संस्कृत व्याकरण का इतिहास

संस्कृत का व्याकरण वैदिक काल में ही स्वतंत्र विषय बन चुका था। नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात - ये चार आधारभूत तथ्य यास्क (ई. पू. लगभग 700) के पूर्व ही व्याकरण में स्थान पा चुके थे। पाणिनि (ई. पू. लगभग 550) के पहले कई व्याकरण लिखे जा चुके थे जिनमें केवल चापिशलि और क्यूकाशकृत्स्न के कुछ सूत्र आज उपलब्ध हैं। किंतु संस्कृत व्याकरण का क्रमबद्ध इतिहास पाणिनि से आरंभ होता है।

व्याकरण शास्त्र के ९ कर्ता थे जिनके नाम कुछ इस प्रकार थे-

ऐन्द्रं चान्द्रं काशकृत्स्नं कौमारं शाकटायनम्।
सारस्वतं चापिशलि शाकलं पाणिनीयकम् ।।

व्याकरण शास्त्र का बृहद् इतिहास है किन्तु महामुनि पाणिनि और उनके द्वारा प्रणीत अष्टाधयायी ही इसका केन्द्र बिन्दु हैं। पाणिनि ने अष्टाधयायी में 3995 सूत्रें की रचनाकर भाषा के नियमों को व्यवस्थित किया जिसमें वाक्यों में पदों का संकलन, पदों का प्रकृति, प्रत्यय विभाग एवं पदों की रचना आदि प्रमुख तत्त्व हैं। इन नियम पूर्त्ति के लिये धातु पाठ, गण पाठ तथा उणादि सूत्र भी पाणिनि ने बनाये। सूत्रों में उक्त, अनुक्त एवं दुरुक्त विषयों का विचार कर कात्यायन ने वार्त्तिक की रचना की। बाद में महामुनि पतंजलि ने महाभाष्य की रचना कर संस्कृत व्याकरण को पूर्णता प्रदान की। इन्हीं तीनों आचार्यों को 'त्रिमुनि' के नाम से जाना जाता है। प्राचीन व्याकरण में इनका अनिवार्यतः अध्ययन किया जाता है।

नव्य व्याकरण के अन्तर्गत प्रक्रिया क्रम के अनुसार शास्त्रों का अध्ययन किया जाता है जिसमें भट्टोजीदीक्षित, नागेश भट्ट आदि आचार्यों के ग्रन्थों का अध्ययन मुख्य है। प्राचीन व्याकरण एवं नव्य व्याकरण दो स्वतंत्र विषय हैं।

पाणिनीय व्याकरण

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पाणिनि ने वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत दोनों के लिए अष्टाध्यायी की रचना की। अपने लगभग चार हजार सूत्रों में उन्होंने सदा के लिए संस्कृत भाषा को परिनिष्ठित कर दिया। उनके प्रत्याहार, अनुबंध आदि गणित के नियमों की तरह सूक्ष्म और वैज्ञानिक हैं। उनके सूत्रों में व्याकरण और भाषाशास्त्र संबंधी अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों का समावेश है।

कात्यायन (ई. पू. लगभग 300) ने पाणिनि के सूत्रों पर लगभग 4295 वार्तिक लिखे। पाणिनि की तरह उनका भी ज्ञान व्यापक था। उन्होंने लोकजीवन के अनेक शब्दों का संस्कृत में समावेश किया और न्यायों तथा परिभाषाओं द्वारा व्याकरण का विचारक्षेत्र विस्तृत किया।

