कशेरुक जीवाश्मिकी (Vertebrate paleontology) जीवाश्मिकी की विशाल शाखा है जो अश्मीभूत कशेरुकों के अवशेषों के अध्ययन के आधार पर उनके व्यवहार, प्रजनन तथा स्वरूप आदि की खोज करती है। कशेरुक प्राणी वे कहलाते हैं जिनके कशेरुक दण्ड (vertebrae) होता है। उद्विकास की समयरेखा का प्रयोग करते हुए यह शाखा पुराकाल के जन्तुओं तथा उनके वर्तमान संबन्धियों को भी जोड़ने का प्रयत्न करती है।

जीवाश्मों के अध्ययन से पता चलता है कि आरम्भिक काल में कशेरुक प्राणी जलीय-जन्तु थे जिनसे विकसित होकर आज के स्तनपोषी बने हैं।

जेप्सेन, मेयर एवं सिम्पसन के शब्दों में, कशेरुकीय जीवाश्म विज्ञान समय की सीमा में बँधे तुलनात्मक अस्थिविज्ञान का अध्ययन है। कारण कि (1) जैवाश्मिकीय न्यास (data) मूल रूप से कंकाल (sdeleton) तंत्र तक ही सीमित होते हैं। (2) जीवाश्मवैज्ञानिकों के पास अध्ययन सामग्री के रूप में विविध पुराकालिक कंकालों के संकलन मात्र होते हैं। (ग्लेन एल. जेप्सेन, अर्न्स्ट मेयर तथा जार्ज गेलार्ड सिम्पसन : जेनेटिक्स, पैलिओन्टोलाजी एंड इवोल्यूशन, प्रिंस्टन यूनि. प्रेस, प्रिंस्टन, न्यूजर्सी, 1949)।

'कशेरुकीय जीवाश्मिकी' (Vertebrate paleontology) की दो मुख्य शाखाएँ हैं :

  • वानस्पतिक जीवाश्मिकी (Palaeobotary) तथा
  • जंत्विक जीवाश्मिकी (Palaeozoology)।

स्पष्ट है कि प्रथम के अंतर्गत प्राचीन अश्मीभूत वनस्पतियों तथा दूसरे के अंतर्गत प्राचीन अश्मीभूत जंतुओं का अध्ययन किया जाता है। किंतु, साधारणतया प्राचीन अश्मीभूत जंतुओं के अध्ययन को ही 'जीवाश्मिकी' की संज्ञा प्राप्त है।

भूगर्भिक काल (Geological age)

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देखें, भूवैज्ञानिक समय-मान (Geological time scale)

कशेरुकीय जन्तुओं के लक्षण

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इसके पूर्व कि हम कशेरुकीय जीवाश्मों पर विचार करें, कशेरुकीय जंतुओं के लक्षणों पर दृष्टिपात करन लेना समीचीन होगा। कशेरुकी जंतुओं के निम्नलिखित लक्षण बतलाए गए हैं :

(1) सभी कशेरुकीय जंतुओं में द्विपार्श्व सममिति (Bilateral symmetry) पाई जाती है।

(2) पृष्ठरज्जु (Notochord)-कशेरुकीय जंतुओं के अवलंबन (support) के लिए आंतरिक कंकाल पाया जाता है। इससे पेशीय संचलन में भी सुविधा मिलती है। इस कंकाल के पृष्ठभाग में एक लंबी पतली शलाका होती है, जो पुच्छ भाग से लेकर कपाल की ग्रीवा तक फैली रहती है। अति विकसित कशेरुकीयों में यही रीढ़ की हड्डी बन जाती है।

(3) उपास्थि एवं अस्थि (Cartilage and bone)-सभी कशेरुकीय जंतुओं में उपास्थियों या अस्थियों द्वारा निर्मित एक कंकाल तंत्र (skeletal system) पाया जाता है।

(4) अक्षीय कंकाल (Axial skeleton)-अक्षीय कंकाल तंत्र के मुख्य घटक कशेरुक (Vertebrae) हैं। कशेरुकों का विस्तार होने के कारण उच्च कशेरुकीय जंतुओं में पँसलियाँ (ribs) बन जाती हैं।

(5) युग्मित अनुबंध (Paired appenddages)-मछलियों में युग्मित पंखों (Paired fins) तथा भूमि पर रहनेवाले कशेरुकों में हाथ पैर पाए जाते हैं। ये सब एक-एक जोड़े हाते हैं। हाथों के अवलंबन के लिए हँसलियाँ (pectoral girdles) तथा पैरों के लिए कूल्हे (pelvic girdles) होते हैं।

