मनस्ताप

सचीज़ोफ्रेनिया के बारे में मेरा विचार

मनस्ताप या मनोविक्षिप्ति या साइकोसिस (Psychosis) मन की एक अपसामान्य दशा है जिसमें मन यह तय नहीं कर पाता कि क्या वास्तविक है और क्या अवास्तविक (आभासी)। इसके कुछ लक्षण ये हो सकते हैं- असत्य विश्वास (फाल्स बिलीफ/ भ्रमासक्ति), तथा ऐसी ध्वनि सुनाई देना या ऐसी चीजें दिखाई देना जो सामान्य लोगों को नहीं सुनाई/दिखाई देतीं। अन्य लक्षण हैं- बातचीत (भाषण) में एकरूपता न होना, किसी परिस्थिति के अनुरूप जो व्यवहार होना चाहिए उससे अलग व्यवहार। इसके अलावा नींद न आने की समस्या, समाज से दूर रहने की प्रवृत्ति, अभिप्रेरण (मोटिवेशन) की कमी, अपने दैनिक क्रियाकलापों को करने में कठिनाई आना आदि अन्य लक्षण हैं।

मनोविक्षिप्ति और पागलपन दोनों शब्द असाधारण मनोदशा के बोधक है, परन्तु जहाँ पागलपन एक साधारण प्रयोग का शब्द है, जिसका कानूनी उपयोग भी किया जाता है, वहाँ मनोविक्षिप्ति चिकित्साशास्त्र का शब्द है जिसका चिकित्सा में विशेष अर्थ है। पागल व्यक्ति को प्राय: अपने शरीर एवं कामों की सुध-बुध नहीं रहती। उसकी हिफाजत दूसरे लोगों को करनी पड़ती है। अतएव यदि वह कोई अपराध का काम कर डाले, तो उसे दंड का भागी नहीं माना जाता। इससे मिलता-जुलता, परंतु इससे पृथक, अर्थ मनोविक्षिप्ति का है। मनोविक्षिप्त व्यक्ति में साधारण असामान्यता से लेकर बिल्कुल पागलपन जैसे व्यवहार देखे जाते हैं। कुछ मनोविक्षिप्त व्यक्ति थोड़ी ही चिकित्सा से अच्छे हो जाते हैं। ये समाज में रहते हैं और समाज का कोई भी अहित नहीं करते। उनमें अपराध की प्रवृत्ति नहीं रहती। इसके विपरीत, कुछ मनोविक्षिप्त व्यक्तियों में प्रबल अपराध की प्रवृत्ति रहती है। वे अपने भीतरी मन में बदले की भावना रखते हैं, जिसे विक्षिप्त व्यवहारों में प्रकट करते हैं। कुछ ऐसे विक्षिप्त भी होते हैं जिनसे अच्छे और बुरे व्यवहार में अंतर समझने की क्षमता ही नहीं रहती। वे हँसते-हँसते किसी व्यक्ति का गला घोट दे सकते हैं, पर उन्हें ऐसा नहीं जान पड़ता कि उन्होंने कोई जघन्य अपराध का डाला है। इस तरह मनोविक्षिप्ति में पागलपन का समावेश होता है, परंतु सभी मनोविक्षिप्त व्यक्तियों को पागल नहीं कहा जा सकता है।

मनोविक्षिप्ति के प्रकार

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मानसिक चिकित्सकों ने मनोविक्षिप्ति के प्रधानत: दो प्रकार माने हैं : एक शरीरजन्य और दूसरा मनोजन्य। इन्हें जैव (organic) और क्रियात्मक (functional) मनौविक्षिप्ति कहा जाता है।

