शिवराज आनंद
पूर्ण नाम शिव कुमार साहू।
साहित्यिक नाम- शिवराज आनंद
जन्म तिथि 04.05.1987
माता- श्रीमती पार्वती साहू
पिता- श्री विश्वनाथ साहू
शहर - सूरजपुर
तह. रामानुज नगर
जिला- सूरजपुर (छत्तीसगढ़)
विधा - गद्य एवं पद्य
साहित्यिक कृति - जीवन की सोच, मेरी आवाज, जियो उनके लिए, मां की महिमा, प्रेम -जगत,हम कलियुग के प्राणी है, घर का भेद, जगत का जंजाल - संसृति, यहा उनका भी दिल जोड़ दो, उठो युवा तुम उठो ऐसे , मानवता के डगर पे, बेवफ़ा अपनों के लिए,आदि।
1.सम्मान- राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान 2020राज रचना कला एवं साहित्य समिति रायपुर।क्र.129
2.उत्कृष्ट लेखन सम्मान/ best writer award 18.10.2020.सर्टिफिकेट न.0084SKD 18.10.2020. द्वारा सच की दस्तक समिति
(राष्ट्रीय मासिक पत्रिका वाराणसी उ.प्र.प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार)
साहित्यिक कृतियां:-
१.यहां उनका भी दिल जोड़ दो (कविता)
जिनके दिल टूटे हैं चलते कदम थमे हैं,
वो जीना जानते हैं |
ना जख्मों को सीना जानते हैं ||
तुम उन्हें भी अपना लो |प्यारे तुम
मेरी बात मान विश्व बंधुत्व का भाव लेकर,
जन- जन से बैर भाव छोड दो |
"यहा उनका भी दिल जोड़ दो" ||
हम सब के ओ प्यारे,
किस कदर हैं दूर किनारे।
जीत की भी
क्या आस रखते हैं मन मारे ?
ये मन मैले नहीं निर्मल हैं,
सबल न सही निर्बल हैं,
समझते हैं हम जिन्हें नीचे हैं,
वे कदम दो कदम ही पीछे हैं,
जो हिला दे उन्हें ऐसी आंधी का रुख मोड़ दो |
यहाँ भी दिल अपने दिल से जोड़ दो ||
दिल बिना क्या यह महफ़िल है,
क्या जीने के सपने हैं,
बेगाना कोई नहीं सब अपने हैं.
ये सब मन के अनुभव हैं,
नहीं हूँ अभी वो, पहले मैं था जो,
सुना था मैंने मरना ही दुखद है,
पर देखा लालसाओं के साथ जीना,
महा दुखद है.
फिर क्या है सुख ?
क्या जीवन सार ?
सुख है सब के हितार्थ में,
जीवन - सार है अपनत्व में,
ऐसा अपनत्व जो एक दूजे का दिल जोड़ दे |
कोई गुमनाम न हो नाम जोड़ दे।।
वरना सब असार है चोला,
सब राम रोला भई सब राम रोला ।।
२.हम कलियुग के प्राणी हैं
सतयुग, त्रेता न द्वापर के,
हम कलयुग के प्राणी हैं।
हम- सा प्राणी हैं किस युग में ?
हम अधम देह धारी हैं।
हमारा युग तोप-तलवार
जन-विद्रोह का है।
सामंजस्य-शांति का नहीं
भेद-संघर्ष का है।
हमने सदियों '' बसुधैव कुटुंबकम ''
की भावना छोड़ दिया।
और कलि के द्वेष पाखंड से
नाता जोड़ लिया।
हम काम क्रोध में कुटिल हैं,
परधन परनारी निंदा में लीन हैं।
हम दुर्गुणों के समुन्द्र में
कु-बुद्धि के कामी हैं।
सतयुग त्रेता न द्वापर के
हम कलयुग के प्राणी हैं।
हमारा हस्त खुनी पंजे का है
वे हमसे भिन्न स्वतंत्र रह पाएंगे ?
