भारतीय स्वतंत्रता का क्रांतिकारी आन्दोलन
भारत की स्वतंत्रता के लिये अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलन दो प्रकार का था, एक अहिंसक आन्दोलन एवं दूसरा सशस्त्र क्रान्तिकारी आन्दोलन। भारत की आज़ादी के लिए 1857 से 1947 के बीच जितने भी प्रयत्न हुए, उनमें स्वतंत्रता का सपना संजोये क्रान्तिकारियों और शहीदों की उपस्थित सबसे अधिक प्रेरणादायी सिद्ध हुई। वस्तुतः भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग है। भारत की धरती के जितनी भक्ति और मातृ-भावना उस युग में थी, उतनी कभी नहीं रही। मातृभूमि की सेवा और उसके लिए मर-मिटने की जो भावना उस समय थी, आज उसका नितान्त अभाव हो गया है।
क्रांतिकारी आंदोलन का समय सामान्यतः लोगों ने सन् 1857 से 1942 तक माना है। श्रीकृष्ण सरल का मत है कि इसका समय सन् 1757 अर्थात् प्लासी के युद्ध से सन् 1961 अर्थात् गोवा मुक्ति तक मानना चाहिए। सन् 1961 में गोवा मुक्ति के साथ ही भारतवर्ष पूर्ण रूप से स्वाधीन हो सका है।
जिस प्रकार एक विशाल नदी अपने उद्गम स्थान से निकलकर अपने गंतव्य अर्थात् सागर मिलन तक अबाध रूप से बहती जाती है और बीच-बीच में उसमें अन्य छोटी-छोटी धाराएँ भी मिलती रहती हैं, उसी प्रकार भारत की मुक्ति गंगा का प्रवाह भी सन् 1757 से सन् 1961 तक अजस्र रहा है और उसमें मुक्ति यत्न की अन्य धाराएँ भी मिलती रही हैं। भारतीय स्वतंत्रता के सशस्त्र संग्राम की विशेषता यह रही है कि क्रांतिकारियों के मुक्ति प्रयास कभी शिथिल नहीं हुए।
भारत की स्वतंत्रता के बाद आधुनिक नेताओं ने भारत के सशस्त्र क्रान्तिकारी आन्दोलन को प्रायः दबाते हुए उसे इतिहास में कम महत्व दिया गया और कई स्थानों पर उसे विकृत भी किया गया। स्वराज्य उपरान्त यह सिद्ध करने की चेष्टा की गई कि हमें स्वतंत्रता केवल कांग्रेस के अहिंसात्मक आंदोलन के माध्यम से मिली है। इस नये विकृत इतिहास में स्वाधीनता के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले, सर्वस्व समर्पित करने वाले असंख्य क्रांतिकारियों, अमर हुतात्माओं की पूर्ण रूप से उपेक्षा की गई।
भूमिका
भारत को मुक्त कराने के लिए सशस्त्र विद्रोह की एक अखण्ड परम्परा रही है। भारत में अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना के साथ ही सशस्त्र विद्रोह का आरम्भ हो गया था। बंगाल में सैनिक-विद्रोह, चुआड़ विद्रोह, सन्यासी विद्रोह, भूमिज विद्रोह, संथाल विद्रोह अनेक सशस्त्र विद्रोहों की परिणति सत्तावन के विद्रोह के रूप में हुई। प्रथम स्वातन्त्र्य–संघर्ष के असफल हो जाने पर भी विद्रोह की अग्नि ठण्डी नहीं हुई। शीघ्र ही दस-पन्द्रह वर्षों के बाद पंजाब में कूका विद्रोह व महाराष्ट्र में वासुदेव बलवन्त फड़के के छापामार युद्ध शुरू हो गए। संयुक्त प्रान्त में पं॰ गेंदालाल दीक्षित ने शिवाजी समिति और मातृदेवी नामक संस्था की स्थापना की। बंगाल में क्रान्ति की अग्नि सतत जलती रही। सरदार अजीत सिंह ने सत्तावन के स्वतंत्रता–आन्दोलन की पुनरावृत्ति के प्रयत्न शुरू कर दिए। रासबिहारी बोस और शचीन्द्रनाथ सान्याल ने बंगाल, बिहार, दिल्ली, राजपुताना, संयुक्त प्रान्त व पंजाब से लेकर पेशावर तक की सभी छावनियों में प्रवेश कर 1915 में पुनः विद्रोह की सारी तैयारी कर ली थी। दुर्दैव से यह प्रयत्न भी असफल हो गया। इसके भी नए-नए क्रान्तिकारी उभरते रहे। राजा महेन्द्र प्रताप और उनके साथियों ने तो अफगान प्रदेश में अस्थायी व समान्तर सरकार स्थापित कर ली। सैन्य संगठन कर ब्रिटिश भारत से युद्ध भी किया। रासबिहारी बोस ने जापान में आज़ाद हिन्द फौज के लिए अनुकूल भूमिका बनाई।
मलाया व सिंगापुर में आज़ाद हिन्द फौज संगठित हुई। सुभाष चन्द्र बोस ने इसी कार्य को आगे बढ़ाया। उन्होंने भारतभूमि पर अपना झण्डा गाड़ा। आज़ाद हिन्द फौज का भारत में भव्य स्वागत हुआ, उसने भारत की ब्रिटिश फौज की आँखें खोल दीं। भारतीयों का नाविक विद्रोह तो ब्रिटिश शासन पर अन्तिम प्रहार था। अंग्रेज़, मुट्ठी-भर गोरे सैनिकों के बल पर नहीं, बल्कि भारतीयों की फौज के बल पर शासन कर रहे थे। आरम्भिक सशस्त्र विद्रोह में क्रान्तिकारियों को भारतीय जनता की सहानुभूति प्राप्त नहीं थी। वे अपने संगठन व कार्यक्रम गुप्त रखते थे। अंग्रेज़ी शासन द्वारा शोषित जनता में उनका प्रचार नहीं था। अंग्रेजों के क्रूर व अत्याचारपूर्ण अमानवीय व्यवहारों से ही उन्हें इनके विषय में जानकारी मिली। विशेषतः काकोरी काण्ड के अभियुक्त तथा भगतसिंह और उसके साथियों ने जनता का प्रेम व सहानुभूति अर्जित की। भगतसिंह ने अपना बलिदान क्रांति के उद्देश्य के प्रचार के लिए ही किया था। जनता में जागृति लाने का कार्य महात्मा गांधी के चुम्बकीय व्यक्तित्व ने किया। बंगाल की सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी श्रीमती कमला दासगुप्त ने कहा कि क्रांतिकारी की निधि थी "कम व्यक्ति अधिकतम बलिदान", महात्मा गांधी की निधि थी "अधिकतम व्यक्ति न्यूनतम बलिदान"। सन् 42 के बाद उन्होंने अधिकतम व्यक्ति तथा अधिकतम बलिदान का मंत्र दिया। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में क्रांतिकारियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
भारतीय क्रांतिकारियों के कार्य सिरफिरे युवकों के अनियोजित कार्य नहीं थे। भारतामाता के परों में बंधी शृंखला तोड़ने के लिए सतत संघर्ष करने वाले देशभक्तों की एक अखण्ड परम्परा थी। देश की रक्षा के लिए कर्तव्य समझकर उन्होंने शस्त्र उठाए थे। क्रान्तिकारियों का उद्देश्य अंग्रेजों का रक्त बहाना नहीं था। वे तो अपने देश का सम्मान लौटाना चाहते थे। अनेक क्रान्तिकारियों के हृदय में क्रांति की ज्वाला थी, तो दूसरी ओर अध्यात्म का आकर्षण भी। हंसते हुए फाँसी के फंदे का चुम्बन करने वाले व मातृभूमि के लिए सरफरोशी की तमन्ना रखने वाले ये देशभक्त युवक भावुक ही नहीं, विचारवान भी थे। शोषणरहित समाजवादी प्रजातंत्र चाहते थे। उन्होंने देश के संविधान की रचना भी की थी। सम्भवतः देश को स्वतंत्रता यदि सशस्त्र क्रांति के द्वारा मिली होती तो भारत का विभाजन नहीं हुआ होता, क्योंकि सत्ता उन हाथों में न आई होती, जिनके कारण देश में अनेक भीषण समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं।
जिन शहीदों के प्रयत्नों व त्याग से हमें स्वतंत्रता मिली, उन्हें उचित सम्मान नहीं मिला। अनेकों को स्वतंत्रता के बाद भी गुमनामी का अपमानजनक जीवन जीना पड़ा। ये शब्द उन्हीं पर लागू होते हैं:
- उनकी तुरबत पर नहीं है एक भी दीया,
- जिनके खूँ से जलते हैं ये चिरागे वतन।
- जगमगा रहे हैं मकबरे उनके,
- बेचा करते थे जो शहीदों के कफन।।
नाविक विद्रोह के सैनिकों को स्वतंत्र भारत की सेना में महत्वपूर्ण कार्य देना न्यायोचित होता, परन्तु नौकरशाहों ने उन्हें सेना में रखना शासकीय नियमों का उल्लंघन समझा। अनेक क्रांतिकारियों की अस्थियाँ विदेशों में हैं। अनेक क्रांतिकारियों के घर भग्नावशेष हैं। उनके घरों के स्थान पर आलीशान होटल बन गए हैं। क्रांतिकारियों की बची हुई पीढ़ी भी समाप्त हो गई है। निराशा में आशा की किरण यही है कि सामान्य जनता में उनके प्रति सम्मान की थोड़ी-बहुत भावना अभी भी शेष है। उस आगामी पीढ़ी तक इनकी गाथाएँ पहुँचाना हमारा दायित्व है। क्रान्तिकारियों पर लिखने के कुछ प्रयत्न हुए हैं। शचीन्द्रनाथ सान्याल, शिव वर्मा, मन्मथनाथ गुप्त व रामकृष्ण खत्री आदि ने पुस्तकें लिखकर हमें जानकारी देने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इतर लेखकों ने भी इस दिशा में कार्य किया है।
परिचय
भारतीय स्वतंत्रता के लिये आरम्भ से ही समय-समय पर भारत के विभिन्न भागों में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र विप्लव होते रहे।
1757 से अंग्रेजी राज द्वारा जारी लूट तथा भारतीय किसानों, मजदूरों, कारीगरों की बर्बादी, धार्मिक, सामाजिक भेदभाव ने जिस गति से जोर पकड़ा उसी गति से देश के विभिन्न हिस्सो में विद्रोंह की चिंगारियाँ भी फूटने लगीं, जो 1857 में जंग-ए-आजादी के महासंग्राम के रूप में फूट पड़ी। 1757 के बाद शुरू हुआ संन्यासी विद्रोह (1763-1800), मिदनापुर चुआड़ विद्रोह (1766-1767), रगंपुर व जोरहट विद्रोह (1769-1799), रेशम कारिगर विद्रोह (1770-1800), चिटगाँव का चकमा आदिवासी विद्रोह (1776-1789), पहाड़िया सिरदार विद्रोह (1778), रंगपुर किसान विद्रोह (1783), केरल में कोट्टायम विद्रोह (1787-1800), सिलहट विद्रोह (1787-1799), वीरभूमि विद्रोह (1788-1789), खासी विद्रोह (1788), भिवानी विद्रोह (1789), विजयानगरम विद्रोह (1794), कारीगरों का विद्रोह (1795-1805), मिदनापुर आदिवासी चुआड़ विद्रोह (1799), पलामू विद्रोह (1800-02), वैल्लोर सिपाही विद्रोह (1806), त्रावणकोर का बेलूथम्बी विद्रोह (1808-1809), बुंदेलखण्ड में मुखियाओं का विद्रोह (1808-12), गुजरात का भील विद्रोह (1809-28), कटक पुरी विद्रोह (1817-18), खानदेश, धार व मालवा भील विद्रोह (1817-31,1846 व 1852), छोटा नागपुर, पलामू चाईबासा कोल विद्रोह (1820-37), बंगाल आर्मी बैरकपुर में पलाटून विद्रोह (1824), गूजर विद्रोह (1824), भिवानी हिसार व रोहतक विद्रोह (1824-26), काल्पी विद्रोह (1824), वहाबी आंदोलन (1830-61), 24 परगंना में तीतू मीर आंदोलन (1831), मैसूर में किसान विद्रोह (1830-31), विशाखापट्टनम का किसान विद्रोह (1830-33), कोल विद्रोह (1831-32), भूमिज विद्रोह (1832-33), संबलपुर का गौंड विद्रोह (1833), मुंडा विद्रोह (1834), सूरत का नमक आंदोलन (1844), नागपुर विद्रोह (1848), नगा आंदोलन (1849-78), हजारा में सय्यद का विद्रोह (1853), संथाल विद्रोह (1855-56), तक सिलसिला जारी रहा। जिसके बीच में हैदर अली, टीपू सुल्तान व नाना फर्णनविस के भारत की आजादी के लिये संगठित प्रतिरोध ने अंग्रेजों के लिये भारी मुश्किले पैदा कर दीं।
प्लासी का युद्ध (सन् 1757)
प्लासी का युद्ध अंग्रेजों और बंगाल के शासक सिराजुद्दौला के बीच सन् 1757 में लड़ा गया था। यह युद्ध केवल आठ घण्टे चला और कुल तेईस सैनिक मारे गए। युद्ध में सिराजुद्दौला की ओर से मीर जाफर ने गद्दारी की और रॉबर्ट क्लाइव ने उसका भरपूर लाभ उठाया। प्लासी-विजय के पश्चात् भारतवर्ष में ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से अंग्रेजी साम्राज्य की नींव पड़ गई।[1]
चुआड़ विद्रोह (सन् 1766)
बंगाल के जंगल महल (अब कुछ भाग पश्चिम बंगाल एवं झारखंड में) के भूमिज आदिवासियों ने जगन्नाथ सिंह के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जंगल, जमीन के बचाव तथा नाना प्रकार के शोषण से मुक्ति के लिए 1766 में जो आन्दोलन आरम्भ किया उसे चुआड़ विद्रोह कहते हैं। यह आन्दोलन 1833 तक चला।[2] इस विद्रोह को भूमिज विद्रोह भी कहा जाता है।
संन्यासी एवं फकीर विद्रोह (सन् 1763 से 1773 तक)
बंगाल में संन्यासियों और फकीरों के अलग-अलग संगठन थे। पहले तो इन दोनों संगठनों ने मिलकर अंग्रेजों के साथ संघर्ष किया; लेकिन बाद में उन्होंने पृथक्-पृथक् रूप से विरोध किया। संन्यासियों में उल्लेखनीय नाम हैं—मोहन गिरि और भवानी पाठक तथा फकीरों के नेता के रूप में मजनूशाह का नाम प्रसिद्ध है। ये लोग पचास-पचास हजार सैनिकों के साथ अंग्रेजी सेना पर आक्रमण करते थे। अंग्रेजों की कई कोठियाँ इन लोगों ने छीन लीं और कई अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतार दिया। अंततोगत्वा संन्यासी विद्रोह और फकीर विद्रोह—दोनों ही दबा दिए गए।[3]
बंगाल का द्वितीय सैनिक विद्रोह (सन् 1795)
बंगाल की पंद्रहवीं बटालियन को आदेश मिला कि वह ‘हमलक’ के स्थान पर पहुँच जाए। बटालियन वहाँ पहुँच गई। वहाँ पर उस बटालियन को बताया गया कि उसे जहाज पर चढ़कर यूरोप जाना है। यूरोप में इस बटालियन को डच लोगों के साथ युद्ध करना था। भारतीय सैनकों ने जहाज पर चढ़ने से इनकार कर दिया। उनमें से कुछ को गोलियों से भून दिया गया और कुछ को तोपों के मुँह से बाँधकर उड़ा दिया गया।
चुआड़ विद्रोह (सन् 1798 से 1831 तक)
बंगाल की भूमिज जनजाति को चुआड़ कहा जाता था। चुआड़ विद्रोह इसी जनजाति का विद्रोह था। यह जनजाति जंगल महल जिले के भिन्न-भिन्न परगनों में रहती थी। कई स्थानों पर चुआड़ वीरों ने अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंका। बाद में संगठित होकर अंग्रेजी सेना ने बड़ी निर्ममता से इस विद्रोह का दमन कर दिया। 1798 में ‘दुर्जन सिंह’ ने विद्रोह किया। ‘रानी शिरोमणि’ नाम की एक महिला विद्रोही ने भी अच्छी वीरता का प्रदर्शन किया। बाद में वह बंदी बना ली गई।[4] यह 1766 की चुआड़ विद्रोह से सम्बन्धित है जो 1833 तक चला, इस विद्रोह को भूमिज विद्रोह भी कहा जाता है।
वेल्लौर का सैनिक विद्रोह (सन् 1803)
वेल्लौर स्थित मद्रासी सेना ने भी अंग्रेजों के विरुद्र विद्रोह कर दिया। वह विद्रोह नंदी दुर्ग, सँकरी दुर्ग आदि स्थानों तक फैल गया। इसी विद्रोह के फलस्वरूप लॉर्ड विलियम वेंटिक को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा।[5]
वेलू थाम्पी का संघर्ष (1808-9)
