सदस्य:Pankaj swami dadupanthi/प्रयोगपृष्ठ

*संत शिरोमणि श्री दादू दयाल जी महाराज के प्रथम शिष्य योगिराज बाबा सुंदर दास जी महाराज (बड़े)*

*संक्षिप्त परिचय:–*

*बाबा सुंदर दास जी महाराज*

*16वी सदी के महान संत श्री दादू दयाल जी महाराज के प्रथम शिष्य*

*दादूपंथ के चिंरजीवी (अजर अमर) संत बाबा सुंदर दास*

*दादू पंथ की सभी जमातो का प्रादुर्भाव  इन्ही से हुआ*

*नागा साधुओं की फौज के संस्थापक*

*पूर्वआश्रम में बीकानेर के राजघराने के राजकुमार*

*शेखावाटी के करीब आधा दर्जन गांवों में लगाता है बाबा का लक्खी मेला*

*महान संत श्री दादूदयाल जी महाराज के प्रथम चिरंजीवी शिष्य योगेश्वर बाबा सवाई श्री सुन्दर दास जी (बड़े) महाराज* *हुए, आप पूर्व जन्म के ही साधक थे। तपस्या अधूरी रहने के कारण पुनः अवतरित हुए और समय पाकर पूर्व स्मृति जागृत हुई, पुनः ब्रह्म की साधना में लग गये और जीवन मुक्त होकर दादू जी महाराज के आशीर्वाद से अमर हो गये।*

*शेखावाटी के कई स्थानों पर भाद्र पद शुक्ल पक्ष एकादशी से पूर्णिमा होता है  विशाल मेलो का आयोजन*

खेतड़ी के पास पपरना बबाई गाडराटा, उदयपुर वाटी खंडेला के पास गुरारा, बामरडा केरपुरा, बराल, नीम का थाना के सराय आदि कई स्थानों पर एकादशी से पूर्णिमा (विशेष त्रियोदशी व चतुर्दशी )तक बाबा सुंदर दास जी  का मेला लगता है, मान्यता है की बाबा के नाम की ताती बांधने से किसी भी प्रकार के दर्द (कान आदि, व सर्प दंश, गांठ, पशुओं की बीमारी )में आराम आ जाता है,बाबा के मंदिर में जात, जडूले,भंडारे आदि कई कार्यक्रम होते है , बाबा के चमत्कार के खूब पर्चे है।

*बाबा सुन्दरदास जी से ही दादू पंथ की  नागा फोज और सभी दादू पंथ की जमातो का प्रादुर्भाव हुआ।*

जब बाबा सुंदर दास जी ने दादू जी महाराज से दीक्षा ली तब सुंदर दास जी ने सब कुछ त्याग देने के बाद क्षत्रिय राजघराने से होने के नाते सिर्फ एक वस्त्र और पांच शस्त्र, धर्म की रक्षा के लिए रखने का निर्णय लिया। तभी से दादू पंथ के नागा संस्थापक भी बाबा सुंदर दास जी कहलाए।

बाबा सुंदर दास जी के सुशिष्य कुल पुरोहित प्रहलाद दास जी, प्रहलाद दास जी के नो शिष्य जिनमे हरिदास जी (हाप्पा जी) थे, इनके शिष्यों में तीन प्रणालियां चली श्याम दास जी, उधोदास जी व भक्तमाल रचनाकार राघोदास जी थे।

*बड़े सुन्दरदासजी का पूर्वाश्रम का नाम भीमराज था।* बीकानेर के राजा जैतसिंह का विवाह अमरकोट के राजा जैतपाल की पुत्री कश्मीरदे से हुआ था। कश्मीरदे के जैतसिंह के पांच पुत्र हुये थे- 1. कल्याणमल 2. भीमराज 3. ठाकुरसी 4. मालदेव 5. कान्हा। इनमें द्वितीय पुत्र  भीमराज आगे चलकर सुन्दर दास के नाम से दादू जी के शिष्य हुए।

*भीमराज का जन्म* वि. स. १५७९ फागुण सुदि २ गुरुवार को हुआ था।

*भीमराज का विवाह*

भीमराज जब युवा हुये तब उनकी वीरता तथा सुन्दरता की ख्याति दूर दूर उनके विवाह के लिये अनेक राजवंशों ने वार्ता की तक फैल गई थी। इससे किन्तु भीमराज का विचार भगवद् भक्ति करने का था अतः वे विवाह नहीं करना चाहते थे। अंत में माता-पिता के आग्रह से उन्हें विवाह करना स्वीकार करना ही पड़ा। फिर महाराणा उदयसिंह की छोटी बहिन राजकुमारी  के साथ भीमराज का विवाह वि.सं. १५९८ में हो गया। राजकु'वरी से भीमराज के एक पुत्र हुधा जिसका नाम नारायणदास था।