कात्यायन के वार्तिकों पर पतंजलि (ई. पू. 150) ने महाभाष्य की रचना की। महाभाष्य आकर ग्रंथ है।/ इसमें प्राय: सभी दार्शनिक वादों के बीज हैं। इसकी शैली अनुपम है। इसपर अनेक टीकाएँ मिलती हैं जिनमें भर्तृहरि की त्रिपदी, कैयट का प्रदीप और शेषनारायण का "सूक्तिरत्नाकर" प्रसिद्ध हैं। सूत्रों के अर्थ, उदाहरण आदि समझाने के लिए कई वृत्तिग्रंथ लिखे गए थे जिनमें काशिका वृत्ति (छठी शताब्दी) महत्वपूर्ण है। जयादित्य और वामन नाम के आचार्यों की यह एक रमणीय कृति है। इसपर जिनेंद्रबुद्धि (लगभग 650 ई.) की काशिकाविवरणपंजिका (न्यास) और हरदत्त (ई. 1200) की पदमंजरी उत्तम टीकाएँ हैं। काशिका की पद्धति पर लिखे गए ग्रंथों में भागवृत्ति (अनुपलब्ध), पुरुषोत्तमदेव (ग्यारहवीं शताब्दी) की भाषावृत्ति और भट्टोजि दीक्षित (ई. 1600) का शब्दकौस्तुभ मुख्य हैं।

पाणिनि के सूत्रों के क्रम बदलकर कुछ प्रक्रियाग्रंथ भी लिखे गए जिनमें धर्मकीर्ति (ग्यारहवीं शताब्दी) का रूपावतार, रामचंद्र (ई. 1400) की प्रक्रियाकौमुदी, भट्टोजि दीक्षित की सिद्धान्तकौमुदी और नारायण भट्ट (सोलहवीं शताब्दी) का प्रक्रियासर्वस्व उल्लेखनीय हैं। प्रक्रियाकौमुदी पर विट्ठलकृत "प्रसाद" और शेषकृष्णरचित "प्रक्रिया प्रकाश" पठनीय हैं। सिद्धांतकौमुदी की टीकाओं में प्रौढमनोरमा, तत्वबोधिनी और शब्देन्दुशेखर उल्लेखनीय हैं। प्रौढमनोरमा पर हरि दीक्षित का शब्दरत्न भी प्रसिद्ध है।

नागेश भट्ट (ई. 1700) के बाद व्याकरण का इतिहास धूमिल हो जाता है। टीकाग्रंथों पर टीकाएँ मिलती हैं। किसी किसी में न्यायशैली देख पड़ती है। पाणिनिसंप्रदाय के पिछले दो सौ वर्ष के प्रसिद्ध टीकाकारों में वैद्यनाथ पायुगुंड, विश्वेश्वर, ओरमभट्ट, भैरव मिश्र, राधवेंद्राचार्य गजेंद्रगडकर, कृष्णमित्र, नित्यानंद पर्वतीय एवं जयदेव मिश्र के नाम उल्लेखनीय हैं।

संस्कृत व्याकरण का संक्षिप्त इतिहास

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वेद-पुरूष के मुख के रूप में प्रसिद्ध व्याकरण ही वो वेदाङ्ग हैं जो वेदमन्त्रों का अर्थ स्पष्ट करता है और मंत्रों को प्रयोग योग्य बनाता है। व्याकरण का ज्ञान इसके प्रथम प्रवक्ता ब्रह्मा से आरम्भ होकर बृहस्पति, इन्द्र, भारद्वाज, ऋषियों तक पहुँचा । इसके पश्चात् अलग-अलग ऋषियों ने अलग-अलग प्रमुख आठ व्याकरण-सम्प्रदायों को जन्म दिया जिनका आज नाममात्र ही शेष रह गया है। पाणिनीय व्याकरण के विकसित होने पर इसकी सारगर्भित, संक्षिप्त व वैज्ञानिक पद्धति के कारण ये सभी सम्प्रदाय भुला दिये गये ।