साम्राज्यवाद के विरुद्ध थाम्पी के संघर्ष को 'पहला राष्ट्रीय संघर्ष' कहा जाता है। वेलू थाम्पी त्रावणकोर राज्य का एक मंत्री था। शुरू में त्रावणकोर राज्य की ईस्ट इण्डिया कम्पनी से मैत्री थी और इस राज्य ने टीपू सुल्तान के विरुद्ध कम्पनी का साथ दिया। वेलू थाम्पी का मानना था कि यदि कम्पनी को बिना रोक-टोक करने दिया गया तो एक दिन त्रावणकोर के व्यापार पर इसका एकाधिकार हो जायेगा। फिर जैसा कम्पनी चाहेगी वैसा करेगी। वेलू ने एक घोषणा की “जो कुछ वह करने की कोशिश कर रहे हैं यदि उसका प्रतिरोध इस समय नहीं किया गया तो हमारी जनता को कष्टों का सामना करना पड़ेगा जिन्हें मनुष्य सहन नहीं कर सकते हैं।” इस घोषणा का जनता पर बहुत गहरा असर पड़ा और हजारों हथियारबंद लोग उसके साथ आ गये। इस संघर्ष में त्रावणकोर के शासक और कोचीन राज्य के मंत्री पालियाथ आचन ने भी वेलू का साथ दिया। परन्तु बाद में आचन ने धोका दे दिया। उत्तरी मालाबार में पज्हासी (Pazhassi) ने कम्पनी के विरुद्ध विद्रोह छेड़ दिया। थम्पी, आचन और पज्हासी के संघर्ष सामन्ती वर्ग के नेतृत्व में चलने वाले संघर्ष थे।
भील विद्रोह (1817)
1817 ई. में पश्चिमी तट के खानदेश (अब गुजरात) में रहने वाली भील जनजाति ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया। 1825 में भीलों ने सेवाराम के नेतृत्व में पुनः विद्रोह किया। अंग्रेजों के अनुसार इस विद्रोह को पेशवा बाजीराव द्वितीय तथा उसके प्रतिनिधि त्यम्बकजी दांगलिया ने बढ़ावा दिया था।[6]
नायक विद्रोह (सन् 1821)
इसी समय बगड़ी राज्य की नायक जाति ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध का बिगुल बजा दिया। अचल सिंह इस जाति का नेता था। गनगनी नामक स्थान पर अचल सिंह और अंग्रेज अफसर ओकेली की सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। दोनों ओर से बहुत जनहानि हुई। एक गद्दार के छल से अचल सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया।
बैरकपुर का प्रथम सैनिक विद्रोह (सन् 1824)
यह नायक विद्रोह और बहावी विद्रोह के बीच की कड़ी है। बंगाल रेजीमेंट को आदेश मिला कि वह बैलों की पीठ पर बैठकर हुगली नदी पार करें। रेजीमेंट ने यह आदेश मानने से इनकार कर दिया। सारे सैनिकों को निहत्था करके भून डाला गया।
कोल विद्रोह (सन् 1831-33)
यह विद्रोह कोल जनजाति द्वारा अंग्रेजी सरकार के अत्याचार के खिलाफ 1831 ईसवी में किया गया एक विद्रोह है, जो 1833 तक चला। मुंडा, उरांव, भूमिज और हो आदिवासियों को अंग्रेजों द्वारा कोल कहा जाता था। यह विद्रोह बाहरी हिन्दू, मुस्लिम, सिख और अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ा गया था। इस विद्रोह की शुरुआत मुंडा-मानकी द्वारा किया गया था।
भूमिज विद्रोह (सन् 1832 से 1834 तक)
जंगल महल के भूमिजों ने एक बार फिर गंगा नारायण सिंह के नेतृत्व में संगठित होकर ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह किया। जिससे भयभीत होकर अंग्रेज अफसर भाग खड़े हुए। चाईबासा के चैतन सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजों ने धोखे से गंगा नारायण को मारा।[7] 1766 से 1833 तक भूमिजों द्वारा चले सम्पूर्ण विद्रोह को चुआड़ विद्रोह या भूमिज विद्रोह कहा जाता है।
गुजरात का महीकांत विद्रोह (सन् 1836)
वैसे तो पूरे गुजरात में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की हवा चल रही थी; पर महीकांत में यह विद्रोह भड़ककर तीव्र हो गया। इस विद्रोह का दृढ़ता के साथ दमन कर दिया गया।[8]
धर राव विद्रोह (सन् 1841)
इस विद्रोह का सूत्रपात सतारा के महाराज छत्रपति प्रतापसिंह को राज्यच्युत करने के साथ हुआ। इस विद्रोह का संगठन धर राव पँवार ने किया। बदामी दुर्ग पर अधिकार कर लिया गया। अंग्रेजी सेना ने प्रत्याक्रमण करके दुर्ग को वापस ले लिया और विद्रोहियों को कड़े दंड दिए।
कोल्हापुर विद्रोह (सन् 1844)
अंग्रेजों ने दाजी कृष्ण पंडित नाम के एक नए कर्मचारी की राज्य में नियुक्ति करके उसके द्वारा दोनों राजकुमारों को कैद करने का षड़्यंत्र रचा। प्रजा सजग हो गई और अंग्रेज अफसरों को ही कैद किया जाने लगा। कई किले अंग्रेजों से छीन लिए गए। अंग्रेजी खजाने लूट लिये गए। अंग्रेज रक्षक मार डाले गए। कर्नल ओवांस को कैद कर लिया गया। बड़ी मुश्किल से संगठित होकर अंग्रेजों ने विद्रोह का दमन किया।[9]
संथाल विद्रोह (सन् 1855 से 1856 तक)
संथाल जाति बंगाल और बिहार में फैली हुई थी। ब्रिटिश शासन व्यवस्था और कर प्रणाली ने संथालों के जीवन को तहस नहस कर दिया। हर वस्तु पर कर लगे थे, यहां तक कि जंगली उत्पादों पर भी। करों की वसूली बाहर के लोग करते थे, जिन्हें दिकू कहा जाता था। उनके द्वारा पुलिस प्रशासन के सहयोग से संथालों का शोषण किया जाता था। महिलाओं का बड़े पैमाने पर यौन शोषण भी किया गया था।
