वेदमंत्रों के उच्चारण-प्रकार
वेद को अपौरुषेय कहा गया है, अर्थात जिसकी रचना किसी पुरुष ने नहीं की. इसलिए इस ज्ञानराशि का एक-एक अक्षर अपरिवर्तनीय है। वेद (ऋक्, यजु, साम और अथर्व में विभक्त 4 वेद) के मूल पाठ यथावत् सुरक्षित रहें, उनमें कभी कोई मिलावट न हो सके और न ही कोई अंश लुप्त हो जाए, इसके लिए बहुत प्रारम्भ से ही ऋषियों ने इसकी पाठ-विधि का निर्धारण किया। इनमें 3 प्रकृतिपाठ और 8 विकृतिपाठ हैं. 1. संहितापाठ, 2. पदपाठ तथा 3. क्रमपाठ— ये तीन प्रकृतिपाठ हैं और 1. जटा, 2. माला, 3. शिखा, 4. रेखा, 5. ध्वज, 6. दण्ड, 7. रथ और 8. घन— ये 8 विकृतिपाठ हैं। इन विविध पाठों के द्वारा वेदमंत्रों को नाना प्रकार से कंठस्थ करने के कारण ही वेद सृष्टि के प्रारम्भ से आजतक यथावत सुरक्षित हैं। उनमें एक अक्षर तो क्या, एक मात्रा का भी परिवर्तन नहीं हुआ है। सम्पूर्ण विश्व में ऐसी कोई उच्चारण-परम्परा ढूँढने से भी प्राप्त नहीं होती।
प्रकृतिपाठ
संपादित करेंइस लेख में हम 3 प्रकार के प्रकृतिपाठ के बारे में जानेंगे। 1. संहितापाठ, 2. पदपाठ तथा 3. क्रमपाठ— ये तीन प्रकृतिपाठ हैं। ‘मधुशिक्षा’ नामक ग्रन्थ के अनुसार सर्वप्रथम परमेश्वर ने ही वेदसंहिता का दर्शन किया तथा उन्होंने इसका उपदेश किया। इसी प्रकार पदपाठ के आद्य द्रष्टा रावण और क्रमपाठ के बाभ्रव्य ऋषि हैं-
भगवान् संहितां प्राह पदपाठं तु रावणः।
बाभ्रव्यर्षि क्रमं प्राह जटां व्याडिरवोचत्॥
प्रत्येक शाखा के पृथक् पदपाठ के ऋषि भी उल्लिखित हैं, यथा : ऋग्वेद की शाकलशाखा के शाकल्य, यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के आत्रेय तथा सामवेद की कौथुमशाखा के गार्ग्य ऋषि पदपाठ के द्रष्टा हैं।
संहितापाठ
संपादित करेंइस लेख में हम वेदों के ‘संहितापाठ’ के बारे में जानेंगे। वेदवाणी का प्रथम पाठ, जो गुरुओं की परम्परा से अध्ययनीय है और जिसमें वर्णों तथा पदों की एकश्वासरूपता अर्थात अत्यंत सानिध्य के लिए सम्प्रदायानुगत सन्धियों तथा अवसान (निष्चित स्थलों पर विराम) से युक्त एवम् 1. उदात्त, 2. अनुदात्त तथा 3. स्वरित— इन तीन स्वरों में अपरिवर्तनीयता से पठनीय वेदपाठ को ‘संहिता’ कहते हैं। इसका स्वरूप है—
गुरुक्रमेणाध्येतव्यः ससन्धिः सावसानकः।
त्रिस्वरो परिवत्र्यष्च पाठ आद्यस्तु संहिता॥
यह संहिता नामक वेदपाठ पुण्यप्रदा यमुना नदी का स्वरूप है तथा संहितापाठ से यमुना के स्नान का फल मिलता है— कालिन्दी संहिता श्रेया। (याज्ञवल्क्यशिक्षा)।