*काबुल का युद्ध*

जोधपुर नरेश मालवदेव ने बीकानेर पर आक्रमण कर दिया था। उस युद्ध में भीमराज के पिता जैतसिंह की मृत्यु हो गई तथा बीकानेर मालवदेव के अधिकार में आ गया। सब सरदारों ने जैतसिंह के परिवार को कल्याणमल और भीमराज के साथ सुरक्षित सिरसा में पहुँचा दिया । मालवदेव बीकानेर का प्रबन्ध सरदार हूं'पा और पचायण को देकर मेड़ता चला गया। इधर सिरसा से भीमराज मंत्री नगराज के साथ दिल्ली में शेरशाह के पास गया। मालवदेव ने वीरमदेव से मेड़ता छीन लिया तब वीरमदेव भी कल्याणमल के पास सिरसा होता हुआ भीमराज के पास दिल्ली चला आया । फिर भीमराज और वीरमदेव की सहायता के लिये शेरशाह ने एक विशाल सेना लेकर उन दोनों के साथ मालवदेव पर चढ़ाई की। मार्ग में कल्याणमल भी मिल गये ।

इनकी विशाल शक्ति जानकर मालवदेव ने कूपा के पास सूचना भेजी कि-बीकानेर के गढ़ को खाली करके तुरन्त चले आओ । तब वह गढ़ को खाली करके जोधपुर चला गया। भीमराज ने अपने चाचा रावत किशनसिंह की सहायता से बीकानेर के गढ़ पर अधिकार करके अपने भाई कल्याणमल की दुहाई फेर दी। उक्त प्रकार भीमराज ने बीकानेर के गये हुये राज्य पर अपने भाई का पुनः अधिकार कराया। इससे कल्याणमल ने भीमराज को वि. सं. १६०२ में भीमसर की जागीर और "गई भूमि रो बाहुड़" का नाम देकर सम्मानित किया। भीमराज की वीरता से प्रभावित होकर अकबर बादशाह ने भीमराज और चिन्दाणीपुर के राजा चन्द्रसेन को सैन्यदल के साथ काबुल के मिर्जा हाकिम (अकबर का सौतेला भाई)को जय करने के लिये भेजा था। भीमराज ने बड़ी वीरता से युद्ध करके मिर्जा हाकिम को हराया किन्तु युद्ध में वे स्वयं भी घायल होकर गिर पड़े और मूच्छित हो गये थे। जब मिर्जा अपने दल सहित इनसे सन्धि करने जा रहा था, तब भीमराज के सैनिकों ने समझा कि मिर्जा हाकिम पुनः आक्रमण करने के लिये आ रहा है। अतः वे भीमराज को मृत समझ कर भाग गये ।

फिर जब चिन्दाणीपुर के सैनिकों को यह ज्ञात हुआ तब वे भीमराज को उठाकर महाराज चन्द्रसेन के हेरे में ले गये। भीमराज को छोड़कर भगे हुये सैनिकों ने भीमराज के घर को उनके बीरगति पाने की सूचना दे दी। फिर जब भीमराज होश में आये तब भीमराज ने काबुल के मिर्जा हाकिम को दिल्लीपति की आधीनता स्वीकार करने की सलाह दी। मिर्जा हाकिम ते भीमराज की सलाह मान ली। फिर एक पक्ष तक चिन्दाणीपुर के राजा- चन्द्रसेन ने भीमराज की सेवा की और अच्छे हो गये तब मार्ग के लिये खर्च, कपड़ा, हथियार और एक घोड़ा देकर घर को भेज दिया। वे बादशाह के पास आये । फिर ये बीकानेर जा रहे थे तब मार्ग में मथुरा में स्नान करने आये।

