तिलोकपुर
तिलोकपुर (Tilokpur) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के तिलहर में स्थित एक गाँव है।[1][2]
तिलोकपुर Tilokpur | |
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1000 वर्ष पुराने वृक्षदेवता "ब्रह्मदेव" का छायाचित्र | |
निर्देशांक: 27°53′28″N 79°44′06″E / 27.891°N 79.735°Eनिर्देशांक: 27°53′28″N 79°44′06″E / 27.891°N 79.735°E | |
देश | भारत |
राज्य | उत्तर प्रदेश |
उपजिला | तिलहर |
ऊँचाई | 152 मी (499 फीट) |
जनसंख्या (2011) | |
• कुल | 1,110 |
भाषाएँ | |
• प्रचलित | हिन्दी |
समय मण्डल | भामस (यूटीसी+5:30) |
विवरण
संपादित करेंतिलोकपुर एक बहुत ही पुराना गाँव है। यह तिलहर तहसील के भौगोलिक क्षेत्र से बहने वाली शारदा नहर के किनारे बसा हुआ है। यह नहर तिलहर के कटरा कस्बे से होते हुए तिलहर शहर के पश्चिमी क्षेत्र से तिलोकपुर और काँट होते हुए कुर्रिया कलाँ तक जाती है। काकोरी काण्ड के अभियुक्तों में से एक बनवारी लाल जो मुकदमें के दौरान वायदा माफ गवाह (अंगेजी में अप्रूवर) बन गया था, इसी गाँव का रहने वाला था। बाद में उसने ब्राह्मणों से जान का खतरा होने के कारण यह गाँव छोड़ दिया और पास के ही दूसरे गाँव केशवपुर में रहने लगा जहाँ उसकी कायस्थ बिरादरी के लोग रहते थे।
इतिहास
संपादित करेंतिलोकपुर उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक नगर तिलहर के दक्षिण में लगभग सात किलोमीटर दूरी पर स्थित है। तिलहर से गुलौला खेड़ा तक सड़क बन गयी है इसी के दोनों ओर तिलोकपुर व केशवपुर गाँव बसे हुए हैं। शाहजहाँपुर गजेटियर के अनुसार तिलहर को वर्तमान नाम अकबर के एक वफादार वाछिल राजपूत त्रिलोकचन्द्र के नाम[3] पर दिया गया था। शाहजहाँपुर तो बहुत बाद में शाहजहाँ के सिपहसालारों बहादुर खाँ और दिलेर खाँ द्वारा बसाया गया। यह दीगर बात है कि शाहजहाँपुर मुगल बादशाह के नाम पर होने के काऱण जिला बन गया जबकि तिलहर तहसील ही बना रहा। त्रिलोकचन्द्र राजपूत का बनबाया हुआ किला आज भी तिलहर के दातागंज मोहल्ले में है। इसके तीन बड़े-बड़े फाटकों में से एक फाटक टूट चुका है। शेष दो फाटक व किले की मोटी-मोटी दीवारों के अवशेष आज भी यहाँ विद्यमान हैं। प्रचलित जनश्रुति के अनुसार इन्हीं त्रिलोकचन्द्र के नाम पर तिलोकपुर गाँव का भी नामकरण किया गया था।
निवासी एवं रहन सहन
संपादित करेंयद्यपि यह गाँव बहुत प्राचीन है जैसा कि यहाँ के विशालकाय सेमल, पकड़िया व पीपल के वृक्षों से ज्ञात होता है तथापि अशिक्षा व यहाँ के निवासियों के अत्यधिक उग्र स्वभाव के कारण यह निरन्तर उजड़ता ही चला गया। आपसी दुश्मनी और खानदानी मुकदमेवाजी से तंग आकर भले लोग इस गाँव से पलायन कर अन्यत्र जा बसे और इस गाँव की जनसंख्या दिन पर दिन घटती चली गयी। किसी जमाने में इसके चारो ओर बाग ही बाग थे जिनमें हर प्रकार के फलदार वृक्ष थे किन्तु सन् उन्नीस सौ सैंतालिस के बाद जब से उन बागों का धड़ाधड़ कटना शुरू हुआ तो प्रकृति ने भी जैसे यहाँ के निवासियों से अपना बदला ही चुका लिया। "तुम हमें नहीं रहने दोगे तो हम भी तुम्हें नहीं रहने देंगे" वाली उक्ति यहाँ के निवासियों पर चरितार्थ हो गयी।
हिन्दू जातियों में ठाकुर,कुर्मी , ब्राह्मण, अहीर, गड़रिया, लुहार, बढ़ई, धोबी, धानुक, नट, तेली-वैश्य और कहार जाति के कुछ परिवार बच गये हैं। इसी प्रकार मुस्लिम बिरादरी में मनिहार, जुलाहे और फकीर रह गये हैं। यहाँ की सबसे पुरानी जाति क्षत्रिय स्वर्णकार लोगों की थी, जिन्होंने परशुराम के जमाने में शाहजहाँपुर के सड़ा, निगोही से आकर यहाँ अपने कुछ घर बनाये थे। इस जाति के लोग अब बिल्कुल नहीं रहे। इसी प्रकार कायस्थ गड़रिये और मनिहार भी यहाँ से पलायन कर गये।
