विलफ्रेडो परेटो
विलफ़्रेडो परेटो (Vilfredo Federico Damaso Pareto ; उच्चारण : [vilˈfreːdo paˈreːto] ; 1848-1923) इटली के इंजीनियर, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, राजनीतिशास्त्री और दार्शनिक थे। अर्थशास्त्र के क्षेत्र में उन्होने कई महत्वपूर्ण योगदान किए।
परिचय
संपादित करेंअर्थशास्त्र के इतिहास में विलफ़्रेडो परेटो का नाम एक ऐसे विद्वान के रूप में दर्ज है जिसने इस अनुशासन को पहले तो गणितीय और वैज्ञानिक आधार देने की भूमिका निभायी और फिर उसे ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय अंतर्दृष्टियों से सम्पन्न करने के लिए काम किया। अर्थशास्त्र में कई तात्त्विक योगदान करने वाले परेटो के बौद्धिक जीवन का यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि गणितीय रूपों को आर्थिक विश्लेषण में स्थापित करने के बाद वे ख़ुद इन विधियों से असंतुष्ट हो गये। अमूर्त आर्थिक सिद्धांतों का पल्ला छोड़ कर उन्होंने ऐतिहासिक और सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों की ज़मीन पर अर्थव्यवस्थाओं के प्रदर्शन को समझने की कोशिश की। उन्होंने इन पहलुओं को व्यापार चक्रों के विश्लेषण में इस्तेमाल करते हुए दिखाया कि सामाजिक कारक किस तरह बचत, श्रम और उपभोग को प्रभावित करते हैं जिससे अंत में पूरी अर्थव्यवस्था पर असर पड़ता है। उन्होंने आर्थिक जड़ता और वृद्धि का समाजशास्त्रीय सिद्धांत विकसित किया। उनका कहना था कि आर्थिक वृद्धि तब तक उपलब्ध नहीं की जा सकती जब तक कठोर परिश्रम करते हुए उसके आर्थिक फल भोगने की इच्छा को कुछ समय के लिए स्थगित न कर दिया जाए। इसके लिए उन्होंने मेहनत के साथ-साथ किफ़ायत और पेशेवराना रुझान के विकास की सिफ़ारिश की। उन्होंने देखा कि आर्थिक वृद्धि होने पर ये प्रवृत्तियाँ नरम पड़ जाती हैं और समाज में अधिक सुखधर्मिता पैदा होती है। सट्टेबाज़ी होने लगती है और फटाफट पैसा बनाने की होड़ लग जाती है। लेकिन एक मुकाम पर उपभोक्ता ऋण में बेतहाशा बढ़ोतरी होने के कारण उपभोक्ताओं का विश्वास डगमगाने लगता है। नतीजे के तौर पर व्यय में कटौती होती है और आर्थिक वृद्धि में धीमापन आता है। लेकिन, इसी प्रक्रिया में भविष्य की आर्थिक वृद्धि की बुनियाद रखी जाती है और एक बार फिर आगे किये जाने वाले निवेश के लिए बचत करने के रुझान पैदा होते हैं।
विलफ़्रेडो परेटो इतालवी पिता की संतान थे जिन्हें इटली की सरकार की नीतियों का विरोध करने के कारण पेरिस में निर्वासित जीवन व्यतीत करना पड़ रहा था। उनके मध्यवर्गीय परिवार ने उनकी प्राथमिक शिक्षा का अच्छा प्रबंध किया और उन्हें कठोर अध्यवसाय व सादगीपूर्ण जीवन जीने के संस्कार दिये। 