जब सजेगा सूर बम धमाकों का
तब क्या मृत उन मृत के लघु गीत गाएंगे ?
हमें तुम्हारे नारद की वीणा अलापते नहीं लगती
हमे तुम्हारे मोहन की मुरली सुनाई नहीं देती।
तुम कहते हो हमे अबंधन जीने दो।
अन्न जल सर्व प्रकृत का, आनंद रस पीने दो।
नहीं हम ही इस कलिकाल में सुबुद्धि के प्राणी हैं।
सतयुग,त्रेता न द्वापर के ''हम कलयुग के प्राणी हैं।''
३.
उठो युवा! तुम उठो ऐसे ।
चक्रवात में तूफां उठता है जैसे ।।
हां, अब कौन युवा,तुम्हारे सिवा?
रक्षक प्यारे देश का ।
तूं चाहते तो तांडव मचे,
देर है तेरे उस वेष का ।।
अब तो सब से आस भी टूटा ।
बना दिया दुनिया को झूठा ।।
कैसी जननी? कि कैसा लाल?
जो जनकर भी जना क्या लाल?
जो देश की गरिमा बचा सके ।
ध्वंस कर रावण - राज धरा से
एक आदर्श राम - राज्य बना सके ।।
तुम देश के आन हो ।
हिन्दू हो या मुसलमान हो ।
किसी मजहब के नहीं,
"तुम मातृभूमि के लाल हो "।।
तुम कालो के भी महाकाल हो
फिर क्यों अन्जान हो?
क्या नेता - मंत्रियों से परेशान हो?
ओह ! कही विलीन न हो मेरे सपनों का भारत !
हे महारथ! तुझमें है सामर्थ ...रोक दे ए अनर्थ ...।
अगर है मोहब्बत ...तो अपनी यौवन - शक्ति जगा दे ।
आज अपने युग। से भ्रष्टाचार मिटा दे ।।
४.मानवता के डगर पे
प्यारे तुम मुझे भी अपना लो ।
गुमराह हूं कोई राह बता दो।
युं ना छोडो एकाकी अभिमन्यु सा रण पे।
मुझे भी साथले चलो मानवताकी डगर पे।।
वहां बडे सतवादी है।
सत्य -अहिंसाकेपुजारी हैं।।
वे रावण के अत्याचार को मिटा देते हैं।
हो गर हाहाकार तो सिमटा देते है।।
इस पथ मे कोई जंजीर नही
जो बांधकर जकड सके।
पथ मे कोई विध्न नही
जो रोककर अ क ड सके।।
है ऐ मानवता की डगर निराली।
जीत ले जो प्रेम वही खिलाडी।।
यहां मजहब न भेदभाव,सर्व धर्म समभाव से जिया ...है।
वक्त आए तो हस के जहर पीया करते है।।
फिर तो स्वर्ग यहीं है नर्क यहीं है।
मानव मानव ही है सोच का फर्क है।।
ओ प्यारे !इस राह से हम न हो किनारे ...
न हताश हो न निराश हो।
मन मे आश व विश्वास हो।।
फिर आओ जग मे जीकर
जीवन -ज्योत जला दे।
सुख-शांति के नगर को स्वर्ग सा सजा दे।।
आज भी राम है कण - कण मे
भारत - भारती के जन जन को बता दे।।
५.मा की महिमा
माँ ! हम आये तेरे शरण में ,नित छुएं चरण, मम निवेदन स्वीकार करो !
यही है भाव भजन, मन लगी लगन, मम-जीवन निर्माण करो !
हम सब बाल पौधे माँ ! तू मा
मालिन साथ है |
तू जननी !हम लाल ,
सब तेरे हाथ हैं ||
जग सृजनी ! दे तूं जैसी आकृत,
सब तेरा प्रत्युपकार हैं |
हम सब कच्ची मिटटी,
तू सबका कुम्भकार है ||
तू भू की रानी! ,तू अम्बर की न्यारी माँ |
तुझमे बसी दुनिया सारी।
तुझमे तरी दुनिया सारी माँ ।।
हे स्नेहमयी माँ !