*भीमराज जी को वैराग्य*

मथूरा में भीमराजजी को अपने राजपुरोहित प्रहलादजी अपने साथियों के साथ मिले । वे भीमराजजी का ही गया श्राद्ध कराकर आये थे। प्रहलादजी ने जब इनको देखा तो उनको अति आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा जिनका मैं गया श्रद्धा करा कर आया हूँ वे तो ये सामने जीवितावस्था में बोथ रहे हैं। फिर उनके मन में संकल्प हुआ कोई और हो सकते हैं।  फिर भी बात करने से ही निर्णय हो पाएगा  । प्रहलादजी पास आये तब भीमराजजी ने उनको प्रणाम किया और पूछा-आप महां कैसे पधारे है ? तब प्रहलादजी का कंठ रुक गया, वे बोल न सके और उनके नेत्रों से अश्रु  टपकने लगे। भीमराजजी ने पूछा- गुरुजी ! ऐसी क्या बात है ? जो आपकी ऐसी स्थिति हो गई है। प्रहलादजी बोले- महाराज। क्या कहूँ कहा नहीं जाता है। भीमराजजी बोले-कहना तो पड़ेगा ही क्यों संकोच करते हो ? कह दो । प्रहलादजी बोले- हमको आपकी वीरगति का समाचार मिला था । इससे महाराणी आपकी कुल परम्परा के अनुसार सती हो गई है और आप के पुत्र नारायणदास को आपकी गद्दी पर बैठा दिया है तथा मैं आपका गया श्राद्ध कराकर लौटा हूं। यहां आते ही आपका दर्शन हुआ है। इससे मुझे हर्ष और दुःख दोनों ने घेर लिया है। हर्ष ती आपके मिलने का है। दुःख महाराणी के सती होने का है। इतना कहकर प्रहलादजी मौन हो गये।

फिर भीमराजजी ने कहा- अच्छा, जो हरि इच्छा होती है, वही होता है। जितने दिन का संस्कार था उतने दिन संयोग रहा, फिर वियोग तो होना ही था। दोनों में से एक तो जाता ही है। आप क्यों दुःखी होते हैं? प्रहलादजी ने कहा- ठीक है महाराज जो होना था सो हो गया, अब राज- धानी को पधारें। घर पर चलकर सबको हर्षित करें। तब भीमराजजी ने कहा- अब घर जाकर क्या करना है? घर तो गृहणी तक ही होता है। अब मैं घर नहीं चलूंगा, अब तो किसी उच्चकोटि के संत की शरण होकर भजन ही करूंगा. आप जाओ।

*प्रहलाद जी को वैराग्य*

भीमराजजी के निश्चय और वैराग्य को देखकर प्रहलादजी को भी वैराग्य हुआ किन्तु उनको एक बार घर जाकर सब समाचार कहना या । अंतः वे घर गये । सब समाचार कहे। तब घर वाले भीमराज को लाने का विचार करने लगे किन्तु प्रहलादजी ने उन्हें यह कर रोक दिया कि  उनके भजन में विघ्न होगा । प्रलादजी के रोकने पर घरवाले उनको लाने व मिलने नहीं गये किन्तु

एक दिन भीमराजजी ने अपने पंडे से पूछा- वहां आसपास में कोई उच्च कोटि का सन्त है क्या ? यदि हो तो उसका परिचय मेरे को दो और उनके पास मेरे को ले चलो। पंडे ने कहा- आजकल वहां निम्बार्क सम्प्रदाय के एक *संत चतुरानागाजी* प्रसिद्ध हैं। ब्रज में वे ही आज- कल सर्वश्रेष्ठ संत माने जाते हैं। इन्ही दिनों में प्रहलादजी भी लौटकर भीम- राज के पास आ गये थे । फिर भीमराजजी ने पंडे को कहा- अब तुम हमको चतुरानागाजी के पास ले चलो। फिर भीमराजजी ने दीक्षा लेने योग्य सामग्री- चादर, प्रसाद, पुष्पादि, पूजा की सभी वस्तुयें मंगवाई और पंडे को साथ लेकर भीमराज तथा प्रहलादजी चतुरानागाजी के पास गये। दर्शन करके दंडवत की और भेंट चढ़ाकर सामने बैठ गये। फिर अवसर देखकर भीमराज बोले- भगवन् मुझे दीक्षागुरु मंत्र देकर कृतार्थ करिये । तब चतुरा- नागाजी ने भीमराजजी की ओर देखा और थोड़ी देर के लिये ध्यानस्य हो गये। फिर ध्यान टूटने पर बोले- आपतो संत प्रवर दादूजी की आत्मा है. आपको मैं शिष्य नहीं बना सकता। दादूजी के पास जाकर उनके शिष्य बनो । भीमराजजी ने पूछा-दादूजी कौन हैं? वे कहां मिलेंगे? चतुरा- नागाजी ने कहा- वे सनक मुनि के अवतार हैं, परमेश्वर की आज्ञा से निर्गुण ब्रह्म की भक्ति का विस्तार करने के लिये बालरूप धारण करके साबरमती नदी में बहते हुये अहमदाबाद के लोधीराम नागर ब्राह्मण को अहमदाबाद के पास मिले थे। उसी ने उनको पालापोषा था। अतः उसी के पौष्य पुत्र है। वे अब करडाला ग्राम के पर्वत से सांभर आने वाले हैं। तुमको उनका दर्शन सांभर में ही होगा।