1858 में इटली लौट कर उन्होंने इंजीनियरिंग की डिग्री ली। इंजीनियर की नौकरी करने के दौरान परेटो ने इंग्लैण्ड और स्कॉटलैण्ड की कई यात्राएँ कीं और इस दौरान उन्हें ब्रिटिश अर्थव्यवस्था का अवलोकन करने का मौका मिला। उन्होंने देखा कि मुक्त बाज़ार नीति का ब्रिटेन को कितना फ़ायदा हो रहा है। वे ऐडम स्मिथ सोसाइटी के सक्रिय सदस्य बन गये और लोकतंत्र व मुक्त व्यापार के समर्थन में लेखन करने लगे। परेटो को रात में नींद कम आती थी। इस समय का सदुपयोग उन्होंने राजनीतिक अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के अध्ययन में किया। रिटायर होने के बाद उन्होंने अपनी इंजीनियरिंग ट्रेनिंग का फ़ायदा उठा कर आर्थिक विश्लेषण को गणितीय रूपों में व्यक्त करना शुरू किया। जल्दी ही उनकी ख्याति बढ़ गयी और उन्हें लुज़ाने विश्वविद्यालय में लियोन वालरस की जगह नियुक्ति मिल गयी। आगे चल कर परेटो गणितीय विधियों की संकीर्णता से उकता गये और ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भों के आईने में आर्थिक गतिविधियों को परखने का प्रयास करने लगे। अपने चाचा से विरासत में प्राप्त सम्पत्ति से उन्होंने एक विशाल बंगला ख़रीदा जिसमें किसी संन्यासी की तरह अकेले अपनी पालतू बिल्लियों के साथ रहते हुए उन्होंने अपना जीवन अर्थशास्त्र की समस्याओं पर ग़ौर करते हुए गुज़ारा।
अर्थशास्त्र को गणितीय आधार देने के अलावा परेटो अपने तीन अन्य योगदानों के लिए भी जाने जाते हैं। उन्होंने आमदनी वितरण के नियम का विकास किया जो आज भी उनके नाम से ही जाना जाता है। उन्होंने अर्थशास्त्रियों का ध्यान कार्डिनल उपयोगिता से हटा कर ओर्डिनल उपयोगिता की तरफ़ दिलाया। उन्होंने एक ऐसी परीक्षा विधि भी विकसित की जिसके ज़रिये पता लगाया जा सकता था कि आर्थिक परिणाम सुधारे जा सकते या नहीं। इसे परेटो द्वारा प्रतिपादित अनुकूलतम परिस्थिति के सिद्धांत के नाम से भी जाना जाता है।
परेटो ने विभिन्न राष्ट्रों में आमदनी की विषमताओं का अध्ययन किया और देखा कि यह आय-वितरण एक सहज पैटर्न के मुताबिक होता है। उन्होंने परिवारों का क्रम उनकी आमदनी के हिसाब से लगाया और फिर उनकी आमदनी दर्ज करके उसका विश्लेषण किया। नतीजा यह निकला कि आय अनुपात में या अंकगणितीय रूप से नहीं बढ़ रही है। सबसे ज़्यादा ग़रीब परिवार से लेकर सबसे ज़्यादा अमीर परिवार तक के क्रम में आय ज्यामितीय रूप से बढ़ती दिखी। अगर आय अंकगणितीय क्रम से बढ़ती तो तीसवें नंबर का परिवार बीसवें नंबर के परिवार से बीस फ़ीसदी ज़्यादा कमाता और यही क्रम सौवें और नब्बेवें परिवार के बीच प्राप्त होता। लेकिन आमदनी बढ़ने की ज्यामितीय दर बता रही थी कि तीसवें स्थान का परिवार बीसवें स्थान वाले परिवार से दस फ़ीसदी ज़्यादा कमा रहा था जबकि पचासवें स्थान का परिवार चालीसवें स्थान के परिवार से पचास फ़ीसदी ज़्यादा और सौवें स्थान वाला परिवार नब्बेवें स्थान वाले परिवार से सौ फ़ीसदी ज़्यादा कमा रहा था।