तेरी गोद में हमने सोया |
तेरी आचंल में हमने खाया !
तेरी आँचल में हमने खेला !
तुझ संग मिलकर हमने रोया !
तूने हमे कहा - आँखों का तारा !
हमने तुझे कहा – ध्रुव का तारा !!
' राम-कृष्ण, भीष्म –युधिष्ठिर तूने बनाया ||
सच है की कर्ण – अर्जुन, बुध्द-महावीर तूने ही बनाया |
तेरी महिमा अपार माँ ! तेरी महिमा अपार
हे नित्य माता ! तूने ही शंकर – रामानुजन, गाँधी – मालवीय
सबको हिय का अमीरस पिलाया ||
तेरी महिमा अपार माँ ! तेरी महिमा अपार........
हे माँ ! हमे भी शरण दो, मन की कुबुद्धि हर दो |
हे वर दायिनी वर दो , जीवन धीर – वीर कर दो |
माँ ! मेरे जीवन की बगिया, नित्य खिलती रहे |
तुझ से बनी सांसों की डोरियाँ चलती रहें ||
माँ ! तू बस इतना करम कर दो |
निज वत्स का इतना धरम कर दो ||
हमे झुकाएं शीश, तूं हमें शुभाशीष दे दो ||
६.प्रेम जगत(कहानी)
प्रेम-जगत १
( 'प्रेम -जगत)
है और हम सभी इस रंगमंच के पात्र।)
विज्ञो का मत है की आदि मानव ने प्रेम की आदिम आग की उष्णता से सृस्टि की रचना की 'आदम और हौवा या ,मनु और शतरूपा ने बाव संवेदन धड़कते प्रेम भावना के लिए स्वर्ग के संवेदन हित आनदं रस को नही अपितु जगत के कठोर जीवन को अपनाया |
ओ- ढोलमारो , लैला मजनू , रोमिओ -जुलियर ,हीर -राँझा , की प्रेम कथाये तो यही रेखांकित करती है की प्रेम ही जीवन का सार है, प्रेम विहीन जगत वीरान है| इसी प्रेम के वशीभूत (जगत बनाने वाले ) माता (प्रकृति) व पिता (पुरुष) जगत का निर्माण किया । अतः उन्हें मेरा सहस्त्रो बार प्रणाम !
परिवारिक सुख आकाश में घटाओ के सदृस होता है| सुख उत्पन्न होता है पर चिर कल तक स्थिर नही होता उन घटाओ के सदृश ही छिप जाता है
'वर्षो से मेरे आँगन में एक अंगना नही जिससे मेरी आँगन सुनी है । 'ऐसा ही विचार कर 'मनीलाल ' अपने पुत्र (मधुसूदन ) क विवाह कर रहे है । असलबात मधुसूदन जब १० वर्ष का था, तब उसकी 'जन्म जननी' दुनिया से चल बसी । वह माँ की ममता को न पा सका- माँ की ममता उसके लिए आसमान के कुसुम हो गई ।
'
मनीलाल' मंजोलगढ़ के एक ईमानदार पुरुष है । वे सबको एक आँख से देखते है । पत्नी मृत्यु के बाद उनके आंखों से खून उतर आता - है बस याद आती ... कमर तोड़ जाती । बस उसी के याद को भुलाने और दुःख के आंसु को सुख में बदलने के लिए ही वे अपने पुत्र का विवाह कर रहे है ।
मधुसूदन का विवाह सुमन के साथ हो रहा है । 'सुमन' एक सजिली लड़की है । वह विदितनारायण की पुत्री है । 'विदित नारायण' भले व नेक इंसान है ।वे प्रेमगढ़ के सकुशल व्याक्ति हैं । आखिर एक दिन मधुसूदन की बारात प्रेमगढ़ के लिए निकल पड़ती है और लोगो की इंतजार की घड़िया ख़त्म हो जाती है ।