भागलपुर-वर्दवान रेल मार्ग के निर्माण में उन्हें जबरन बेगार करवाया गया। इसी समय पुलिस प्रशासन ने कुछ संथालों को चोरी के इल्ज़ाम में पकड़ लिया। इस घटना ने गुस्से को और भड़का दिया, और 30 जून 1855 को भागिनीडीह गाँव में 400 ग्रामों के हज़ारों संथाल जमा हुए और विद्रोह का बिगुल फूंक दिया गया। विद्रोह के उद्द्येश्य थे: दिकुओं का निष्कासन। विदेशी शोषक राज्य समाप्त कर धार्मिक राज्य की स्थापना। सिधो, कान्हो इस विद्रोह के नेता थे। क्षेत्र में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया एवं हज़ारों संथालों को मार डाला गया और विद्रोह का दमन कर दिया गया।[10]
विद्रोह के कारण सरकर ने भागलपुर एवं वीरभूमि के संथाल बहुल क्षेत्रों को काटकर संथाल परगना ज़िला बनाया। इस क्षेत्र के लिए भू राजस्व की नई प्रणाली बनाई गयी एवं ग्राम प्रधानों के पूर्व के अधिकारों को बहाल किया गया।
सन् 1855 का सैनिक विद्रोह
यह सैनिक विद्रोह निजाम हैदराबाद की फौज की तृतीय घुड़सवार सेना ने किया था। इस विद्रोह को दबाने में ब्रिगेडियर मैकेंजी के शरीर पर दस घाव लगे। मुश्किल से उसकी जान बच पाई। बड़ी फौज भेजकर विद्रोह दबा दिया गया।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (सन् 1857)
नील विद्रोह (सन् 1850 से 1860 तक)
बंगाल और बिहार में नील की खेती की जाती थी। नील की खेती से अंग्रेज बनिये खूब धन कमाते थे और वे संथाल मजदूरों का भरपूर शोषण करते थे। आखिरकार संथाल मजदूरों और कृषकों ने विद्रोह कर दिया। अंग्रेजों की कई कोठियाँ जल गईं और कई अंग्रेज मार डाले गए। विद्रोह दबा दिया गया; लेकिन मजदूरों का शोषण बंद हो गया।[11]
कूका विद्रोह (सन् 1872)
कूके लोग सिखों के नामधारी संप्रदाय के लोग थे। इन लोगों के सशस्त्र विद्रोह को ‘कूका विद्रोह’ के नाम से पुकारा जाता है। गुरु रामसिंहजी के नेतृत्व में कूका विद्रोह हुआ। कूके लोगों ने पूरे पंजाब को बाईस जिलों में बाँटकर अपनी समानांतर सरकार बना डाली। कूके वीरों की संख्या सात लाख से ऊपर थी। अधूरी तैयारी में ही विद्रोह भड़क उठा और इसी कारण वह दबा दिया गया।[12]
वासुदेव बलवंत फड़के के मुक्ति प्रयास (सन् 1875 से 1879)
वासुदेव बलवन्त फड़के का क्षेत्र महाराष्ट्र था। उसने रामोशी, नाइक, धनगर और भील जातियों को संगठित करके उनकी एक सुसज्जित सेना बना डाली। अंग्रेजी सेना के विरुद्ध उसने कई सफल लड़ाइयाँ लड़ीं। ब्रिटिश शासन के लिए वह आतंक बन गया। किसी देशद्रोही ने उसे सोते में गिरफ्तार करा दिया। उसे आजीवन कारावास का दंड देकर अदन की जेल में बंद कर दिया गया। वहीं उसका प्राणांत हुआ। वासुदेव बलवंत फड़के के साथ ही आमने-सामने के और छापामार युद्धों का युग समाप्त हो गया।[13]
चाफेकर संघ (सन् 1897 के आसपास)
महाराष्ट्र के पूना नगर में दामोदर हरि चाफेकर, बालकृष्ण हरि चाफेकर और वासुदेव हरि चाफेकर नाम के तीन सगे भाइयों ने एक संघ की स्थापना की और युवकों को अर्द्ध-सैनिक प्रशिक्षण देकर ब्रिटिश साम्रज्य के विरुद्ध उन्हें तैयार किया। इन लोगों को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का संरक्षण प्राप्त था। 22 जून 1897 को उन्होंने पूना के अत्याचारी प्लेग कमिश्नर मि. रैंड और एक पुलिस अधिकारी मि. आयरिस्ट को गोलियों से भून डाला। इस कांड में दोनों चाफेकर बंधुओं को फाँसी का दंड मिला। सबसे छोटे भाई वासुदेव हरि चाफेकर को भी मुखबिर की हत्या के अपराध में फाँसी का दंड मिला।
बंग-भंग आंदोलन (सन् 1905)
बंगाल में स्वदेशी आंदोलन पहले से ही चल रहा था। इसके अंतर्गत विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करके स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग को प्रोत्साहित किया जा रहा था। इसी बीच भारत के वाइसराय लॉर्ड कर्जन ने बंगाल प्रांत के विभाजन की घोषणा कर दी। इस घोषणा से सारा बंगाल भड़क उठा और गोपनीय क्रांतिकारी समितियाँ सक्रिय हो उठीं। अत्याचारी अंग्रेजों के विरुद्ध बमों और पिस्तौलों का उपयोग होने लगा। यह आंनदोलन केवल बंगाल तक सीमित न रहकर समस्त भारत की आजादी का आंदोलन बन गया।[14]
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लाला लाजपत राय (पंजाब), बाल गंगाधर तिलक (महाराष्ट्र), और बिपिन चन्द्र पाल (बंगाल), ने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में एक नए विचार को जन्म दिया। इन्हें सामूहिक रूप से 'लाल-बाल-पाल' कहते हैं।
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अरविन्द घोष, युगान्तर के संस्थापकों में से एक थे। साथ ही वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राष्ट्रवादी राजनीति में भी सम्मिलित थे। वे अनुशीलन समिति से भी जुड़े हुए थे।