शरीरजन्य मनोविक्षिप्त

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यह विक्षिप्ति पैतृक परंपरा से प्राप्त होती है। कितने ही कुटुंबों में पीढ़ी दर पीढ़ी इसे देखा जाता है। कभी कभी पिता की और कभी माता की पूर्व पीढ़ियों में इसे पाया जाता है। कभी कभी तुरंत के पहले की पीढ़ी में मनोविक्षिप्ति नहीं रहती, परंतु किसी सुदूर पूर्वज में यह पाई जाती है। किसी विशेष प्रकार के रोग के कारण जीन (gene) की विशिष्ट प्रकार की क्षति हो जाती है और जब यही जीन फिर से नए शरीर के निर्माण का कारण होता है, तब उसकी क्षति इस नए प्राणी में व्यक्त होती है। जिस प्रकार क्षय रोग और उपदंश (गर्मी) वंशपरंपरागत चलते रहते हैं, उसी प्रकार शरीर-जन्य मनोविक्षिप्ति वंशपरंपरागत चलती रहती है। इस प्रकार के रोग की चिकित्सा के लिये अनेक वैज्ञानिक खोंजें हो रही हैं, परंतु उनमें पर्याप्त सफलता अभी तक नहीं मिली है।

मनोजन्य मनोविक्षिप्ति

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दूसरे प्रकार की मनोविक्षिप्ति मनोविकारजन्य है। यह विक्षिप्ति प्रबल मानसिक संघर्ष से उत्पन्न होती है। इस प्रकार के रोगी के पूर्वजों में मनोविक्षिप्ति का पाया जाना अनिवार्य नहीं है। इसे हम मनौवैज्ञानिक मनोविक्षिप्ति कह सकते हैं।

मनोवैज्ञानिक मनोविक्षिप्ति की उत्पत्ति

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मनोवैज्ञानिक मनोविक्षिप्ति का कारण मनुष्य के अपने ही जीवन में रहता है। कुछ लोगों में जन्म से ही स्नायु की दुर्बलता होती है। यह दुर्बलता पैतृक परंपरा से नहीं आती, वरन् बालक के गर्भ में आने के बाद आती है। फिर व्यक्ति के बचपन के संस्कार उसके विकास के अनुकूल नहीं होते, उसे अनेक प्रकार की अप्रिय भावात्मक अनुभूतियाँ होती हैं। व्यक्ति के जीवन को पुष्ट करनेवाली वस्तु बचपन का प्रेम और प्रोत्साहन होता है। इसके अभाव में व्यक्ति का व्यक्तित्व सुगठित और दृढ़ नहीं हो पाता, अतएव जब प्रौढ़ जीवन में उसे भावात्मक घटनाओं का सामना करना पड़ता है, तब वह आत्मविश्वास खो देता है।

कभी-कभी बचपन में अधिक लाड़ प्यार मिलने पर मनुष्य में असाधारण व्यवहार उत्पन्न हो जाता है। अधिक लाड़ प्यार की अवस्था में मनुष्य आत्मनियंत्रण की शक्ति उसी प्रकार प्राप्त नहीं कर पाता जिस प्रकार वह अधिक ताड़ना की स्थिति में दुर्बल मन का बना रहता है। जब ऐसे व्यक्ति को क्रूर वातावरण का सामना करना पड़ता है, तब उसमें मनोविक्षिप्ति की अवस्था उत्पन्न हो जाती है।

मनोविक्षिप्ति और सनक में बहुत कुछ समानता है, परंतु दोनों में भेद भी है। जहाँ तक उनके कारण की बात है, दोनों के कारण एक से होते हैं, परंतु दोनों में व्यवहार की असाधारणतया तथा समझ भिन्न भिन्न मात्रा में होती हैं। सनकी मनुष्य के विशेष व्यवहार ही असाधारण होते हैं।

विक्षिप्त व्यक्ति के प्राय: सभी व्यवहार असाधारण होते हैं। वह कभी कभी ही सामान्य स्थिति में आता है, पर सनकी मनुष्य समाज में अपना जीवन ठीक से चलाता रहता है। समाज के दूसरे लोग उसे भले ही झक्की, सनकी कहें पर वह अपना काम अधिकतर ठीक से कर लेता है। सनकी, अथवा उन्मादग्रस्त, व्यक्ति थोड़े समय ही असाधारण रहता है, किंतु विक्षिप्ति सब समय असाधारण रहता है। सनकी मनुष्य को असाधारणतया का ज्ञान कभी कभी हो जाता है। वह अपने आपको इससे मुक्त करने की चेष्टा भी करता है और निरंतर प्रयत्न करने से वह अपनी असाधारणता से मुक्त भी हो जाता है। विक्षिप्त व्यक्ति में यह क्षमता नहीं रहती। जीवन में वह अपने आपको सँभाल भी नहीं सकता। दूसरों को उसकी देखभाल करनी पड़ती है।