(6) क्लोम तंत्र (Branchial system)-सभी कशेरुकीयों में साँस लेने के लिए क्लोमतंत्र पाया जाता है, जो उच्च कशेरुकीयों में विकसित होकर फेफड़ा बन जाता है।

(7) खोपड़ी (Skull)-कंकाल के एक सिरे पर एक मस्तिष्क खोल (brain case) पाई जाती है जिसके भीतर वसा जैसे पदार्थ भरे रहते हैं। इसका पिछला भाग रीढ़ की हड्डी से जुड़ा रहता है और अगले या सम्मुख भाग में नाम तथा आँख के गड्ढे बने रहते हैं। पृष्ठीय खंड के विस्तार क्षेत्र में कान की गुहाएँ पाई जाती हैं।

महाकल्पों के कशेरुकीय जंतु

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कशेरुकीय जंतुओं के अश्मीभूत प्रमाण सर्वप्रथम ऑर्डोविसियन काल में मिलते हैं, जो विच्छिन्न रूप में हैं। हम ज्यों-ज्यों सिल्यूरियन काल की ओर बढ़ते हैं, ये जीवाश्मीय प्रमाण अधिक ठोस और पूर्ण होते जाते हैं। डिवोनियल शैल खंडों के जीवाश्मीय प्रमाण वास्तवकि अर्थ में पूर्ण और विश्वसनीय हो जाते हैं। डिवोनियन कल्प के मध्य तथा अंतकाल के बीच मछलियाँ उत्पन्न हो चुकी थीं। पुराजीवी महाकल्प के अंत काल में उभयचर (amphibians) भी उत्पन्न हो चुके थे। पेन्सिलवैनियय काल में सरीसृप उत्पन्न हुए और उन्होंने लाखों वर्षों तक पृथ्वी पर शासन किया। मध्यजीवी महाकल्प के जुरैसिक कल्प में पक्षी तथा स्तनपायी उत्पन्न हुए। नूतनजीवी महाकल्प में स्तनपायी जंतु युग का आंरभ हुआ। इस प्रकार, मोटे तौर पर, कशेरुकीय जंतुओं का प्रादुर्भाव होता गया।

पुराजीवी महाकल्प (Paleozoic Era)

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इस महाकल्प का विस्तार 32 करोड़ वर्षों तक की अवधिवाला माना गया है। इसके अंतर्गत सात कल्प समाविष्ट हैं : कैंब्रियन, ऑर्डोविसियन, सिल्यूरियन, डिवोनियन, मिसिसिपियन, पेंसिल्वैनियन तथा पर्मियन।

कैंब्रियन कल्प

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पुराजीवी महाकल्प के इस प्रथम चरण में अकशेरुकीय जंतुओं के पूर्णविकसित स्वरूप दृष्टिगोचर होते हैं। कशेरुकीय जंतुओं के जीवाश्म कैंब्रियनकाल में नहीं मिलते। इस कारण यह बतलाया गया है कि संभवत: आदिम कशेरुकीय जंतुओं का शरीर ऐसे पदार्थों द्वारा निर्मित रहा होगा, जिनका प्रस्तरीकरण संभव नहीं है। दूसरे, इस कल्प के जीवाश्म अधिकतर समुद्री हैं, अत: हो सकता है कि वे, या तो विरल (rare) रहे हों, या खारे जल में वे रहते ही न रहे हों।

ऑर्डोविसियन कल्प

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पुराजीवी महाकल्प के द्वितीय चरण के भी जीवाश्म अधिकतर समुद्री हैं। ऑर्डोविसियन कल्प में भी अकशेरुकीयों की भरमार है। इसमें इक्के-दुक्के कशेरुकीय जीवाश्म मिले हैं, किंतु वे इतने अधूरे हैं कि उनसे कोई अर्थ निकालना कठिन है।

सिल्यूरियन कल्प

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सिल्यूरिन कल्प के भी जीवाश्मीय प्रमाण अधिकतर सागरजलीय हैं। इस कल्प के कुछ अतिशय प्राचीन पर्वतीय क्षेत्रों में, विशेषकर रूस के पास, कुछ आदिम कशेरुकीयों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। मीठे जलाशयों के पेटों (डड्ढड्डद्म) तथा समुद्रों के मुहानों पर, जहाँ नदियाँ उनसे संगम करती हैं, कुछ सार्थक जीवाश्म प्राप्त हो सके हैं। मछलियों का प्रादुर्भाव यद्यपि इस कल्प में हो चुका था, तथापि उनका उद्विकास तेजी से हो रहा था जो अगले चरण में जाकर पूरा हुआ।