प्रेमगढ़ एक मनभावन नगर है। , किन्तु मधुसूदन की बारात ने उस नगर की ओर सजा दिया है उस जन -संकुल नगर में अति चहल -पहल है । मधुसूदन के माथ पर सुन्दर सेहरा है । जिससे मधुसूदन अति प्रसन्नचित है । वहां का विशद ए नूर अनुपम है । धरती के आसमा तक शहनाइओ की ध्वनि गूंज रही है , तारे गण आकाश में टिमटिमा रहे हैैं मानों सबके खुशीयों में झूम रहे हों । (कुछ देर बाद) पुरोहित द्वारा शिव ,गौरी व गणेश जी की पूजा कराइ जा रही है । वहीं सुहागिन स्त्रियों मंगल गान गा रही हैं । जिससे आये सभी ऐ कुटुम्ब जन आनंदित हो रहे हैं। (धीरे- धीरे द्वार चार की रीति- रस्म पूर्ण हो जाती है) वही एक सुंदर जनवासा है जिसमे आये सभी बारातियों की मंडली क्रमशः बैठी है । उन सबकी नज़र (सामने) दूल्हे और दुल्हन पर एक टक लगी है । वे सब उनके मुस्कान भरे चेहरे को देखकर बरबस ही मोहित हो रहे हैं। ख़ैर सुंदरता किसे नही मोहित कर लेती ।
आज 'सुमन' बारहों भूषणो से सजी है । उसके पैरों में नुपुर के साथ किंकिनि है । उसके
हाथों में कंगन के साथ चुड़िया हैं। उसके गले में कण्ठश्री है । बाहों में बसेर बिरिया के साथ बाजूबंद है । माथे पर सुन्दर टिका के साथ शीस में शीस फूल है । उसे देख कर ऐसा लग रहा मानो 'सुमन' नंदन की परी हो..... जो श्रृंगार- रस और सौंदर्य का मिलन हुआ है |
अब प्रभात की सुमधुर बेल में सुमन व मधुसूदन सात फेरो के पवित्र बंधन में बध रहे हैैं ।उनके इस बंधन के साक्षी अग्निदेव है । वहीं अपने कुलानुसार लाई -परछन और नेक चार का रीती रस्म पूर्ण होता है । हालाँकि सुमन के अपने कोई भाई नहीं है तब भी मंगला नाम का ब्यक्ति अपने आप को सौभाग्य जान कर अपने हाथो से सुन्दर संबध जना रहा है । मानो सीता जी के लिए पृथ्वी का पुत्र मंगल गृह आया हो। शनैः शनै विदाई की पुनीत घड़ी आन पड़ी है । जहा पूजनीय पिता विदित नारायण के पांव न उठ रहे है और न ही टस से मस हो रहे हैं । वहीं दूसरी ओर माँ सुनैना की ममता टूट कर बिखर पड़ी है ।
प्रेम - जगत का प्रेम ही अजूबा है जब सुमन अपने पति के गले में वरमाला डाल रही थी तब सब की आखे एक टक हो कर उसकी ओर देख रही थीं। परन्तु अब सबकी आखे नम है । किसी के मुख से कुछ भी शब्द निकलते नहीं बनता मानो सौंदर्य ने श्रृंगार- रस छोड़ कर शांत_ रस को अपना लिया हो । जो सुमन कल तक अपने साथी सहेलियों की प्रिया थी एक बाबुल की गुड़िया थी। . बाबुल की प्रीत रुपी बाहों में झूलकर कली से सुमन बनी आज वही सुमन बाबुल की प्रीत में मुरझाकर बिदा हो रही है । खैर सुमन को बगैर मुरझाये बहारों का सुख कहा मिलेगा ? जब तक इस जगत में प्रेम रहेगा... तब तक सुमन को बहारों का सुख मिलता रहेगा ।चंद लम्हों के बाद विदितनरायण अपने दिल के टूकड को बिदा कर देते है। सुमन आंखों ही आंखों में देखते - देखते प्रेमांगन से दूर चली जाती है ।
प्रेम -जगत २