ऋषियों ने मन्त्रों के संहितारूप वेदपाठ का ही दर्शन किया और यज्ञ, देवता-स्तुति आदि कार्यों में वेद के संहितापाठ का ही प्रयोग किया जाता है।
पदपाठ
संपादित करेंइस लेख में हम वेदों के ‘पदपाठ’ के बारे में जानेंगे। वेदमंत्रों का सस्वर पाठ ‘पदपाठ’ कहा जाता है। वेद की संहितापाठ की परम्परा के अनुसार स्वरवर्णों की सन्धि का विच्छेद करके वैदिक मन्त्रों का सस्वर पाठ पदपाठ कहा जाता है। स्वर के सम्बन्ध के अनुसार पद के ग्यारह प्रकार होते हैं। शिक्षा-ग्रन्थों में कहा गया है— नव पदशय्या एकादश पदभक्तयः।
वेदमन्त्रों का पदपाठ पुण्यप्रदा सरस्वती देवनदी का स्वरूप है। पदपाठ करने से सरस्वती के स्नान का फल प्राप्त होता है— पदमुक्ता सरस्वती (याज्ञवल्क्यशिक्षा)।
तैत्तिरीय आदि अनेक शाखाओं में संहिता के प्रत्येक पद का पद पाठ में साम्प्रदायिक उच्चारण है। ऋग्वेद में भिन्न पदगर्भित पदों में अनानुपूर्वी संहिता को स्पष्ट पदस्वरूप देकर पढ़ा जाता है। शुक्लयजुर्वेद की शाखाओं में प्रातिशाख्य के नियमों के अनुसार एकाधिक बार आए हुए विशेष पदों को पदपाठ में विलुप्त कर दिया जाता है। शास्त्रीय परिभाषा में ऐसे विलुप्त पदों को ‘गलत्पद’ और ऐसे स्थल के पाठ को ‘संक्रम’ कहा जाता है।
पदपाठ में प्रत्येक पद को अलग करने के साथ यदि कोई पद दो पदों के समास से बना हो, तो उसे माध्यान्दिनीय शाखा में ‘इतिकरण’ के साथ दोहरा करके स्पष्ट किया जाता है। प्रातिशाख्य के नियमों के अनुसार कतिपय विभक्तियों में तथा वैदिक लोप, आगम, वर्णविकार, प्रकृतिभाव आदि में भी ‘इतिकरण’ के साथ पद का मूल स्वरूप स्पष्ट किया जाता है।
पदपाठ में स्वर वर्णों की सन्धि का विच्छेद तथा अवग्रह आदि विशेष विधियों के प्रभाव से यह पाठ, संहिता से भी अधिक कठिन हो जाता है। इन नियमों के कारण ही यह पदच्छेद नहीं है, किन्तु पदपाठ कहा जाता है।
क्रमपाठ
संपादित करेंविकृतिपाठ
संपादित करेंइस लेख में हम 8 प्रकार के विकृतिपाठ के बारे में जानेंगे। 1. जटा, 2. माला, 3. शिखा, 4. रेखा, 5. ध्वज, 6. दण्ड, 7. रथ और 8. घन— ये 8 विकृतिपाठ हैं। प्रतिशाख्य में विकृतियों के सम्बन्ध में श्लोक है—
जटा माला शिखा रेखा ध्वजो दण्डो रथो घनः।
अष्टौ विकृतयः प्रोक्ताः क्रमपूर्वा महर्षिभिः॥
इससे यह स्पष्ट होता है कि महर्षियों ने क्रमपाठ एवं विकृतिपाठों का दर्शन करने के अनन्तर उनका उपदेश किया। मधुशिक्षा के अनुसार जटापाठ के ऋषि व्याडि, मालापाठ के ऋषि वसिष्ठ, शिखापाठ के ऋषि भृगु, रेखापाठ के ऋषि अष्टावक्र, ध्वजपाठ के ऋषि विश्वामित्र, दण्डपाठ के ऋषि पराशर, रथपाठ के ऋषि कश्यप और घनपाठ के ऋषि अत्रि हैं।