डिवोनियन कल्प

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इस कल्प में कशेरुकीय जंतुओं के स्पष्ट रूप से प्रमाण प्राप्त होते हैं। डिवोनियन कल्प को 'मत्स्य युग' (Age of fishes) कहा जाता है। कशेरुकीय जंतुओं का श्रृंखलाबद्ध इतिहास यहीं से आरंभ होता है। इंग्लैंड के स्कॉटलैंड प्रदेश में मीटे जल की मछलियों के प्रथम दर्शन मिलते हैं। डिवोनियनकालीन अवसाद उत्तरी अमरीका, कैनेडा, उत्तरी रूस, आस्ट्रेलिया आदि में भी मिलते हैं। इस कल्प में काँटेदार शार्क (spiny shark) का भी प्रादुर्भाव दिखलाई देता है।

मिसिसिपियन एवं पेंसिल्वैनियन कल्प

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कुछ जीवाश्म वैज्ञानिकों ने इन दोनों कल्पों को एक संयुक्त नाम--कार्बोनीफ़रस या कार्बनिक कल्प दिया है। इन दोनों कल्पों की संयुक्त अवधि लगभग आठ करोड़ वर्षों की मानी गई है। मिसिसिपियन कालीन क्षेत्र अधिकतर समुद्री हैं और इनमें चूने (Limestone) की मोटी तहें हैं। पेंसिल्वैनियन कल्प में कोयले की खानों की रचना आरंभ हो चुकी थी, अत: स्वाभाविक रूप से ये क्षेत्र स्थालीय हैं। इस काल में भी विविध प्रकार की मछलियों के जीवाश्म प्रचुर मात्रा में पाए गए हैं। इस कल्प का मुख्य आकर्षण उभयचरों (amphibians) का प्रादुर्भाव है। इन्हीं कल्पों की समाप्ति होते-होते सरीसृप (reptiles) भी उत्पन्न हो चुके थे।

पर्मियन कल्प

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पुराजीवी महाकल्प के इस अंतिम चरण में यूरोप और अमरीका के अनेक क्षेत्रों के अवसादों में पर्याप्त अंतर पड़ चुका था। दक्षिणी अफ्रीका तथा रूस के कुछ भागों में भी इसी प्रकार का परिवेश था और इसमें स्थलीय कशेरुकीय जंतुओं के दर्शन होने लगते हैं। उभयचरों का विकास तेजी से होता जा रहा था और सरीसृप भी फैलते जा रहे थे। इस काल के सरीसृप शाकाहारी थे। कुछ सरीसृप मछलियों का आहार करते थे, ऐसे प्रमाण भी उपलब्ध हुए हैं। दक्षिणी अफ्रीका में कुछ ऐसे भी सरीसृप मिले हैं जो स्तनपायी जंतुओं जैसे दिखलाई देते हैं।

मध्यजीवी महाकल्प (Mesozoic Era)

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इस महाकल्प की अवधि लगभग 13 करोड़ वर्षों की आँकी गई है और इसे 'सरीसृपकाल' (Age of Repiles) की संज्ञा प्रदान की गई है। इस महाकल्प में तीन कल्प हैं : ट्राइऐसिक, जुरैसिक तथा क्रिटैशस।

ट्राइऐसिक कल्प

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मध्यजीवी महाकल्प में भयंकर प्रकार के सरीसृप जल, थल तथा नभ तीनों का शासन करते थे। ईश्वर की कृपा है कि अब उनका लोप हो चुका है। ट्राइऐसिक कल्प का क्षेत्र यूरोप के अल्पाइन पर्वत से आरंभ हाता है। इस क्षेत्र के सागरों की तलहटियों में कई प्रकार के निक्षेप (deposits) मिलते हैं। ऐसे ही क्षेत्र दक्षिणी अफ्रीका, पूर्वी आस्ट्रेलिया, भारत, ब्राज़ील आदि में भी थे।

इस कल्प में पुरानी मछलियों का धीरे-धीरे लोप होता जा रहा था और उनके स्थान पर नए प्रकार की मछलियों का प्रादुर्भाव हो रहा था। कुछ नए प्रकार के सरीसृपों को भी हम उसी काल में पाते हैं, जिनके वंशज आज प्रचुर संख्या में उपलब्ध हैं। इसी कल्प के अंतिम चरण में डाइनासौरों के पूर्वज जन्म ले चुके थे।