मनीलाल कृत- कृत्य हो गए , उनके जो वर्षो की सुनी आँगन में' सुमन 'का जो आगमन हुआ । इस जगत में प्रेम भी अपने वेष को बदलता रहता है । जो मनीलाल कल तक लोगों की सलामती चाहते थे वही मनीलाल अनायास ही परलोक सिधार गए। सारा सुख दुःखों में बदल गया जहा मधुसूदन की जिंदगी चांदनी रात के समान चमक रही थी अब वही खौफनाक अंधेरा सिर्फ अंधेरा …अब तो मधुसूदन के ऊपर पहाड़ सा टूट पड़ा। अगर उसके मन में खुशी होता तो रात अंधेरा भी दीप्त सा लहक पड़ता किन्तु चांदनी रातों में दुखों का साया पड़ जाये तो उसे कौन रोशन करेगा ? वहीं मधुसूदन बिलख-बिलख कर रो रहा है। वहा आये सज्जन विमन है। उन्हें मधुसूदन का रोना अच्छा नही लगता तो वे कह उठते हैं - मत रो मधुसूदन ! मत रो जो होनहारी है सो तो होगा ही ... किसी का भी संयोग से मिलन होता है और बियोग से बिछड़ना। हां मधुसूदन ये जिंदगी रोने के लिए नही है ।जीवन का प्रवाह जैसा बहता है तूं बहनें दे ।किन्तु तू मत रो रोना जगत के लिए पाप है । मरना सौ जन्मों के बराबर है जो की अंतिम सच है । यह रोने की घड़ी नही है। तुमने बाल्य काल में जिन कंधो को हाथी, घोडा और पालकी बना कर अपार आनद उठाया था न ,आज तुम्हें उन्हीं कंधो के मोल को अदा करना है इसलिए तुम भी अपने पिता (मनीलाल) को कन्धा दो ।
मणिलाल के परलोक सिधारते ही घर की आर्थिक स्थिति दुरुस्त नही रही ।जहा मधुसूधन ऐसो आराम की जिंदगी जी रहा था अब वही पहाड़ खोद -खोद कर चुहिया निकालने लगा । जिससे प्रेम -जाल में बंधे पत्नी (सुमन) और पुत्र का पेट पल सके ।
आखिर एक दिन मधुसूदन घर की स्थिति को दुरुस्त करने के लिए घर से निकल गया बहुत दूर... ।वह जान से प्यारे पुत्र को ममत्व के छाव छोड़ गया जहाँ माँ( सुमन )की ममता आपार थी और पुनीत गोद विशाल ।'
ईश्वर की लीला बड़ी विचित्र है । जब मधुसूदन २ वर्ष तक घर नही आया तब सुमन नयन - जल लिए विलापती - ओह देव ! क्या ' मेरे पति देव जगत में कुशल भी है या उनसे मेरा नाता तोड़ दिया ? वह एक तरफ स्तम्भित हो कर भगवान को दोष देती वहीं दूसरी ओर अनुसूया जैसे पतिव्रता नारी धर्म का पालन भी करती।
पर उसे मालूम नही की इस संसार में कोई किसी को दुःख देने वाला नही है । सब अपने ही कर्मो का फल है ।
सुमन चार दिवारी के बाहर विवर्ण मुख निम्न मुख किये बैठी है । उसकी आंखें नम है व केस विच्छिन्न । जिससे फेस ढका है । सूर्य की लालिमा उसके तन पर पड़ रहे हैं तब भी वह दुखों की काली सागर में डूबी जा रही है मानो उस अबला के लिए तड़पना ही उसका सफर बन गया हो। वह जैसे पति प्रतिक्षा में बिकल है वैसे ही प्रकृति भी अपने अनमोल छटा से विचल है । वह बारम बार विधाता को दोष देती और कहती - हाँ ,देव ! तूं सच-सच बता.. तूने मेरे ख्वाबों इरादों को पत्थर