मनोविक्षिप्ति के कुछ रूप

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मनोविक्षिप्ति का प्राथमिक वर्गीकरण शारीरिक और मनोवैज्ञानिक रूप में पहले किया गया है, परंतु इनका वर्गीकरण दूसरे प्रकार से भी किया जाता है।

संविभ्रमवत् या पैरानायड

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कुछ मनोविक्षिप्ति अपने आपको बहुत बड़ा व्यक्ति मानने लगते हैं। उन्हें कभी विचार आता है कि वे किसी देवी देवता की कृपा से कुछ ऐसी अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त कर चुके हैं, जिससे वे जो भी इच्छा करें वही पूर्ण हो जाएगी। यौगिक साधना करते हुए जो व्यक्ति विक्षिप्त हो जाते हैं, वे इसी श्रेणी में आते हैं। इस प्रकार के मनोविक्षिप्त अहंकारी विक्षिप्त या संविभ्रमवत् या पैरानायड (paranoid) कहे जाते हैं। इनका अहंकार बहुत बढ़ा चढ़ा रहता है, परंतु यह उनके सुख का कारण न बन दु:ख का कारण बन जाता है। उसके मन में यह विचार आता है कि समाज के दूसरे लोग उनके विरुद्ध सदैव षड्यंत्र करते रहते हैं। इसी के कारण वे अपनी महानता के लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर पाते। अतएव वे अपने आस पास के लोगों को शत्रु के रूप में देखने लगते हैं। ऐसे लोग सोचते हैं कि उनके आस पास किसी दुश्मन के गुप्तचर लगे हुए हैं, जो उनको गिराने में प्रयत्नशील हैं। वे कभी कभी दूसरे लोगों पर घातक प्रहार भी कर देते हैं। डादृ फ्रायड के अनुसार इन लोगों में बचपन से कामविकृति रहती है, जो घर के स्नेहहीन वातावरण और समलिंगी प्रेम की वृद्धि तथा उसके बाद के दमन के कारण उत्पन्न होती है। संविभ्रमवत् रोगी में उचित आत्महीनता की भावना रहती है।

विषाद विक्षिप्ति

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संविभ्रम (paranoia) से भिन्न मनोविक्षिप्ति और बहुत कुछ इसके विपरीत विषाद विक्षिप्ति (melancholia) कही जाती है। विषादविक्षिप्ति का रोगी अपने आपको सदा दयनीय अवस्था में सोचता है। वह अपने चारों ओर दु:ख ही दु:ख का वातावरण पाता है। वह अपने जीवन को ही व्यर्थ समझता है। वह मानव मात्र को दयनीय जीवन में देखता है1 उसके विचार में संसार का प्रलय बहुत जल्दी होनेवाला है और प्रलय हो जाने में ही उसका भला है। वह अपने सभी संबंधियों और परिवारों का निकट भविष्य में निश्चित विनाश देखता है। जहाँ संविभ्रम का रोगी बातूनी और डींग मारनेवाला होता है, वहाँ विषादविक्षिप्ति का रोगी किसी से बोलना ही नहीं चाहता। उसे किसी से मिलने जुलने, खेलकूद में भाग लेने, किसी सुदंर दृश्य को देखने की इच्छा ही नहीं होती। उसे सारा संसार रसहीन दिखाई देता है। वह नहाने धोने, तथा हजामत बनाने को व्यर्थ समझता है। यहाँ तक कि बिना दूसरे के आग्रह किए, वह भोजन तक नहीं करता। कभी कभी वह उपवास का इतना आग्रह करता है कि उसके मुँह में नली डालकर जबरदस्ती दूध पिलाया जाता है, ताकि वह मर न जाय।

