सलाउद्दीन
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सुल्तान सलाउद्दीन अय्यूबी अंग्रेजी An-Nasir Salah ad-Din Yusuf ibn Ayyub (अरबी सलाउद्दीन युसुफ इब्न अय्युब) जन्म: 1138[1], निधन 4 मार्च 1193 बारहवीं शताब्दी का एक कुर्द मुस्लिम योद्धा थे, जो समकालीन उत्तरी इराक के रहने वाले थे।उस समय के देश (शाम) सीरिया और मिस्त्र के शासक थे सीरिया और मिस्त्र के सुल्तान नुरुद्दीन जंगी की मृत्यु के बाद उसके दो भाई शासन करने लगे ,लेकिन जब एक के बाद एक दोनों भाइयो की मृत्यु हो गई तो अब नुरुद्दीन जंगी का सबसे वफ़ादार और करीबी सलाउद्दीन को शासक बनाया गया। सलाउद्दीन ने 1187 में जब येरुशलम पर विजय प्राप्त करी तो पोप के आह्वान पर इंग्लैंड का बादशाह रिचर्ड दा लाइन हार्ट (Richard the Lionheart) फ्रांस का बादशाह और जर्मनी का बादशाह फ्रेडरिक (Frederick Barbarossa) की सेना ने हमला किया लेकिन सलुद्दीन ने अलग अलग युद्धों में फ्रेडरिक की सेनाओ को पराजित किया। वह जितना बड़ा योद्धा थे, उतना ही बड़ा और कुशल शासक थे।इसके साथ ही न्यायप्रिय और रहम दिल भी थे।यही कारण है कि यूरोप के इतिहासकार भी उनके सम्मान और महानता में प्रशंसा करते है।एक बार जब इंग्लैंड के शासक रिचर्ड ने मुसलमानों से अकरा का किला जीत लिया और मुस्लिम सेना ने किले को घेर लिया और युद्ध आरंभ हो गया ,उसी समय रिचर्ड बीमार पड़ गया और कोई अच्छा हकीम (वैद्य)नहीं मिल रहा था ,तब सलाउद्दीन ने अपना हकीम को दवाइयों के साथ रिचर्ड के पास भेजा और उसका इलाज करवाया। इस्लामी इतिहासकार तो यह तक कह देते हैं कि इस्लामी रशीदुन खलीफाओँ के बाद इतना कुशल शासक चरित्रवान और योद्धा कोई नहीं हुआ। बारहवीं सदी के अंत में उनके अभियानों के बाद ईसाई-मुस्लिम द्वंद्व में एक निर्णायक मोड़ आया और जेरुशलम के आसपास कब्जा करने आए यूरोपी ईसाईयों का सफाया हो गया। क्रूसेड युध्दो में ईसाईयों को हराने के बावजूद उनकी यूरोप में छवि एक कुशल योद्धा तथा विनम्र सैनिक की तरह है। सन् १८९८ में जर्मनी के राजा विलहेल्म द्वितीय ने सलाउद्दीन की कब्र को सजाने के लिए पैसे भी दिए थे। उनकी मृत्यु के समय उनके पास कुछ दिरहम मात्र ही थे उनकी आखिरी इच्छा थी के वो हज कर सके लेकिन उनके पास इतने पैसे नहीं थे के वो हज कर सके ,क्योंकि वह अपनी आय को लोगो की भलाई के लिए खर्च कर देते थे। उनकी मृत्यु के समय क्रिया-कर्म भी उनके मित्रो ने मिलके करवाया। सलाउद्दीन की प्रसिद्धी इस बात से की जा सकती है कि फिलिस्तीन में बच्चे उनके शोर्य का गान करते हूए कहते हैं -
सलाउद्दीन अय्यूब /Salahddin Ayyub | |||||
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मिस्त्र तथा सीरिया के सूल्तान | |||||
शासनावधि | 1174 - 4 मार्च 1193 | ||||
राज्याभिषेक | काहिरा | ||||
पूर्ववर्ती | नया शासन | ||||
उत्तरवर्ती | अता अजीज उस्मान, (मिस्त्र) | ||||
जन्म | 1137 ईस्वी तिकरीत उच्च मेसोपोटामिया, अब्बासी ख़िलाफ़त | ||||
निधन | 4 मार्च 1193 ईस्वी दमिश्क, सीरिया | ||||
इश्मतद्दीन खातून | |||||
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पिता | नजमउद्दीन अय्यूब | ||||
धर्म | इस्लाम |
" नाह नू उल मुसलमीन ,कुल्लू नस सलाउद्दीन" इसका अर्थ है कि हम मुसलमानों के बेटे है और हममे सब सलाउद्दीन है।
दास्तान ईमान फ़रोशों की "फ़ातेह बैतुल मुक़द्दस सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी" पुस्तक में उन पर हमले का ज़िक्र:
संपादित करेंसलाहउद्दीन अय्यूबी पर उनके मुहाफ़िज़ों की मोजूदगी में उस पर हमला न किया जा सकता था। दो हमले नाकाम हो चुके थे, अब जबके सलाहुद्दीन अय्यूबी को ये तवक़्क़ो (उम्मीद) थी के उनका चचा ज़ाद भाई अल सालेह, अमीर सैफुद्दीन शिकस्त खाकर तौबा कर चुके होंगे उन्होने इन्तक़ाम की एक और ज़ैर ए ज़मीन कोशिश की।