जुरैसिक कल्प

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इस कल्प की विशेषता यह है कि इसमें जलीय कशेरुकीय जीवाश्म प्रचुर मात्रा में मिले हैं। इनकी तुलना में स्थलीय कशेरुकी कम प्राप्त हुए हैं। इस कल्प के क्षेत्र जूरा पर्वत, इंग्लिश चैनेल, बैवेरिया (जर्मनी), फ्रांस आदि तक ही सीमित हैं। इस कल्प में तीलियोस्ट (teliosts) तथा एलास्मोब्रैक (elasmobranch) मछलियों, मेढ़कों, समुद्री सरीसृपों, छिपकली जाति के जंतुओं (lizards), मगर, पक्षी तथा आदिम स्तनपायी जंतुओं के दर्शन हमें स्पष्ट रूप से होते हैं। समुद्री इक्थियोसौर इस कल्प के उल्लेखनीय जंतु हैं। जुरैसिक कल्प के अंतिम चरण में डाइनोसौरों के भी दर्शन होने लगते हैं। इस काल के प्रमुख पक्षी वर्ग में आर्किऑप्टेरिक्स (Archaeopteryx) तथा आर्किऑर्निस (Archaeornis) हैं, जिनका आज लोप हो चुका है।

क्रीटैशस कल्प

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इस अकेले कल्प की अवधि लगभग पाँच करोड़ वर्ष आँकी गई है। इस कल्प के प्रमाण यूरोप, उत्तरी अमरीका, ब्राज़ील, आस्ट्रेलिया, माउंट लेबनान, सीरिया आदि में उपलब्ध होते हैं। इस कल्प के जंतु भारत, चीन, मंगोलिया, दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रलिया आदि में भी मिले हैं। इस काल में बड़े-बड़े समुद्री कच्छप, सर्प, मगर मांसाहारी डाइनासौर आदि प्रचुर संख्या में दिखलाई देते हैं। प्लीसियोसौरों (Plesiosaurs) की प्रभुता इस कल्प की विशेषता प्रतीत होती है, जिनके अवशेषों में एक ऐसी खोपड़ी मिली है, जो लगभग तीन मीटर लंबी है।

नूतनजीवी महाकल्प (Cenozoic Era)

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इस काल की अवधि पाँच छह करोड़ वर्ष आँकी गई है और इसे तृतीय तथा चतुर्थ कल्पों में विभक्त किया गया है। इस महाकल्प में दैत्याकार सरीसृपों का अंत हो चुका था और आधुनिक जंतुओं के पूर्वजों का अवतरण आरंभ होने लगा था।

तृतीय कल्प

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इस कल्प को पाँच युगों में विभक्त किया गया है, पुरानूतन (Palaeocene), आदिनूतन (Eocene), अल्पनूतन (Oligocene) मध्यनूतन (Miocene) तथा अतिनूतन (Pliocene)।

पुरानूतन युग (Palaeocene Epoch)
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तृतीय कल्प का यह प्राचीनतम युग है, जिसमें मुख्य रूप से स्तनपायी जंतुओं के आदम पूर्वज विकसित हो रहे थे। तत्कालीन जंतुओं को प्राणिशास्त्रियों ने यद्यपि कीटभक्षी, मांसभक्षी अथवा प्राइमेट वर्गों में वर्गीकृत किया है, तथापि आज कल के किन्हीं वर्गों के जंतुओं से वे सर्वथा भिन्न प्रतीत होते हैं। इन आदिम पूर्वजों में से अधिकतर अब लुप्त हो चुके हैं।

आदिनूतन युग (Eocene Epoch)
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इस युग के जंतु भी पुरानूतन युगीन जंतुओं की भाँति उत्तरी अमरीका में ही अधिकतर प्राप्त हुए। यूराप में कुछ काल बाद स्विटज़रलैंड तथा फ्रांस और बेल्जियम में भी कुछ प्रमाण प्राप्त हुए। इस युक की विशेषता खुरदार जंतुओं की उत्पत्ति है। मध्ययुग में चमगादड़ भी अपना दर्शन देने लगते हैं। उत्तर युग आते-आते कुत्ते, बिल्लियों आदि के कुलों के पुर्वज भी प्रकट होने लगते हैं। इसी समय दरियायी घोड़ों, टेपियरों, घोडों आदि के भी आदिम प्रमाण प्राप्त हो जाते हैं।