सांभर में दादूजी का दर्शन करके दोनों अति प्रसन्न हुये। दोनों ने साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और हाथ जोड़कर दोनों सामने बैठ गये। दादू जी ने पूछा- आप लोग कहाँ से आये हैं ? तव भीमराजजी ने अपनी कथा सुनाकर कहा- ये मेरे पुरोहित हैं। मैं वृन्दावन में चतुरा- नागाजी का शिष्य होने गया था। उन्होंने मुझे शिष्य न बनाकर आप का शिष्य होने की आज्ञा दी और कहा- वे सांभर में आने वाले हैं, तुमको उनका दर्शन सांभर में होगा। फिर हम दोनों वृन्दावन से झाकर विराट नगर के पर्वत की गुफा में एक वर्ष रहे। वहां आपके पद भी एक सज्जन ने सुनाये और आपका पता भी दिया कि वे सांभर में पधार गये हैं। तव हम दोनों ही आपकी शरण आये हैं। अब आप हम लोगों पर कृपा करें।

दादूजी ने कहा- क्या कृपा चाहते हैं ? भीमराज हाथ जोड़ कर बोले- मुझे अपना शिष्य बनाकर कृतार्थ कीजिये । दादूजी ने कहा- आप तो राज-परिवार में पले हुये हैं, साधु धर्मका निर्वाह आपसे कैसे हो सकेगा ?

"दादू मारग साधु का, खरा दूहेला जान । जीवत-मृतक हो चले, राम नाम नीशान ।। दादू मारग कठिन है, जीवत चले न कोय । सोई चल है बापरा, जोवत मृतक होय ।। कायर काम न आव ही, यह शूरे का खेत । तन मन सौंपे रामको, दादू शीश सहेत । मन ताजी चेतन चढ़, ल्यौ की करे लगाम । शब्द गुरु का ताजणा, कोइ पहुँचे साधु सुजान ।।"

ये शब्द सुनकर भी भीमराजजी ने कहा- यह सब तो आपकी कृपा से हो जायगा, आप तो मुझे शिष्य रूप से अपनाइये ।

भीमराज को शिष्य करना, सुन्दरदास नाम देना फिर परमेश्वर ने दादूजी को प्रेरणा दी-तुम इनको शिष्य बनालों।

उच्चकोटि के संत हो जायेंगे। अन्य को भी जिसको शिष्य करोगे, वह अच्छा ही संत बनेगा  । शिष्यों द्वारा ही निर्गुण भक्ति का प्रचार होगा। *उक्त ईश्वर की आज्ञा सुनकर दादूजी ने भीमराज को वि. सं. १६२६ फाल्गुण शुक्ला अष्टमी गुरुवार को गुरुमंत्र देकर शिष्य बनाया और सुन्दरदास नाम प्रदान किया*।

कहा भी है-

"फागुन सुदि गुरु अष्टमी, सौलह से छः बीस ।

दादू शिष्य सुन्दर भये, भेष वाक्य जगदीश ।

फिर गुरुदेव दादूजी ने शिष्य सुन्दरदासजी को अपनी निर्गुण भक्ति की पद्धति बताई और निष्काम भाव से भजन करने का आदेश दिया। फिर सुन्दरदासजी गुरु प्रदत्त साधना में संलग्न हो गये और आगे चलकर बड़े *सुन्दरदासजी के नाम से दादू पंथ में प्रसिद्ध हुये*। बाबा सुंदर दास जी ने कई स्थानों पर एकांत तपस्या की सांभर में करीब एक वर्ष बाद भैरान्ना, द्वंदपुरी, अलवर के पास घाटडा,  घाटडा में कुल पुरोहित प्रहलाद दास जी को छोड़ कर हिमालय की तरफ अचलागिरी,शेखावाटी के कुछ स्थान मुख्य है,आज भी मान्यता है की जहा भी दादू वाणी जी के पाठ होते है वहा बाबा सूक्ष्म रूप से आते है,इन्हे अमरता का वरदान दादू जी महाराज से मिला हुआ है, व किसी पुण्य आत्मा को ही दर्शन देते है। नरैणा व झुंझुनूं जिले के गाड़राटा में बाबा के प्रकट होने के कई किस्से है।

गुरु दादू बड़ शिष्य भयो, लघु नृप बीकानेर को ।।

बादशाह कर हुकुम, पठायों काबुल जाई।

बुध कर घावां पड्यो, समझ किन लियो उठाई ।।

ताजा' हो राठोड तुरी चढ़ मथुरा प्राया। मिल्यो देश को लोग, सती समचार सुनाया ।।

राघव, मिल चतुरे कहा, मग ले सांभर शहर को।

गुरु दादू बड़ शिष भयो, लघु नृप बीकानेर को ।।

ऐसे वीर महान संतो को कोटि कोटि नमन

सादर सत्यराम🙏

Ps दादूपंथी✍️