तो नही बना दिया ? क्या सूर्य के बिना दिन और चंदमा के बिना रात शोभा पा सकते है ? नही न... फिर मै अपने पति के बिना कैसे शोभा पा सकती हूं ? क्या तुझे एक दूजे की जुदाई का तजुर्बा नही... अगर नही, तो इस " प्रेम - जगत "में 'आ' और के देख ... तेरे बनाये इस कठोर धरती पर तेरा ये मिट्टी का खिलौना (पुतला) एक प्रेम के लिए कितना अधीर है । कि 'कास हमें मुठ्ठी भर प्रेम मिल जाता तो हमारे इस मिटटी के खिलौने में जान आ जाता … । आगे वह कहने लगी -'अब दिन फिरेंगे' तो जी भर के देखूँगी ।' हां देव !अब विलम्ब न कर ...उन्हें घर के चौखट तक ला दे । ये तुमसे मेरी आर्तनाद है और एक दुहाई भी।' हां लोगो को यह भ्रम है कि मैंने अपने पति (मधुसूदन )को घर से तू -तू ,मै -मै कर और मुह फुलाकर निकाल दिया है।पर तुम तो सर्वज्ञ हो तुम्हें मालूम है कि "मै उन्हें सप्रेम गले मिलाकर किस्मत बनाने और जिंदगी सवारने के लिए भेजा है।
अतः ये आखे उनकी प्रतीक्षा में कब से राह सजाये खड़ी है । अंततः एक दिन मधुसूदन बीते हुए मौसम की तरह अपने पत्नी सुमन के पास लौट आया और पति से गले लगते ही सुमन झूम उठी मानो बहारों के आने पर मुरझाई कली खिल रही हो ।
मधुसूदन हंसते हुए पूछा- क्या हुआ सुमन ? तूम इतनी बेचैन क्यों हो ? क्या मै इस प्रेम -जगत में आकर सचमुच खो गया था ? अगर हां मै खो गया था तो क्या मेरा प्रेम भी इस जगत से खो गया था ? इन सवालो के ज़वाब सुमन न दे सकी और अपने बहारों में महकने लगी।
७.बेवफा अपनों के लिए
बेवफा ! अपनों के लिए ...
ओ ' धन्य ' जिसने आंख बन्द होते हुए भी दुनिया के हसीन नजारों को देख लिया था .
सात सुरों के संगीत को अपने सांसो मे बसा लिया था पर उसके असल जिंदगी का अंजाम क्या हुआ? जो नम्रता के साथ प्यार - वयार के चक्कर में था भूल गया था कि ऐसेे रेत का महल बनाने से क्या फायदा जो खुद -ब- खुद टूट के बिखर जाये .उसे एहसास ही नही था कि एक दिन नम्रता उससे दूर ...दूर दुनिया मे गुम हो जायेगी . आखिर ऐसा क्या हुआ उसके साथ?
हैलो, नम्रता कैसी हो ...?
धन्य ने तार के सहारे पुछा .पढाई के सिलसिले मे नम्रता शहर गयी हुई थी.
मै बिल्कुल ठीक हूं धन्य .मेरी पढाई जैसे ही पूरी होगी मै तुुम्हारे पास आ जााऊंगी ...जवाब देती हुई नम्रता बोली.
'तो कब आ रही हो नम्रता? तुम बिन मुझे कुछ भी अच्छा नही लगता ...धन्य ने कहा.
मैं क्या करुं धन्य ..तुमसे दूर तो जाना मै भी नही चाहती थी पर... नम्रता बोली .
मैं सच कह रहा हूं नम्रता हर पल हर घडी मुझे तेरी ही याद आती है और मैं उन यादों से बेहाल हो जाता हूं.
हां, नम्रता तेरे जाने के बाद मेरी जिन्दगी वीरान सी लगती है .एक पल भी सुकून नही मिलता
...सिर्फ और सिर्फ बेचैनी .कुछ ऐसे ही बेताबी के आलम मे धन्य ने कहा.