पाणिनीय व्याकरण की विकास-परम्परा को आठ अवधियों में बांट सकते हैं - सूत्रकाल, वार्तिककाल, भाष्यकाल, दर्शनकाल, वृत्तिकाल, प्रक्रियाकाल, सिद्धान्तकाल और वर्तमानकाल। ७०० ईसापूर्व के लगभग यास्क ने निरूक्त की रचना की जो भाषावैज्ञानिक-अध्ययन के क्षेत्र में प्रथम ग्रन्थ माना जा सकता है। ५०० ईसापूर्व में आचार्य पाणिनि ने संस्कृतभाषा का पूर्ण, संक्षिप्त व वैज्ञानिक-ढंग से व्याकरणग्रन्थ अष्टाध्यायी लिखा। पाणिनि से पूर्व भी आठ व्याकरण-सम्प्रदाय प्रचलित थे परन्तु सारगर्भित व वैज्ञानिक होने के कारण पाणिनीय संप्रदाय पिछले दो हजार वर्षों से अस्तित्व में है और उनके द्वारा रचित अष्टाध्यायी का अनुशीलन होता आया है। यह अवधि 'सूत्रकाल' थी। इसके पश्चात् 'वार्तिककाल' में पाणिनीय अष्टाध्यायी को परिष्कृत व इसकी व्याख्या करने के लिए ३५० ईसापूर्व में कात्यायन ने वार्तिक लिखे व कुछ सूत्रों को परिष्कृत किया। आगे चलकर इन वार्तिकों को शामिल करते हुए महर्षि पतञ्जलि ने चूर्णकशैली (dialogue) में 100 ईसापूर्व के लगभग महाभाष्य ग्रन्थ की रचना कर पाणिनीय सूत्रों की समीक्षा, टिप्पणी, विवेचना व आलोचना की है । भाषावैज्ञानिक दृष्टि से महाभाष्य में शिक्षा (phonology), व्याकरण (grammar and morphology) और निरुक्त (etymology) तीनों की चर्चा हुई है।

पाणिनि से लेकर महाभाष्य तक के काल को 'त्रिमुनि-काल' के नाम से जाना जाता है। इसके पश्चात् ५वीं शताब्दी से लेकर १५वीं शताब्दी तक इन त्रिमुनियों की व्याख्याएं हुई । ५वीं शताब्दी में व्याकरणशास्त्र के सिद्धान्तों की दार्शनिक-दृष्टि से प्रस्तुत कर दार्शनिक विचारधारा को जन्म दिया जिसका भट्टोजि दीक्षित, कोण्डभट्ट, नागेश, आदि ने अनुशीलन कर अतिसूक्ष्म विवेचन प्रस्तुत किया। ईसा की ७वीं शताब्दी के आते आते व्याकरण ग्रन्थों की व्याख्या कर इन्हें उदाहरण आदि से समझाने के लिए वृत्ति ग्रन्थ लिखे गये । इस वृत्तिकाल में जयादित्य व वामन द्वारा काशिका-वृत्ति लिखी गयी जो बहुत प्रसिद्ध हुई जिसका आज भी अनुशीलन हो रहा है। वृत्तिकाल के पश्चात् नैयायिक समालोचना के दौर में 11वीं सदी में विषय-विभाग के आधार पर अष्टाध्यायी सूत्रों की व्याख्या करने हेतु प्रकरण ग्रन्थों की रचना प्रारम्भ हुई । इस प्रथा में रूपावतार, रूपमाला, प्रक्रियाकौमुदी, प्रक्रियासर्वस्व, सार-सिद्धान्तकौमुदी, लघुसिद्धान्तकौमुदी, मध्यसिद्धान्तकौमदी, वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी इत्यादि ग्रन्थों की रचना हुई । वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी में अष्टाध्यायी के सभी सूत्रों को प्रक्रियाक्रम से विवेचित कर उनकी वृत्ति देते हुए शब्दरूपों की सिद्धि में उनका विनियोग प्रदर्शित किया गया जिसके कारण यह इतनी लोकप्रिय हुई कि अष्टाध्यायीक्रम की शास्त्रपरम्परा ही लुप्त सी हो गयी। सिद्धान्तकौमुदी के प्रचलन ने बोपदेव के मुग्धबोध, कातन्त्र, चान्द्र-व्याकरण आदि को भी बाहर कर दिया । अब प्रमुखतः पाणिनीय व्याकरण ही प्रचलित है।