परेटो ने अमेरिका और कई युरोपियन देशों में आय वितरण पर निगाह डाली और पाया कि विषमता की स्थिति एक पैटर्न के रूप में तकरीबन ऐसी ही है। इसलिए उन्होंने इसे नियम की संज्ञा दी। परेटो का ख़याल था कि विषमता इसी तरह जारी रहेगी क्योंकि मालदार लोग अपने राजनीतिक रुतबे का फ़ायदा उठा कर वितरण के इस पैटर्न को बदलने ही नहीं देंगे। परेटो के इस नियम से बहुत विवाद पैदा हुआ, क्योंकि इसके साथ कई सामाजिक-राजनीतिक मुद्दे जुड़े हुए थे जिन पर विचार करने से अर्थशास्त्री आम तौर पर कतराते रहते थे। लेकिन, परेटो की इस खोज को आर्थिक विज्ञान में होने वाली एक महत्त्वपूर्ण प्रगति का दर्जा भी मिला। परेटो से पहले किसी अर्थशास्त्री ने दुनिया के बहुत से देशों की आमदनियों के आँकड़ों का विश्लेषण नहीं किया था।
ओर्डिनल उपयोगिता को कार्डिनल उपयोगिता पर प्राथमिकता दे कर परेटो ने अर्थशास्त्रियों से आग्रह किया कि वे उपभोक्ता से बहुत ज़्यादा अपेक्षाएँ न करें। कार्डिनल उपयोगिता के मुताबिक उपभोक्ता से न केवल यह उम्मीद की जाती थी कि वह एक वस्तु के ऊपर दूसरी को प्राथमिकता देना जानता होगा, बल्कि यह भी जानता होगा कि उस प्राथमिकता की मात्रा क्या होगी। जबकि ओर्डिनल उपयोगिता के उसूल के मुताबिक उपभोक्ता से केवल प्राथमिकता देने की आशा ही की जानी चाहिए थी। व्यवहार में कार्डिनल और ओर्डिनल उपयोगिता के बीच अंतर इस तरह समझा जा सकता है : अगर एक उपभोक्ता अनन्नास के ऊपर आम को प्राथमिकता देता है, तो उससे यह जानने की अपेक्षा करना ग़लत होगा कि वह आम को अनन्नास से दो सौ फ़ीसदी उपयोगी मानता है या डेढ़ सौ फ़ीसदी। उपभोक्ता का ख़रीद-व्यवहार ऐसी कोई सूचना नहीं देता। परेटो के इस आग्रह का परिणाम यह हुआ कि विभिन्न लोगों द्वारा ग्रहण की जाने वाली उपयोगिता को नापना ज़रूरी नहीं रह गया। जेरेमी बेंथम और जेम्स स्टुअर्ट मिल द्वारा विकसित उपयोगितावाद का दर्शन में इस उलझन से ग्रस्त था। परेटो के सूत्रीकरण का नतीजा यह हुआ कि उपयोगिता नापने का पैमाना बनाने की कोशिशें ही रुक गयीं। इसी तरह अंतर्वैयक्तिक संबंधों में भी उपयोगिता की तुलनाएँ करने का रवैया छोड़ दिया गया। यही काफ़ी समझा जाने लगा कि अगर दो व्यक्ति दो चीज़ों का विनिमय कर रहे हैं तो वे जो दे रहे हैं उसके मुकाबले उनके लिए प्राप्त की जाने वाली चीज़ की उपयोगिता अधिक है। अगर ऐसा न होता तो वे यह विनिमय करते ही क्यों। परेटो का तीसरा योगदान अनुकूलतम परिस्थिति के सिद्धांत के रूप में सामने आया। आर्थिक मामलों की अनुकूलतम स्थिति की खोज करते समय परेटो इस नतीजे पर पहुँचे कि कुछ आर्थिक परिणाम किसी भी तरीके से बेहतर नहीं किये जा सकते। अगर किसी एक व्यक्ति की स्थिति को बेहतर किया जाना है तो उसके लिए किसी दूसरे व्यक्ति की स्थिति को कमतर करना होगा। यानी कुल मिला कर स्थिति में कोई सुधार नहीं होगा। परेटो का कहना था कि दो व्यक्ति तभी कोई लेन-देन करते हैं जब दोनों को फ़ायदे की उम्मीद हो। अगर लाभ किसी एक को ही होगा तो विनिमय होगा ही नहीं। ऐसी स्थिति के बावजूद अगर दबाव डाल कर वस्तुओं का पुनर्वितरण करने की कोशिश की जाएगी तो कुल मिला कर स्थिति में या आर्थिक प्रदर्शन में कोई सुधार नहीं होगा। इसलिए बाज़ार में मुक्त विनिमय की स्थिति ही अनुकूलतम कही जा सकती है।