उल्लास-विषाद-मनोविक्षिप्ति

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तीसरे प्रकार के मनोविक्षिप्त उल्लास-विषाद-मनोविक्षिप्ति हैं। वे बारी-बारी से उल्लास और विषाद की मनोदशा में रहते हैं। उल्लास की अवस्था में वे अत्यधिक चंचल हो उठते हैं, इधर उधर खूब दौड़ते हैं, अनेक लोगों से बात करते हैं, विभिन्न कामों में हाथ डालते हैं और खूब हँसते रहते हैं। इसके प्रतिकूल आचरण विषाद की अवस्था में होता है। इन विक्षिप्तों की मनोदशा इतनी असाधारण नहीं होती कि उनकी चिकित्सा ही न हो सके। मानसिक रोगों में मनोदशाओं का बदलते रहना, चाहे मनोदशा कितनी ही असाधारण क्यों न हो, रोगी के लिये कल्याणसूचक है।

मनोविदालिता

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उपर्युक्त तीन प्रकार की मनोदशाओं से भिन्न जटिल मनोविक्षिप्ति है, जिसे मनोविदालिता (Schizophrenia) कहा जाता है। इस मनोदशा में मनुष्य को अपने व्यक्तित्व का कुछ ज्ञान ही नहीं रह जाता। उसके जीवन में न तो उल्लास का प्रश्न रहता है, न विषाद का। अतएव इस मनोदशा को दूसरा बचपन कहा जा सकता है। इस मनोदशा में आने पर रोगी में अपने आपको सँभालने की कोई शक्ति नहीं रहती। वह मलमूत्र के नित्य कार्य भी नहीं कर पाता। बिछावन पर ही वह मलमूत्र कर देता है। उसके हँसने और रोने में कोई विचार ही नहीं रहता। वह किस समय क्या कर डालेगा, इसके विषय में कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता। दो चार मिनट तर्कयुक्त बातें करते हुए वह कोई ऐसी बात कह सकता है जो बिल्कुल अनर्गल हो। वह हँसते हँसते अपने सामने खड़े बालक का गला घोट सकता है।

मनोविक्षिप्ति का उपचार

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मनोविक्षिप्ति अशांत मानसिक रोगों में गिनी गई है। अतएव जब उपर्युक्त किसी प्रकार की मनोविक्षिप्ति से कोई ग्रस्त हो जाय, तब उसे मानसिक चिकित्सालयों में रखना आवश्यक होता है। चिकित्सालय से बाहर रहने पर मनोविक्षिप्ति दूसरों को नुकसान पहुँचा सकते हैं। अतएव सामान्य जनता से उन्हें अलग रखना आवश्यक होता है। चिकित्सालयों में इनका उपचार प्राय: नींद लानेवाली दवाइयों, अथवा बेहोशी लानेवाले इंजेक्शनों, के द्वारा किया जाता है। इधर 30-40 वर्षों से बिजली के झटकों द्वारा इनका उपचार किया जाने लगा है। इन सभी प्रकार के उपचारों से कुछ विक्षिप्तियों को लाभ होता है, परंतु अभी तक मनोविक्षिप्ति की कोई अचूक उपचारविधि खोजी नहीं जा सकी है। डा फ्रायड के कथनानुसार मनोविक्षिप्ति का मनोवैज्ञानिक उपचार होना संभव ही नहीं है। दूसरे मनोवैज्ञानिकों के अनुसार सभी प्रकार की दूसरी मानसिक चिकित्साएँ सफल होने पर भी, बिना मनोवैज्ञानिक उपचार हुए रोगी को स्थायी लाभ नहीं होता। अतएव निद्रा उत्पादक और अचेतनता लानेवाली ओषधियाँ तथा बिजली के झटके मनोविक्षिप्ति में स्थायी लाभ नहीं पहुँचाते। इनके होने पर भी मनोवैज्ञानिक उपचार की आवश्यकता होती है। मनोवैज्ञानिक उपचार का ध्येय उचित कुप्रभावों का रेचन एवं मानसिक एकीकरण की स्थापना होता है। कुलमिलाकर समस्या बहुत गंभीर होती है, आपके आस पास कोई ऐसा दिखे तो तुरंत साइकोलॉजिस्ट को दिखावे

इन्हें भी देखें :-

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मानसिक बीमार

बाहरी कड़ियाँ

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