परवर्ती काल में सिद्धान्तकौमुदी पर अनेक व्याख्याएं हुई जिनमें प्रौढ़मनोरमा, बालमनोरमा, लघुसिद्धान्तकौमुदी, शब्देन्दुशेखर आदि प्रमुख हैं। 16वीं -17वीं शताब्दियों में नव्यन्याय की प्रतिपादन-शैली में गम्भीर और सूक्ष्म विवेचन प्रारम्भ हुआ जिसे सिद्धान्तकाल कह सकते हैं। इसमें कौण्डभट्ट, मञ्जूषाकार नागेश जैसे विद्वान् प्रसिद्ध रहे हैं। इसके बाद १८वीं से २०वीं शताब्दियों के मध्य व्याकरणग्रन्थों की टीकाएं हिन्दी आदि बहुसंख्य लोगों द्वारा प्रयुक्त भाषाओं में होने लगी। अतः इसकाल को अनुवादकाल कह सकते हैं। २१वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही संस्कृतव्याकरण ग्रन्थों की टीकाएं अंग्रेजी में तेजी से लिखी जाने लगी। २१वीं शताब्दी के द्वितीय दशक से व्याकरण के सिद्धान्तों के आधार पर तकनीकी निर्माण हो रहा है।

अ-पाणिनीय व्याकरण

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पाणिनीय व्याकरण के अतिरिक्त संस्कृत के जो अन्य व्याकरण इस समय उपलब्ध हैं वे सभी पाणिनि की शैली से प्रभावित हैं। अवश्य ऐंद्र व्याकरण को कुछ लोग पाणिनि के पूर्व का मानते हैं। किंतु यह मत असंदिग्ध नहीं है। बर्नल के अनुसार ऐंद्र व्याकरण का संबंध कातंत्र से और तमिल के प्राचीनतम व्याकरण तोल्काप्पियम से है। ऐंद्र व्याकरण के आधार पर सातवाहन युग में शर्व वर्मा ने कातंत्र व्याकरण की रचना की। इसके दूसरे नाम कालापक और कौमार भी हैं। इसपर दुर्गसिंह की टीका प्रसिद्ध है। चांद्र व्याकरण चंद्रगोमी (ई. 500) की रचना है। इसपर उनकी वृत्ति भी है। इसकी शैली से काशिकाकार प्रभावित हैं। जैनेंद्र व्याकरण जैन आचार्य देवनंदी (लगभग छठी शताब्दी) की रचना है। इसपर अभयनंदी की वृत्ति प्रसिद्ध है। उदाहरण में जैन संप्रदाय के शब्द मिलते हैं। जैनेंद्र व्याकरण के आधार पर किसी जैन आचार्य ने 9वीं शताब्दी में शाकटायन व्याकरण लिखा और उसपर अमोघवृत्ति की रचना की। इसपर प्रभावचंद्राचार्य का न्यास और यक्ष वर्मा की वृत्ति प्रसिद्ध हैं। भोज (ग्यारहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध) का सरस्वती कंठाभरण व्याकरण में वार्तिकों और गणपाठों को सूत्रों में मिला दिया गया है। पाणिनि के अप्रसिद्ध शब्दों के स्थान पर सुबोध शब्द रखे गए हैं। इसपर दंडनाथ नारायण की हृदयहारिणी टीका है। सिद्ध हेम अथवा हेम व्याकरण आचार्य हेमचंद्र (ग्यारहवीं शताब्दी) रचित है। इसमें संस्कृत के साथ साथ प्राकृत और अपभ्रंश व्याकरण का भी समावेश है। इसपर ग्रंथकार का न्यास और देवेंद्र सूरि का लघुन्यास उल्लेखनीय हैं। सारस्वत व्याकरण के कर्ता अनुभूतिस्वरूपाचार्य (तेरहवीं शताब्दी) हैं। इसपर सारस्वत प्रक्रिया और रघुनाथ का लघुभाष्य ध्यान देने योग्य हैं। इसका प्रचार बिहार में पिछली पीढ़ी तक था। बोपदेव (तेरहवीं शताब्दी) का मुग्धबोध व्याकरण नितांत सरल है। इसका प्रचार अभी हाल तक बंगाल में रहा है। पद्मनाभ दत्त ने (15वीं शताब्दी) सुपद्म व्याकरण लिखा है। शेष श्रीकृष्ण (16वीं शताब्दी) की पदचंद्रिका एक स्वतंत्र व्याकरण है। इस पर उनकी पदचंद्रिकावृत्ति उल्लेखनीय है। क्रमदोश्वर का संक्षिप्तसार (जौमार) और रूपगोस्वामी का हरिनामामृत भी स्वतंत्र व्याकरण हैं। कवींद्राचार्य के संग्रह में ब्रह्मव्याकरण, यमव्याकरण, वरुणव्याकरण, सौम्यव्याकरण और शब्दतर्कव्याकरण के हस्तलेख थे जिनके बारे में आज विशेष ज्ञान नहीं है। प्रसिद्ध किंतु अनुपलब्ध व्याकरणों में वामनकृत विश्रांतविद्याधर उल्लेखनीय है।