यहाँ भूड़ जमीन है जो कृषि उपज के लिये पर्याप्त परिश्रम चाहती है। पंजाब से आये कुछ सिक्ख किसानों ने यहाँ के निवासियों से जमीनें खरीद लीं और खेत के बीचो-बीच झाला बनाकर रहने लगे। उनका रहन सहन भी बड़ा विचित्र है। वे.गाँव के लोगों से कोई सरोकार या सम्बन्ध ही नहीं रखते क्योंकि वे इस गाँव के मूल निवासियों के स्वभाव से भली-भाँति परिचित हैं।
सुनार
संपादित करेंप्रचलित जनश्रुति के अनुसार इस गाँव के सुनारों के बारे में वही कथा प्रचलित है कि परशुराम ने जब एक-एक करके क्षत्रियों का विनाश करना प्रारम्भ कर दिया तो दो राजपूत भाइयों को एक सारस्वत ब्राह्मण ने बचाया था जिनमें से एक ने स्वर्ण धातु से आभूषण बनाने का काम सीख लिया और दूसरा भाई खतरे को भाँप कर खत्री बन गया और आपस में रोटी बेटी का सम्बन्ध भी न रखा ताकि किसी को यह बात कानों-कान पता लग सके कि दोनों ही क्षत्रिय हैं। इस गाँव के सुनारों ने भी बाद में आभूषण बनाने का धन्धा छोड़ दिया और खेती करने लगे[4]।
पीपल-पूजा
संपादित करेंहिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार पीपल को ब्रह्म कहा गया है। साधू संन्यासी इस पवित्र वृक्ष की पूजा करते हैं प्रदक्षिणा हेतु सात परिक्रमा करते हैं। इस गाँव के लोग आज भी इसे एक सामान्य पीपल का वृक्ष न कहकर ब्रह्मदेवता ही कहते हैं। यहाँ की अपभ्रंश भाषा में वे इसे बरमदेव बाबा के नाम से पुकारते हैं, मनौतियाँ मनाते हैं और मनौती पूरी होने पर प्रसाद चढ़ाते हैं व प्रदक्षिणा करते हैं। प्रति वर्ष बुद्ध पूर्णिमा को यहाँ मेला भी लगता है। यहाँ के निवासियों के अनुसार 1000 वर्ष पुराने इस वृक्ष देवता के मुख्य तने का व्यास 10 फुट के आसपास है जिस पर ब्रह्मा-विष्णु-महेश तीनों ही आदि-देवों की मूर्तियाँ स्पष्ठ रूप से उभरी हुई दिखायी देती हैं। शाहजहाँपुर जिले में पायी जाने वाली भूमिहीन ब्रजवासी नटों की जाति, जिनका मुख्य पेशा आज भी नाच-गाकर रोजी कमाना तथा समृद्ध लोगों की आत्मतुष्टि व मनोरंजन करना है। इस जाति के लोग प्रति वर्ष बुद्ध पूर्णिमा को मेले में आकर नृत्य एवं गायन से आज भी ब्रह्मदेव बाबा का मनोरंजन करते हैं। यह परम्परा कब से चली आ रही है यह कोई नहीं जानता।
इन्हें भी देखें
संपादित करेंपाठ्य सामग्री
संपादित करें- डॉ॰ एन० सी० मेहरोत्रा "शाहजहाँपुर ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक धरोहर" 1999 प्रतिमान प्रकाशन, 30 कूचा राय गंगा प्रसाद, इलाहाबाद 211003 भारत.
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ "Uttar Pradesh in Statistics," Kripa Shankar, APH Publishing, 1987, ISBN 9788170240716
- ↑ "Political Process in Uttar Pradesh: Identity, Economic Reforms, and Governance Archived 2017-04-23 at the वेबैक मशीन," Sudha Pai (editor), Centre for Political Studies, Jawaharlal Nehru University, Pearson Education India, 2007, ISBN 9788131707975
- ↑ डॉ॰ मेहरोत्रा की सन्दर्भित पुस्तक का पृष्ठ 114
- ↑ R.V. Russell assisted by Rai Bahadur Hira Lal; The Tribes and Castes of the Central Provinces of India; published under the orders of the Central Provinces Administration, Macmillan and Co. Ltd., St. Martin Street, London, 1916