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बारीन्द्र कुमार घोष, अरविन्द घोष के छोटे भाई और युगान्तर के संस्थापकों में से एक थे।
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भूपेन्द्रनाथ दत्त, एक कारान्तिकारी थे जो हिंदू-जर्मन षड्यंत्र में शामिल थे।
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खुदीराम बोस की गणना सबसे कम उम्र के क्रान्तिकारियों में होती हैं जिन्हें अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया था।
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प्रफुल्ल चाकी, युगान्तर से जुड़े हुए थे। उन्होने भारत की स्वतंत्रता के लिए ब्रितानी अधिकारियों की हत्या की।
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सन १९१० में यतीन्द्रनाथ मुखर्जी (बाघा जतिन); वे युगान्तर पार्टी के प्रमुख नेता थे। युगान्तर पार्टी बंगाल के क्रान्तिकारियों का मुख्य संगठन था।
यूरोप में भारतीय क्रांतिकारियों के मुक्ति प्रयास (सन् 1905 के आसपास)
भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारी और संस्कृत के प्रकांड विद्वान् श्यामजी कृष्ण वर्मा ने लंदन ‘इंडिया हाउस’ की स्थापना करके उसे भारतीय क्रांतिकारियों का केंद्र बना दिया। उनके सहयोगी थे विनायक दामोदर सावरकर। इन्हीं के एक नौजवान साथी मदनलाल धींगरा ने एक अत्याचारी अंग्रेज अफसर को लंदन में गोली मारकर फाँसी का दंड प्राप्त किया। उस समय लंदन में कई भारतीय क्रांतिकारी सक्रिय थे, जिनमें लाला हरदयाल का नाम प्रमुख है।
फ्रांस में भी भारतीय क्रांतिकारी सक्रिय हो उठे। वहाँ मदाम कामा और सरदारसिंह राणा ने अच्छा-खासा क्रांतिकारी संगठन खड़ा कर डाला। जर्मनी में भी ‘बर्लिन कमेटी’ नाम से भारतीय क्रांतिकारियों का एक संगठन कार्य करने लगा।
अमेरिका तथा कनाडा में गदर पार्टी (प्रथम विश्वयुद्ध के आगे-पीछे)
अमेरिका और कनाडा पहुँचनेवाले प्रवासी भारतीयों ने सन् 1907 में ‘हिंदुस्तान एसोसिएशन’ नाम की एक संस्था स्थापित की। सन् 1913 में कनाडा के सान फ्रांसिस्को नगर में ‘गदर पार्टी’ नाम की एक महत्त्पूर्ण संस्था स्थापित की गई। इस संस्था का मुखपत्र ‘गदर’ दुनिया के कई देशों में निःशुल्क भेजा जाता था। गदर पार्टी के संस्थापकों में लाला हरदयाल, सोहनसिंह भकना, भाई परमानंद, पं॰ परमानंद, करतारसिंह सराबा और बाबा पृथ्वीसिंह आजाद प्रमुख थे। इस पार्टी के हजारों सदस्य भारत को आजाद कराने के लिए जहाजों द्वारा भारत पहुँचे। ये लोग पूरे पंजाब में फैल गए और अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध गोपनीय कार्य करने लगे। गद्दारी के दुष्परिणाम से यह आंदोलन भी दबा दिया गया। सैकड़ों लोग गोलियों से भून दिए गए और सैकड़ों को फाँसी पर लटका दिया गया।
रासबिहारी बोस की क्रांति चेष्टा
जब गोपनीय क्रांति समितियों द्वारा भारत की आजादी के प्रयास सफल नहीं हुए तो कुछ क्रांतिकारियों का ध्यान इस ओर गया कि सेना के बिना स्वाधीनता प्राप्त करना संभव नहीं है। सेना का निर्माण संभव नहीं था। इस बात का प्रयत्न किया गया कि अंग्रेजों के अधीन भारतीय सेनाओं को विप्लव के लिए भड़काया जाए और आजादी की दिशा में प्रयत्न किए जाएँ। महान क्रांतिकारी रासबिहारी बोस इस योजना के सूत्रधार थे। इस कार्य के लिए सेनाओं को तैयार कर लिया गया; लेकिन कृपालसिंह नाम के एक गद्दार ने भेद देकर सारी योजना पर पानी फेर दिया। कई क्रांतिकारियों को फाँसी का उपहार मिला।[15]
हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ (सन् 1915 के आसपास)
रासबिहारी बोस के लेफ्टीनेंट शचींद्रनाथ सान्याल ने समस्त उत्तर भारत में एक सशक्त क्रांति संगठन खड़ा कर दिया। इस संगठन की सेना के विभागाध्यक्ष रामप्रसाद बिस्मिल थे। इस संघ ने कई महत्त्पूर्ण कार्य किए; लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य ने इसके कार्य को विफल कर दिया।
सशस्त्र क्रांति का प्रगतिशील युग
इस युग को ‘भगतसिंह-चन्द्रशेखर आजाद युग’ के नाम से जाना जाता है। भगतसिंह क्रांतिपथ के मील के पत्थर की भाँति थे। इन लोगों ने ‘हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ’ का नाम बदलकर ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ’ कर दिया। इनके प्रगतिशील कार्य थे—
- (१) अखिल भारतीय स्तर पर क्रांति संगठन खड़ा करना,
- (२) क्रांति संगठन को धर्मनिरपेक्ष स्वरूप प्रदान करना,
- (३) समाजवादी समाज की स्थापना का संकल्प करना,