गणपाठ एवं धातुपाठ

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प्रमुख संस्कृत व्याकरणों के अपने अपने गणपाठ और धातुपाठ हैं। गणपाठ संबंधी स्वतंत्र ग्रंथों में वर्धमान (12वीं शताब्दी) का गणरत्नमहोदधि और भट्ट यज्ञेश्वर रचित गणरत्नावली (ई. 1874) प्रसिद्ध हैं। उणादि के विवरणकारों में उज्जवलदत्त प्रमुख हैं। काशकृत्स्न का धातुपाठ कन्नड भाषा में प्रकाशित है। भीमसेन का धातुपाठ तिब्बती (भोट) में प्रकाशित है। पूर्णचंद्र का धातुपारायण, मैत्रेयरक्षित (दसवीं शताब्दी) का धातुप्रदीप, क्षीरस्वामी (दसवीं शताब्दी) की क्षीरतरंगिणी, सायण की माधवीय धातुवृत्ति, श्रीहर्षकीर्ति की धातुतरंगिणी, बोपदेव का कविकल्पद्रुम, भट्टमल्ल की आख्यातचंद्रिका विशेष उल्लेखनीय हैं। लिंगबोधक ग्रंथों में पाणिनि, वररुचि, वामन, हेमचंद्र, शाकटायन, शांतनवाचार्य, हर्षवर्धन आदि के लिंगानुशासन प्रचलित हैं। इस विषय की प्राचीन पुस्तक "लिंगकारिका" अनुपलब्ध है।

संस्कृत व्याकरण का दार्शनिक विवेचन

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संस्कृत व्याकरण के दार्शनिक पक्ष का विवेचन व्याडि (लगभग ई. पू. 400) के "संग्रह" से आरंभ होता है जिसके कुछ वाक्य ही आज अवशेष हैं। भर्तृहरि (लगभग ई. 500) का वाक्यपदीय व्याकरणदर्शन का सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ है। स्वोपज्ञवृत्ति के अतिरिक्त इसपर वृषभदेव (छठी शताब्दी), पुण्यराज (नवीं शताब्दी) और हेलाराज (दसवीं शताब्दी) की टीकाएँ विश्रुत हैं। कौंडभट्ट (ई. 1600) का वैयाकरणभूषण और नागेश की वैयाकरण सिद्धांतमंजूषा उल्लेखनीय हैं। नागेश का स्फोटवाद, कृष्णभट्टमौनि की स्फोटचंद्रिका और भरतमिश्र की स्फोटसिद्धि भी इस विषय के लघुकाय ग्रंथ हैं। सीरदेव की परिभाषावृत्ति, पुरुषोत्तमदेव की परिभाषावृत्ति, विष्णुशेष का परिभाषाप्रकाश और नागेश का परिभाषेंदुशेखर पठनीय हैं। पिछले डेढ़ सौ वर्षों में परिभाषेंदुशेखर पर लगभग 25 टीकाएँ लिखी गई हैं जिनमें गदा, भैरवी, भावार्थदीपिका के अतिरिक्त तात्या शास्त्री पटवर्धन, गणपति शास्त्री मोकाटे, भास्कर शास्त्री, वासुदेव अभ्यंकर, मन्युदेव, चिद्रूपाश्रय आदि की टीकाएँ हैं।