अल्पनूतन युग (Oligoncene Epoch)
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इस युग के जीवाश्म यूरोप, एशिया, अमरीका आदि अनेक महाद्वीपों में प्राप्त हुए हैं। मंगोलिया, दक्षिण डकोटा (उत्तरी अमरीका), पैटोगोनिया (दक्षिणी अमरीका) मुख्य क्षेत्र बतलाए गए हैं। एक तिहाई से भी कम स्थलीय स्तनपायी जंतुओं का पता इस युग में लगा है। कारण यह है कि अधिकतर जंतुकुलों का लोप भी होता गया। उत्तर युग में अपोज़म, बीवर, क्रियोडोंट, फ़िसीपीड आदि भी पाए गए हैं। मस्टेलिड तथा फ़ीलिड, समूहों की प्रचुरता थी। टेपियर, राइनोसिरस, आर्टिओडैक्टाइल आदि भी काफी प्राप्त हुए हैं।

मध्यनूतन युग (Miocene Epoch)
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इस युग का विस्तार बहुत लंबा है और फ्रांस, जर्मनी आदि में बहुत से जीवाश्म मिले हैं। इस युग के जंतु अति आधुनिक हैं। बहुत से प्राचीन कुल लुप्त हो गए और उनके स्थान पर नए कुल विकसित हो रहे थे। मस्टेलिड, फ़ीलिड, सिवेट, हायना, रोडेंट आदि सुधरे रूपों में दिखलाई देते हैं। यूरापे में गिबन के पूर्वजों का आभास मिलता है। बाद में इसका क्षेत्र अफ्रीका हो गया। घोड़ों, ऊँटों के भी पूर्वजों का कुछ संकेत इस युग में मिलने लगता है।

अतिनूतन युग (Pliocene Epoch)
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इस युग के अवशेष अधिकतर भूमध्यसागरीय क्षेत्रों तथा पूर्वी और मध्य यूरापे से प्राप्त हुए हैं। चीन के शांसी प्रदेश तथा भारत में शिवालिक पर्वत के आसपास भी इस युग के कुछ अवशेष मिले हैं। उत्तरी और दक्षिणी अमरीका में भी टेक्सास, न्यू मेक्सिको, कैसास, अर्जेंटाइना आदि क्षेत्रों के अवशेष इसी युग के हैं। आधुनिक जंतुकुलों (Families) के वास्तविक प्रपितामहों का विकास होने लगा था और पुराने अंगुलेट कुल लुप्त होते जा रहे थे। तेंदुआ, मृग, सूअर, जिराफ, आदिम हाथी आदि के जीवाश्म इस युग में प्रचुर संख्या में मिले हैं। ऊँटों के कई रूप भी दर्शनीय हैं और अनेक प्रकार के घोड़े भी दिखलाई देते हैं। स्पर्म ह्वेल मछलियाँ सागरों में विचरण करने लगी थीं।

चतुर्थ कल्प

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इस कल्प के दो युग हैं : अत्यंत नूतन तथा नूतन।

अत्यंत नूतन युग (Pleistocene Epoch)
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इस युग को उत्तरी क्षेत्रों का हिम युग (Ice Age) कहा जाता है। भौगोलिक दृष्टि से ध्रुव, समशीतोष्ण तथा उष्ण कटिबंध अलग हो चुके थे, तथापि उनमें सीमांकन करना कठिन था। पूर्व युगों के जंतुओं का धीरे-धीरे लोप होता जा रहा था और उनके स्थान पर नए-नए प्राणी विकसित होने लगे थे। आस्ट्रेलिया में बड़े-बड़े कंगारू तथा ऑर्निथोरिंकस धीरे-धीरे कम होते जा रहे थे। इस युग में लगभग वे सभी जंतु दिखलाई देते हैं, जो आज वर्तमान हैं। शीत, उष्ण तथा समशीतोष्ण कटिबंधों के जंतुओं का अंतर स्पष्ट हो चला था। मानव की उत्पत्ति इस युग में हुई या नहीं, यह एक विवाद का प्रश्न है।

नूतन युग (Holocene Epoch)
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इस युग की उल्लेखनीय विशेषता मनुष्य की उत्पत्ति है। इसके पूर्व युग के दैत्याकार जंतु लुप्तप्राय हो चले थे और उनके स्थान सुडौल शरीरधारी आते जा रहे थे।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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