- (४) क्रांतिकारी आंदोलन को जन आंदोलन का स्वरूप प्रदान करना,
- (५) महिला वर्ग को क्रांति संगठन में प्रमुख स्थान प्रदान करना।
इस युग में भारत की आजादी के लिए जो प्रयत्न किए गए, वे अहिंसात्मक आंदोलनकारियों और क्रांतिकारियों द्वारा मिलजुलकर किए गए। इस आंदोलन के दो प्रमुख चरण थे।
अगस्त क्रांति (सन् 1942 का ‘भारत छोड़ो आंदोलन’)
सन् 1942 में व्यापक जनक्रांति फूट पड़ी। ब्रिटिश शासन ने 9 अगस्त सन् 1942 को महात्मा गाँधी और सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार करके जेलों में डाल दिया। गाँधी जी द्वारा ‘करो या मरो’ का नारा दिया जा चुका था। नेताविहीन आंदोलनकारियों की समझ में जो आया, वही उन्होंने किया। सशस्त्र क्रांति के समर्थक, जो ‘सत्याग्रह आंदोलन’ में विश्वास नहीं रखते थे, वे भी इस आंदोलन में कूद पड़े और तोड़-फोड़ का कार्य करने लगे। संचार व्यवस्था भंग करने के लिए तार काट दिए गए और सेना का आवागमन रोकने के लिए रेल की पटरियाँ उखाड़ी जाने लगीं। ब्रिटिश शासन ने निर्ममतापूर्वक इस आंदोलन को कुचल डाला। हजारों लोग गोलियों के शिकार हुए।
दक्षिण-पूर्व एशिया में आजाद हिंद आन्दोलन
द्वितीय विश्वयुद्ध के दिनों से ही भारत के क्रांतिकारी नेता सुभाषचंद्र बोस अपनी योजना के अनुसार ब्रिटिश जासूसों की आँखों में धूल झोंककर अफगानिस्तान होते हुए जर्मनी जा पहुँचे। जब विश्वयुद्ध दक्षिण-पूर्व एशिया में उग्र हो उठा और अंग्रेज जापानियों से हारने लगे, तो सुभाषचंद्र बोस जर्मनी से जापान होते हुए सिंगापुर पहुँच गए तथा आजाद हिंद आंदोलन के सारे सूत्र अपने हाथ में ले लिये। उन्हें ‘नेताजी’ के संबोधन से पुकारा जाने लगा। आजादहिंद आंदोलन के प्रमुख अंग थे—आजाद हिंद संघ, आजाद हिंद सरकार, आजाद हिंद फौज, रानी झाँसी रेजीमेंट, बाल सेना, आजाद हिंद बैंक और आजाद हिंद रेडियो।
आजाद हिंद फौज ने कई लड़ाइयों में अंग्रेजी सेनाओं को परास्त किया तथा मणिपुर एवं कोहिमा क्षेत्रों तक पहुँचने और भारतभूमि पर तिरंगा झंडा फहराने में सफलता प्राप्त की।
अमेरिका द्वारा जापान के हिरोशिमा एवं नागासाकी नगरों पर परमाणु बम छोड़ देने और भारी तबाही के कारण जापान ने हथियार डाल दिए। स्वाभाविक ही था कि नेताजी सुभाष द्वारा भारत की आजादी के लिए किए जा रहे प्रयत्नों का पटाक्षेप हो गया। आजाद हिंद फौज के बड़े-बडे़ अफसरों को गिरफ्तार करके भारत लाया गया और उन पर मुकदमे चलाए गए। नेताजी सुभाष के विषय में सुना गया कि मोरचा बदलने के क्रम में विमान दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण 18 अगस्त 1945 को फारमोसा द्वीप के ताइहोकू स्थान पर उनकी मृत्यु हो गई।
नौसैनिक विद्रोह (सन् 1946)
गोवा मुक्ति संघर्ष
दादरा तथा नगर हवेली मुक्ति संग्राम
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख संगठन और आन्दोलन
भारतीय स्वतंत्रता के प्रमुख क्रान्तिकारी
क्रान्तिकारी | जन्मतिथि | निधन | गतिविधियाँ और कार्य |
---|---|---|---|
खुदीराम बोस (क्षुदीराम बसु) |
3 दिसम्बर 1889 | 11 अगस्त 1908 | मुजफ्फरपुर में किंग्सफोर्ड की बग्घी पर बम फेंका |
मदनलाल धींगड़ा | 18 सितम्बर 1883 | 17 अगस्त 1909 | कर्जन विली को मारा |
कन्हाई लाल दत्त | 31 अगस्त1888 | 10 नवम्बर 1908 | अंग्रेजों के मुखबिर की हत्या |
सत्येन्द्रनाथ बसु | 30 जुलाई 1882 | 21 नवम्बर 1908 | अंग्रेजों के मुखबिर की हत्या |
चन्द्रशेखर आज़ाद | 23 जुलाई 1906 | 27 फरवरी 1931 | काकोरी काण्ड |
राम प्रसाद 'बिस्मिल' | 11 जून 1897 | 19 दिसम्बर 1927 | काकोरी काण्ड |
भगत सिंह | 27/28 सितम्बर 1907 | 23 मार्च 1931 | १९२९ में सेन्ट्रल असेम्बली में बम फेंका। |
उधम सिंह | 26 दिसम्बर 1899 | 31 जुलाई 1940 | Shooting in Caxton Hall |
वंशीनाथन | 1886 | 17 जून 1911 | Shot dead Ashe, the Tax Collector of Thirunelveli |
हेमू कालाणी | 23 मार्च 1923 | 21 January 1943 | Sabotage of Railway Track |
अशफाकुल्ला खान | 22 अक्टूबर 1900 | 19 December 1927 | काकोरी काण्ड |
शचीन्द्रनाथ बख्शी | 25 दिसम्बर 1904 | 23 November 1984 | काकोरी काण्ड |
मन्मथ नाथ गुप्त | 7 फरवरी 1908 | 26 October 2000 | काकोरी काण्ड |
वासुदेव बलवन्त फड़के | 4 नवम्बर 1845 | 17 February 1883 | Deccan Rebellion |
अनन्त लक्ष्मण कान्हेरे | 1891 | 19 अप्रैल 1910 | जैक्सन नामक अंग्रेज अधिकारी को गोली मारी थी। |
कृष्णजी गोपाल कार्वे | 1887 | 19 अप्रैल 1910 | जैक्सन नामक अंग्रेज अधिकारी को गोली मारी थी। |