यूरोप के विद्वानों का योगदान

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संस्कृत व्याकरण के इतिहास में यूरोप के विद्वानों का भी योग है। पी. सासेती ने, जो 1583 से 1588 तक भारत में था, संस्कृत और इटली की भाषा का साम्य दिखलाया था। किन्तु संस्कृत का नियमबद्ध व्याकरण जर्मन-यहूदी जे. ई. हाक्सेलेडेन ने लिखा। उसकी अप्रकाशित कृति के आधार पर जर्मन पादरी पौलिनस ने 1790 में संस्कृत का व्याकरण प्रकाशित किया जिसका नाम "सिद्ध रुबम् स्यू ग्रामाटिका संस्कृडामिका" था। फोर्ट विलियम कालेज के अध्यापक डॉ॰ विलियम कैरे ने 1802 में संस्कृत का व्याकरण अंग्रेज़ी में प्रकाशित किया। विलियम कोलब्रुक ने 1805 में, विलकिन्स ने 1808 में, फोरेस्टर ने 1810 में, संस्कृत के व्याकरण लिखे। 1823 में ओथमार फ्रांक ने लैटिन भाषा में संस्कृत व्याकरण लिखा। 1834 में बोप्प ने जर्मन भाषा में संस्कृत व्याकरण लिखा जिसका नाम "क्रिटिशे ग्रामाटिक डे संस्कृत स्प्राख" है। बेनफी ने 1863 में, कीलहार्नं ने 1870 में, मॉनिअर विलियम्स ने 1877 में और अमरीका के ह्विटनी ने 1879 में अपने संस्कृत व्याकरण प्रकाशित किए। एल. रेनो ने फ्रेंच भाषा में संस्कृत व्याकरण (1920) और वैदिक व्याकरण (1952) प्रकाशित किए। गणपाठ और धातुपाठ के संबंध में वेस्टरगार्द का रेडिसेज लिंग्वा संस्कृता (1841), बोटलिंक का पाणिनि ग्रामाटिक (1887), लीबिश का धातुपाठ (1920) ओर राबर्टं बिरवे का "डर गणपाठ" (1961) उल्लेखनीय हैं। यूरोप के विद्वानों की कृतियों में मैकडोनेल का "वैदिक ग्रामर" (1910) और वाकरनागेल का "आल्ट्इंडिश ग्रामटिक" (3 भाग, 1896-1954) उत्कृष्ट ग्रंथ हैं। अंग्रेजी में लिखित श्री काले का "हायर संस्कृत ग्रामर" भी प्रसिद्ध है।

संस्कृत व्याकरण का इतिहास पिछले ढाई हजार वर्ष से टीका टिप्पणी के माध्यम से अविच्छिन्न रूप में अग्रसर होता रहा है। इसे सजीव रखने में उन ज्ञात अज्ञात सहस्रों विद्वानों का सहयोग रहा है जिन्होंने कोई ग्रंथ तो नहीं लिखा, किंतु अपना जीवन व्याकरण के अध्यापन में बिताया।