परेटो के इस सिद्धांत के नतीजे नीतिगत क्षेत्र में निकलने लाज़मी थे। कल्याणकारी अर्थशास्त्र की पैरोकारी के लिए भी इसका इस्तेमाल किया गया। इसके मुताबिक बिना किसी का नुकसान किये अगर हर व्यक्ति की बेहतरी हो सके तो आर्थिक कल्याण में सुधार हो सकता है। यह अनुकूलतम परिस्थिति पैदा हो सके इसलिए लाज़मी समझा गया कि उपभोक्ताओं के स्तर पर जिस सीमांत दर से उपभोग में प्रतिस्थापन हो, उसी सीमांत दर से उत्पादक अपने उत्पादन में तब्दीली करें। परेटो के अनुसार केवल ऐसा होने पर ही सभी उत्पादन प्रक्रियाओं की सीमांत लागत सीमांत आमदनी के बराबर हो सकती है। दूसरी तरफ़, तीस के दशक में अर्थशास्त्रियों का यह ख़याल भी था कि मूल्यगत विवेक का इस्तेमाल किये बिना अनुकूलत ये परिस्थिति के इस सिद्धांत के ज़रिये आर्थिक प्रदर्शन का मूल्यांकन किया जा सकता है। इसलिए उन्होंने इस प्रश्न पर काफ़ी दिमाग़ खपाया और यह पता लगाने की कोशिश की कि कुछ विशेष परिस्थितियों में यह उसूल कारगर होने से चूकता तो नहीं है। परेटो के इस उसूल को अमीरों को टैक्स रियायतें देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है : अगर मालदार लोगों को ये रियायतें मिलेंगी तो वे निवेश ज़्यादा कर सकेंगे और आर्थिक उछाल आएगा और नतीजे के तौर पर ग़रीबों की भी बेहतरी होगी। इस स्थिति में इसे परेटो-सुपीरियर की संज्ञा दी जाएगी। अगर टैक्स रियायतों से आर्थिक उछाल नहीं आया तो राजस्व की भरपाई किसी न किसी की जेब से तो करनी ही होगी। मालदारों को फ़ायदा होगा और आम आदमी की जेब ख़ाली होगी। यह परेटो-ओप्टिमल माना जाएगा।
परेटो ओप्टिमल की आलोचना करते हुए अमर्त्य सेन ने दावा किया है कि इस सिद्धांत से निकलने वाले नतीजे मूल्य-तटस्थ या वैज्ञानिक नहीं कहे जा सकते। यह सिद्धांत इस पूर्वधारणा पर आधारित है कि अगर कोई परिवर्तन व्यक्ति को ख़ुशहाल बनाता है तो इससे कुल मिला कर वह समाज भी ख़ुशहाल होता है। इस मान्यता को सही नहीं माना जा सकता। दूसरे, यह सिद्धांत सभी परिस्थितियों में श्रेयस्कर नहीं है। मसलन, अकाल की स्थिति कायदे से परेटो ओप्टिमल है और जनता को भुखमरी से बचाने के लिए किया गया पुनर्वितरण परेटो ओप्टिमल के ख़िलाफ़ चला जाएगा।
सन्दर्भ
संपादित करें1 रेनाटो सिरिलो (1979), द इकॉनॉमिक्स ऑफ़ विलफ्रेडो परेटो, फ्रैंक कैस, लंदन.
2. एच. चार्ल्स पावर्स 1987(), विलफ़्रेडो परेटो, सेज पब्लिकेशंस, न्यूबरी पार्क.
3. जोसेफ़ शुमपीटर (1949), ‘विलफ़्रेडो परेटो 1848-1923’, क्वार्टरली जरनल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स, 63.