जयादित्य संस्कृत के वैयाकरण थे। काशिकावृत्ति जयादित्य और वामन की सम्मिलित रचना है। हेमचंद्र (११४५ वि.) ने अपने 'शब्दानुशासन' में व्याख्याकार जयादित्य को बहुत ही रुचिपूर्ण ढंग से स्मरण किया है। चीनी यात्री इत्सिंग ने अपनी भारत यात्रा के प्रसंग में जयादित्य का प्रभावपूर्ण ढंग से वर्णन किया है।

जयादित्य के जनम मरण आदि वृत्तांत के बारे में कोई भी परिमार्जित एवं पुष्कल ऐतिहासिक सामग्री नहीं मिलती। इत्सिंग की भारतयात्रा एवं विवरण से कुछ जानकारी मिलती है। तदनुसार जयादित्य का देहावसान सं. ७१८ वि. के आस पास हुआ होगा। जयादित्य ने भारविकृत पद्यांश उद्धृत किया है। इस आनुमानिक तथ्य के आधार पर जयादित्य का सं. ६५० से ७०० वि. तक के मध्य अवस्थित होना माना जा सकता है। चीनी आदि विदेशी साहित्य में बहुत दिनों तक भारतीय साहित्य का अनुवाद होता रहा है। बहुत सा भारतीय साहित्य अनुवादरूप से विदेशी साहित्य में पाया गया है परंतु उसका मूल ग्रंथ भारत से लुप्त है। इस स्थिति में यदि विदेशी अनुवाद साहित्य की गंभीर गवेषणा की जाए तो जयादित्य के बारे में प्रामाणिक जानकारी मिल जायगी।

पाणिनि मुनि ने अष्टाध्यायी के आठ अध्यायों में व्याकरण सूत्रों को लिखा है। उसी मूल पर सैंकड़ों व्याकरण ग्रंथों का निर्माण हुआ है। अष्टाध्यायी को सभी संप्रदाय के लोगों ने समान रूप से अपनाया है। जयादित्य ने 'काशिका' नाम से अष्टाध्यायी पर व्याख्या की है। काशी में इसकी सृष्टि हुई होगी क्योंकि काशिका का प्रधान अर्थ यही है (काश्यां भव: काशिका)। कुशकाशावलंबन न्याय से हमको जयादित्य के बारे में सोचने का अवसर मिलता है। संभव है जयादित्य काशीवासी हों। काशी आज भी संस्कृत व्याकरण के पठन-पाठन और व्याकरण ग्रंथों की सृष्टि का प्रधान केंद्र है। जैन, बौद्ध सांस्कृतिक साम्राज्य में भी काशिका के पठन-पाठन की बड़ी धाक थी। आज भी काशिका का प्रभाव सजीव रूप से संस्कृत शिक्षा सत्रों में देखा जाता है।

राजतरंगिणी में जयापीड नामक राजा का नाम आया है, जो ६६७ शकाब्द में कश्मीर के सिंहासन पर बैठा था और जिसके एक मंत्री का नाम 'वामन' था। कुछ लोग इसी जयापीड को काशिका का कर्ता मानते हैं। पर मैक्समूलर का मत है कि काशिकार जयादित्य कश्मीर के जयापीड से पहले हुआ है, क्योकि चीनी यात्री इत्सिंग ने ६१२ शकाब्द में अपनी पुस्तक में जयादित्य के वृत्तिसूत्र का उल्लेख किया है। इस विषय में इतना समझ रखना चाहिए के कल्हण के दिए हुए संवत् बिलकुल ठीक नहीं हैं। काशिका के प्रकाशक बालशास्त्री का मत है कि काशिका का कर्ता बौद्ध था, क्योंकि उसने मंगलाचरण नहीं लिखा है और पाणिनि के सूत्रों में फेरफार किया।

बहुत से वैयाकरण प्राय: काशिका को संपूर्ण रूप से जयादित्य का बनाया हुआ नहीं मानते। पुरुषोत्तमदेव, हरिदत्त आदि विद्वानों ने भाषावृत्ति, पदमंजरी, अमरटीका सर्वस्व, अष्टांगहृदय (सर्वांग सुंदरी टीका) में इसका उल्लेख किया है। कुछ विद्वान् जयादित्य और वामन को काशिका का निर्माता मानते हैं।

काशिका के समान भर्त्रीश्वर, जयंत, मैत्रेयरक्षित, आदि की अष्टाध्ययायी व्याख्याएं थीं। उनमें से कम वृत्तियाँ पाई जाती हैं। काशिका के प्रभाव में नवीन प्राचीन सभी वृत्तियाँ विलीन हो गईं और व्यवहार रूप में आज भी काशिका ही रह गई है। काशिका पर जिनेंद्रवुद्धि कृत 'काशिका विवरण पंजिका' (न्यास) और हरदत्त मिश्र ने 'पदमंजरी' ग्रंथ लिखा है। जिनेंद्र कृत ग्रंथ 'न्यास' नाम से ही प्रसिद्ध है। यह बहुत विशालकाय कई भागोंवाला ग्रंथ है। न्यास ने सर्वथा काशिका के समर्थन में प्रयास किया है परंतु पदमंजरी में कैयट (महाभाष्य के टीकाकार) का अनुसरण है और अनावश्यक सामग्री को विडंबित किया गया है। काशिका की केवल अपनी विशेषता यही है कि-

  • १. आजकल प्राप्त होनेवाली वृत्तियों में अन्यतम प्राचीन है,
  • २. प्रत्येकसूत्र पर यथासंभव व्याख्या, उदाहरण, प्रत्युदाहरण, शंका समाधान प्रौढ़ है,
  • ३. सभी उदाहरण प्राचीन परंपरा के अनुकरण पर हैं,
  • ४. महाभाष्य विरोधी उदाहरणों की भी पुष्टि की गई है,
  • ५. प्राचीन एवं लुप्त व्याकरण ग्रंथों के गणपाठ भी दिए गए हैं,
  • ६. प्राचीनकाल में कैसी व्याख्या पद्धति थी इसका अर्थाभास काशिका से मिलता है। काशिका का तद्धित विषय रहस्यगर्भित है।

इन्हें भी देखें

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