संस्कृत के व्याकरण ग्रन्थ और उनके रचयिता

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  1. संग्रह -- व्याडि (लगभग ई. पू. 400 ; व्याकरण के दार्शनिक विवेचन का आदि ग्रन्थ)
  2. अष्टाध्यायी -- पाणिनि
  3. महाभाष्य -- पतञ्जलि
  4. वाक्यपदीय -- भर्तृहरि (लगभग ई. 500, व्याकरणदर्शन का सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ)
  5. त्रिपादी (या, महाभाष्यदीपिका) -- भर्तृहरि (महाभाष्य की टीका)
  6. काशिकावृत्ति -- जयादित्य तथा वामन (छठी शती)
  7. वार्तिक -- कात्यायन
  8. प्रदीप -- कैयट
  9. सूक्तिरत्नाकर -- शेषनारायण
  10. भट्टिकाव्य (या, रावणवध) -- भट्टि (सातवीं शती)
  11. चान्द्रव्याकरण -- चन्द्रगोमिन्‌
  12. कच्चान व्याकरण -- कच्चान (पालि का प्राचीनतम उपलब्ध व्याकरण)
  13. मुखमत्तदीपनी -- विमलबुद्धि (कच्चान व्याकरण की टीका तथा न्यास, 11वीं सदी)
  14. काशिकाविवरणपंजिका (या, न्यास) -- जिनेन्द्रबुद्धि (लगभग 650 ई., काशिकावृत्ति की टीका)
  15. शब्दानुशासन -- हेमचन्द्राचार्य
  16. पदमञ्जरी -- हरदत्त (ई. 1200, काशिकावृत्ति की टीका)
  17. सारस्वतप्रक्रिया -- स्वरूपाचार्य अनुभूति
  18. भागवृत्ति (अनुपलब्ध, काशिका की पद्धति पर लिखित)
  19. भाषावृत्ति -- पुरुषोत्तमदेव (ग्यारहवीं शताब्दी)
  20. सिद्धान्तकौमुदी -- भट्टोजि दीक्षित (प्रक्रियाकौमुदी पर आधारित)
  21. प्रौढमनोरमा -- भट्टोजि दीक्षित (स्वरचित सिद्धान्तकौमुदी की टीका)
  22. वैयाकरणभूषणकारिका -- भट्टोजि दीक्षित
  23. शब्दकौस्तुभ -- भट्टोजि दीक्षित (ई. 1600, पाणिनीय सूत्रों की अष्टाध्यायी क्रम से एक अपूर्ण व्याख्या)
  24. बालमनोरोरमा -- वासुदेव दीक्षित (सिद्धान्तकौमुदी की टीका)
  25. रूपावतार -- धर्मकीर्ति (ग्यारहवीं शताब्दी)
  26. मुग्धबोध -- वोपदेव
  27. प्रक्रियाकौमुदी -- रामचन्द्र (ई. 1400)
  28. मध्यसिद्धान्तकौमुदी -- वरदराज
  29. लघुसिद्धान्तकौमुदी -- वरदराज
  30. सारसिद्धान्तकौमुदी -- वरदराज
  31. प्रक्रियासर्वस्व -- नारायण भट्ट (सोलहवीं शताब्दी)
  32. प्रसाद -- विट्ठल
  33. प्रक्रियाप्रकाश -- शेषकृष्ण
  34. तत्वबोधिनी -- ज्ञानेन्द्र सरस्वती (सिद्धान्तकौमुदी की टीका)
  35. शब्दरत्न -- हरि दीक्षित (प्रौढमनोरमा की टीका)
  36. मनोरमाकुचमर्दन -- जगन्नाथ पण्डितराज (भट्टोजि दीक्षित के "प्रौढ़मनोरमा" नामक व्याकरण के टीकाग्रंथ का खंडन)
  37. स्वोपज्ञवृत्ति -- (वाक्यपदीय की टीका)
  38. वैयाकरणभूषणसार -- कौण्डभट्ट (ई. 1600)
  39. वैयाकरणसिद्धान्तमञ्जूषा -- नागेश भट्ट (व्याकरणदर्शनग्रंथ)
  40. परिभाषेन्दुशेखर -- नागेश भट्ट (इस यशस्वी ग्रन्थ पर अनेक टीकाएँ उपलब्ध हैं।)
  41. लघुशब्देन्दुशेखर -- नागेश भट्ट (प्रौढमनोरमा की व्याख्या)
  42. बृहच्छब्देन्दुशेखर -- नागेश भट्ट (प्रौढमनोरमा की व्याख्या)
  43. शब्देन्दुशेखर -- नागेश भट्ट
  44. वैयाकरणसिद्धान्तलघुमञ्जूषा -- नागेश भट्ट
  45. वैयाकरणसिद्धान्तपरमलघुमञ्जूषा -- नागेश भट्ट
  46. महाभाष्य-प्रत्याख्यान-संग्रह -- नागेश भट्ट
  47. उद्योत -- नागेश भट्ट (पतञ्जलिकृत महाभाष्य पर टीकाग्रन्थ)
  48. स्फोटवाद -- नागेश भट्ट
  49. स्फोटचन्द्रिका -- कृष्णभट्टमौनि
  50. स्फोटसिद्धि -- भरतमिश्र
  51. परिभाषावृत्ति -- सीरदेव
  52. परिभाषावृत्ति -- पुरुषोत्तमदेव
  53. परिभाषाप्रकाश -- विष्णुशेष
  54. गदा -- परिभाषेन्दुशेखर की टीका
  55. भैरवी -- परिभाषेन्दुशेखर की टीका
  56. भावार्थदीपिका -- परिभाषेन्दुशेखर की टीका
  57. हरिनामामृतव्याकरण -- जीव गोस्वामी
  58. परिमल -- अमरचन्द

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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