सलाहुद्दीन अय्यूबी ने इस फ़तह का जश्न मनाने की बजाय हमले जारी रखे और तीन क़स्बों को क़ब्ज़े में ले लिया, इनमें ग़ज़ा का मशहूर क़स्बा भी था।उसी क़स्बे के गिर्द ओ निवाह (आस पास)में एक रोज़ सलाहुद्दीन अय्यूबी अमीर जावा अल असदी के खेमें में दोपहर के वक़्त ग़ुनूदगी के आलम में सुस्ता रहे थे। उन्होंने अपनी वो पगड़ी नहीं उतारी थी जो मैदान ए जंग में उनके सर को सहरा के सूरज और दुश्मन की तलवार से महफ़ूज़ रखती थी।
खेमें के बाहर उनके मुहाफ़िज़ों का दस्ता मौजूद और चौकस था। बाडी गार्ड्स के इस दस्ते का कमांडर ज़रा सी देर के लिए वहां से चला गया। एक मुहाफ़िज़ ने सलाहुद्दीन अय्यूबी के खेमें के गिरे हुए पर्दों में से झांका। इस्लाम की अज़मत के पासबान की आंखें बंद थीं, वो पीठ के बल लेटा हुआ था। उस मुहाफ़िज़ ने बाडी गार्ड्स की तरफ देखा, उनमें से तीन चार बाडी गार्ड्स ने उसकी तरफ देखा। मुहाफ़िज़ ने अपनी आंखें बंद करके खोलीं। तीन चार मुहाफ़िज़ उठे और दूसरों को बातों में लगा लिया। मुहाफ़िज़ खेमें में चला गया, कमर बंद से खंजर निकाला दबे पाँव चला और फिर चीते की तरह सोए हुए सलाहुद्दीन अय्यूबी पर जस्त (छलांग) लगाई। ख़ंजर वाला हाथ ऊपर उठा, ठीक उसी वक़्त सलाहुद्दीन अय्यूबी ने करवट बदली। ये नहीं बताया जा सकता कि मुहाफ़िज़ खंजर कहां मारना चाहता था, दिल में या सीने में मगर हुआ यूं के खंजर सलाहुद्दीन अय्यूबी की पगड़ी के बालाई हिस्से में उतर गया और सर से बाल बराबर दूर रहा। पगड़ी सर से उतर गई। सलाहुद्दीन अय्यूबी बिजली की तेज़ी से उठा। उसे ये समझने में देर न लगी के ये सब क्या है। उस पर इस से पहले ऐसे दो हमले हो चुके थे। उसने इस पर भी हैरत का इज़हार न किया के हमलावर उसके अपने बाडी गार्ड्स के लिबास में था जिसे उसने ख़ुद अपने बाडी गार्ड्स के लिये मुन्तख़ब किया (चुना) था। उसने साँस जितना अरसा (समय) भी ज़ाया न किया। हमलावर उसकी पगड़ी से खंजर खींच रहा था।
अय्यूबी सर से नंगा था, उसने हमलावर की थुड्डी पर पूरी ताक़त से घूंसा मारा, हड्डी टूटने की आवाज़ सुनाई दी। हमलावर का जबड़ा टूट गया था। वो पीछे को गिरा और उसके मुँह से हैबतनाक आवाज़ निकली। उसका खंजर सलाहुद्दीन अय्यूबी की पगड़ी में रह गया था। सलाहुद्दीन अय्यूबी ने अपना खंजर निकाल लिया। इतने में दो मुहाफ़िज़ दौड़ते अंदर आये। उनके हाथों में तलवारें थीं।
सलाहुद्दीन अय्यूबी ने उन्हें कहा के इसे ज़िन्दा पकड़ लो मगर ये दोनों मुहाफ़िज़ सलाहुद्दीन अय्यूबी पर टूट पड़े। सलाहुद्दीन अय्यूबी ने खंजर से दो तलवारों का मुक़ाबला किया मगर ये मुक़ाबला एक दो मिनट का था क्योंकि तमाम बाडी गार्ड्स अंदर आ गये थे। अय्यूबी ये देख कर हैरान रह गया के उसके बाडी गार्ड्स दो हिस्सो में तक़सीम होकर एक दूसरे को लहु लुहान कर रहे थे। इसे क्योकि मालूम नहीं था कि इनमें इसका दुश्मन कौन और दोस्त कौन है, वो इस मोरके (लड़ाई) में शरीक न हो सका। कुछ देर बाद जब बाडी गार्ड्स में से चंद एक मारे गये, कुछ भाग गये और बाज़ ज़ख़्मी होकर बेहाल हो गये तो इन्केशाफ़ हुआ (राज़ खुला), के इस दस्ते में जो सलाहुद्दीन अय्यूबी की हिफ़ाज़त पर मामूर था, सात मुहाफ़िज़ फ़िदाई थे जो सलाहुद्दीन अय्यूबी को खत्म करना चाहते थे।
उन्होंने इस काम के लिये सिर्फ एक फ़िदाई खैमें में भेजा था, अंदर सूरत ए हाल बदल गयी चुनाचे बाक़ी भी अंदर चले गये। छ: असल मुहाफ़िज़ भी अंदर गये। वो सूरत ए हाल समझ गये और सलाहुद्दीन अय्यूबी बच गया। उसने अपने पहले हमलावर की शह रग पर तलवार की नोंक रख कर पूछा के वो कौन है और उसे किसने भेजा है। सच बोलने के बदले सलाहुद्दीन अय्यूबी ने उसे जान बक़्शी का वादा दिया। उसने बता दिया कि वो फ़िदाई है और उसे कैमेश्तकिन जिसे बाज़ मोअर्रिख़ों (इतिहासकारों) ने गोमश्तगीन लिखा है ने इस काम के लिए भेजा था। कैमेश्तकिन अल सालेह के एक क़िले का गवर्नर था।