गणेश दामोदर सावरकर | 13 जून 1879 | 16 मार्च 1945 | Armed movement against the British |
विनायक दामोदर सावरकर | 28 मई 1883 | 26 फरवरी 1966 | स्वातंत्र्यवीर सावरकर |
बाघा जतिन | 7 दिसम्बर 1879 | 10 सितम्बर 1915 | The Howrah-Sibpur conspiracy case, Hindu–German Conspiracy |
बटुकेश्वर दत्त | 18 नवम्बर 1910 | 20 जुलाई 1965 | Central Assembly Bomb Case 1929 |
सुखदेव | 15 मई 1907 | 23 मार्च 1931 | Central Assembly Bomb Case 1929 |
शिवराम हरि राजगुरु | 24 अगस्त 1908 | 23 मार्च 1931 | Murder of a British police officer, J. P. Saunders |
रोशन सिंह | 22 जनवरी 1892 | 19 दिसम्बर 1927 | काकोरी काण्ड, Bamrauli Action |
प्रीतिलता वाद्देदार | 5 मई 1911 | 23 सितम्बर 1932 | पहाड़ताली यूरोपीय क्लब पर आक्रमण |
यतीन्द्र नाथ दास | 27 अक्टूबर 1904 | 13 सितम्बर 1929 | Hunger strike and Lahore conspiracy case |
दुर्गावती देवी (दुर्गा भाभी) | 7 अक्टूबर 1907 | 15 अक्टुबर 1999 | 'हिमालयन ट्वायलेट्स' नामक बम कारखाने की संचालिका |
भगवती चरण वोहरा | 4 जुलाई 1904 | 28 मई 1930 | Philosophy of Bomb |
मदनलाल ढींगरा | 18 सितम्बर 1883 | 17 अगस्त 1909 | कर्जन वाइली की हत्या |
अल्लूरी सीताराम राजू | 1897 | 7 May 1924 | Rampa Rebellion of 1922 |
कुशल कोंवार | 1905 | 15 जून 1943 | Train sabotage Sarupathar |
सूर्य सेन (मास्टरदा) | 22 March 1894 | 12 January 1934 | Chittagong Armoury Raid |
अनन्त सिंह | 1 दिसम्बर 1903 | 25 जनवरी 1979 | चटगांव विद्रोह |
अरविन्द घोष | 15 अगस्त 1872 | 5 दिसम्बर 1950 | अलीपुर बम काण्ड |
रास बिहारी बोस | 25 मई 1886 | 21 जनवरी 1945 | आजाद हिंद फ़ौज |
ओबैदुल्ला सिन्धी | 10 मार्च 1872 | 22 अगस्त 1944 | Silk Letter Conspiracy |
योगेश चन्द्र चट्टोपाधाय | 1895 | 1969 | Kakori Conspiracy |
बैकुण्ठ शुक्ला | 1907 | 14 मई 1934 | फणीन्द्र नाथ घोष की हत्या, जो सरकार का मुखविर था |
अम्बिका चक्रवर्ती | 1892 | 6 मार्च 1962 | Chittagong armoury raid |
बादल गुप्त | 1912 | 8 December 1930 | Attack at Writers Building |
दिनेश बसु | 6 December 1911 | 7 July 1931 | Attack at Writers Building |
विनय बसु | 11 September 1908 | 13 December 1930 | Attack at Writers Building |
राजेन्द्र लाहिड़ी | 1901 | 17 December 1927 | Kakori Conspiracy |
बारीन्द्र कुमार घोष | 5 January 1880 | 18 April 1959 | Alipore Bomb Case |
प्रफुल्ल चाकी | 10 December 1888 | 1908 | The Muzaffarpur killing |
उल्लासकर दत्त | 16 April 1885 | 17 May 1965 | Alipore Bomb Case |
हेमचन्द्र कानूनगो | 1871 | 1951 | Alipore Bomb Case |
बसवों सिंह | 23 March 1909 | 7 April 1989 | Lahore conspiracy case |
भावभूषन मित्र | 1881 | 27 January 1970 | Ghadar Mutiny |
बीना दास | 24 August 1911 | 26 December 1986 | Attempted to Assassinate the Bengal Governor Stanley Jackson |
वीर भाई कोतवाल | 1 December 1912 | 2 January 1943 | Kotwal Dasta, Quit India Movement |
रानी लक्ष्मीबाई | 19 नवम्बर 1828 | 17 जून 1858 | For her Country Hindustan, killing and insulting British Officials]] |
ओम प्रकाश विज | 1 जुलाई 1934 | 23 मार्च 2000 | भारत की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष |
क्रांतिकारी साहित्य
- आनन्द मठ - बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय
- सत्यार्थ प्रकाश - स्वामी दयानन्द सरस्वती
- १८५७ का स्वातंत्र्य समर - विनायक दामोदर सावरकर
- हिन्द स्वराज - महात्मा गांधी
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
- शहीद कोष
- इंडियन रिबेल्स (फ्री इन्साइक्लोपेडिया)
- लड़ाई बाहर से भी लड़ी गई
- बांग्ला बुद्धिजीवियों की दृष्टि में १८५७ की जनक्रांति (सोमा बंदोपाध्याय)
- स्वतंत्रता सेनानी ग्रन्थमाला ६ (गूगल पुस्तक)
- अंग्रेजों के विरुद्ध अण्डमानी आदिवासी संघर्ष
- Revolutionaries in Cellular Jail, Andaman
- List of Revolutionaries in Cellular Jail, Andaman
- Historical Distortions and Indian Revolutionaries
- स्वतंत्रता सैनिक सम्मान पेंशन योजना, 1980 के अंतर्गत मान्यता प्राप्त आन्दोलनों की सूची
- 'भगत सिंह की फाँसी गांधी की नैतिक हार'
- स्वतंत्रता आन्दोलन का सच (हृदयनारायण दीक्षित)
- भारत के प्रमुख आन्दोलनकारी और क्रांतिकारी