बचपन मे दोनों ही एक साथ एक ही स्कूल में पढाई किये थे तब से दोनो एक दुसरे से प्यार करने लगे.और धन्य भी नम्रता को अपना मानने लगा. धन्य नम्रता के बिना अपने आप को एकान्त महसूस करने लगा .अब तुम आ भी जाओ नम्रता ...तेरे आने से मेरे उजड़े जिन्दगी मे फिर से बहार आ जायेगी.अब और मुझसे रहा जाता...बेताबी के आलम मे धन्य ने कहा .
असल बात धन्य और नम्रता कक्षा 6 वी से एक ही विधालय मे पढते थे.दोनों की गहरी दोस्ती हो गई . किसी पार्टी या समारोह में साथ -साथ आने -जाने लगे .जब ये सारी बात नम्रता के पिता को मालुम हुआ कि मेरी तीन -पांच मे आगे है अगर उसे दो -चार लगा दुंगा तो कही नौ दो ग्यारह ना हो जाए .इस लिए उन्होंने मतंग पुर के राज निहित के लडके से नम्रता की शादी तय कर दी . धन्य नम्रता को लेकर न जाने कितने सपने संजोता . उन दोनो का तार के सहारे ही बात होता था.फिरसे एक दिन धन्य तार के सहारे पुछा कि जब तुम मुझसे इतना बेइंतहा प्यार करती हो तो क्यों नही मेेेर पास आ जाती ...और हमारे बीच के दूरि यो को मिटा देती. तुम फिक्र मत करो धन्य मेरी पढाई जैसे ही पूरी होगी मै आजाऊॅगी. क्या करुं मुझे भी यहां एक पल अच्छा नही लगता है फिरभी दिल के जख्मों को सी सी कर जी रही हूं. नम्रता बोली .
धन्य ' अमीर खान की तरह स्मार्ट था. वह हाथ मे चूड़ा और टी- शर्ट आदि पहनने का शौकीन था . हर रोज सुबह और शाम आईने के साथ काटता .एक दिन हसी -खुशी के साथ मस्त माहौल मे बैैठकर नम्रता के साथ गुजारे पलों को याद कर रहा था कि वे भी कोई दिन थे जब हम पहली बार किसी पार्टी मे मिले थे लाल शूट पहने मुझे नम्रता भा गई थी .मुझे ऐसा लग रहा था कि मै ही नम्रता का सच्चा प्रेमी हूं. तभी अचानक फोन की घंटी बजी ...फोन था नम्रता का.धन्य ने फोन उठाया ..बोला कैसे नम्रता? आ रही हो न ?मै बस तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा हूं .क्या तुम बिना बताए आकर के मुझे सरप्राइज देना चाहती हो , मै सब जानता हूं.धन्य और कुछ कहता इससे पहले की फोन कट चुकी थी फिर फोन की घंटी बजी ... इधर से धन्य फोन उठाते ही पहले जैसा दुहराया ...बोला -क्या हुआ नम्रता सब ठीक तो है? मगर उधर से जवाब सुनते ही धन्य सन्न रह गया वही गिर पडा . मानो उसके चमकती जिंदगी मे अंधेरा छा गया हो . ये तुने क्या किया नम्रता? तुम तो कहती थी हमारे प्यार के रंग कभी नही छुटेंगे...हमारे रिश्ते अटूट है कभी नही टुटेंगे. क्या तेरा ओ वादा ...ओ इरादा सिर्फ झूठे प्यार का सौदा था? ऐ दुनिया वालो इस दुनिया मे अब प्रेम ,प्रेम नही रहा ...इक धोखा बन गया है .जिसे अपना समझो वही पराया हो जाता है .उन्होंने तो बङी आसानी से कह दिया ' आई हैट यू '... एक पल के लिए भी नही सोचा कि हमारे ऐसा कहने से उनके नाजुक दिल पर क्या गुजरेगी? अब हम किसके लिए इस जहां मे जीयेें ? तुने क्योंकि बेवफाई नम्रता? किसके लिए .. ?"अपनों के लिए ".खैर अब इन बातों से हमें क्या लेना -देना ?लेना देना है तो अपने सार्थक सांसो से ...जो जीवन जीने की कला सीखा सके .