सिरिभूवलय
सिरिभूवलय एक विलक्षण काव्य ग्रन्थ है जो संख्या लिपि में रचित है अर्थात इसमें अक्षरों के स्थान पर अंकों उपयोग किया गया है। इस ग्रंथ की रचना सातवीं शताब्दी के लगभग कुमुदेन्दु सूरि ने की थी। इस ग्रंथ में मूल विज्ञान विषय, दर्शन का तात्विक विचार, वैद्यक, अणु विज्ञान, खगोलशास्त्र, गणित शास्त्र, इतिहास और संस्कृति विवरण, वेद, भगवद्गीता के अवतरण सभी समाहित हैं।
लगभग एक हजार वर्ष तक यह ग्रन्थ अज्ञात था ।[1] इसको संग्रहित व संपादित करने के लिए तीन महानुभव पंडित यलप्पा शास्त्री, कर्ल मंगलम् श्री कंठैय्या और के० अनन्त सुब्बाराव ने अथक प्रयास किया। वर्ष 2003 में यह अंक काव्य ग्रंथ कन्नड लिपि में प्रकाशित किया गया।
सिरि भूवलय में कुल २६ अध्याय हैं जिनमें से केवल ३ अध्याय ही अभी तक विकूटित (डिकोड) किये जा सके हैं। इस ग्रंथ में 64 वर्णमाला हैं जो ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत आदि ध्वनियों में विभक्त हैं। सिरिभूवलय के अनुसार 27 स्वर, 33 व्यंजन और 4 आयोगवाह हैं। कुल मिला कर 64 ध्वनियाँ या स्वनिम हैं। ऐसा अनुमान है कि इसमें ६ लाख पद्य हैं और इस दृष्टि से इसका आकार महाभारत से ६ गुना ब्ड़ा है।
परन्तु यह परिचित रीति ग्रंथ नहीं है। अर्थात् किसी एक भाषा के वर्णमाला के वर्णों का प्रयोग कर तैयार किए गए शब्दों में लिपिबद्ध रूप का गद्य-पद्य-निबंध ग्रंथ नहीं है। गणित में प्रयोग किए जाने वाली संख्याओं का प्रयोग कर तैयार किया गया ग्रंथ है। अंकों को अक्षरों के स्थान पर उनके प्रतिनिधि तथा प्रतिरूप के रूप में उपयोग करना ही इसका वैशिष्टय और वैलक्षण है। संस्कृत-प्राकृत और कन्नड भाषा के लिए समान रूप से संबंधित संप्रदाय रूप प्राप्त 64 मूल वर्णों को 1 से लेकर 64 तक के अंक प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रत्येक अक्षरों के लिए उपयुक्त अंकों को चौकोर खानों में (27 x 27 = 729) भरे गए अंक राशिचक्र ही इस ग्रंथ के पृष्ठ हैं। कवि इसे अंक काव्य कहकर संबोधित करते हैं। अंक काव्य होने पर भी इसमें 718 भाषाएं निहित हैं, ऐसा कवि का कहना है। कुमुदेंदु की स्व-हस्ताक्षर प्रति उपलब्ध नहीं है।