algebra (1st संस्करण). Boston: Kluwer Academic Publishers. पपृ॰ 41, 42. OCLC 26212117. S2CID 964280. Zbl 0805.68072. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-7923-9259-0. डीओआइ:10.1007/b102438 – वाया स्प्रिंगर.