लोहार्गल
लोहार्गल भारत के राजस्थान राज्य में शेखावाटी इलाके के झुन्झुनू जिले से 70 कि॰मी॰ दूर आड़ावल पर्वत की घाटी में बसे उदयपुरवाटी कस्बे से करीब दस कि॰मी॰ की दूरी पर स्थित है। लोहार्गल का अर्थ है- वह स्थान जहाँ लोहा गल जाए। पुराणों में भी इस स्थान का जिक्र मिलता है। नवलगढ़ तहसील में स्थित इस तीर्थ 'लोहार्गल जी' को स्थानीय अपभ्रंश भाषा में लुहागरजी कहा जाता है। झुन्झुनू जिले में अरावली पर्वत की शाखायें उदयपुरवाटी तहसील से प्रवेश कर खेतड़ी, सिंघाना तक निकलती हैं, जिसकी सबसे ऊँची चोटी 1051 मीटर लोहार्गल में है।[उद्धरण चाहिए]
लोहार्गल | |||||
— गाँव — | |||||
समय मंडल: आईएसटी (यूटीसी+५:३०) | |||||
देश | भारत | ||||
राज्य | राजस्थान | ||||
विभिन्न कोड
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निर्देशांक: 27°40′20″N 75°23′21″E / 27.672127°N 75.389285°E
तीर्थराज लोहार्गल में अनेक मंदिर है, और अपने आप में हर मंदिर की अपनी महिमा है, कोई मंदिर विशेष नहीं है और ना ही कोई मंदिर आम है,इन सब मंदिरों व गौमुख तथा वादियों को मिलाकर ही संपूर्ण लोहार्गल बनता है। आम श्रद्धालुओं के लिए सभी मंदिर प्रमुख है। बाबा मालकेतु की परिक्रमा जब 24 कोस ( 72 km ) में लगती है तो फिर ये कैसे किसी का निजी क्षेत्र हो सकता है।
भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि को गोगा नवमी मनाई जाती है, इसी दिन से परिक्रमा प्रारंभ हो कर अमावस्या को सम्पूर्ण होती है,
पांडवों की प्रायश्चित स्थली
संपादित करेंमहाभारत युद्ध समाप्ति के पश्चात पाण्डव जब आपने भाई बंधुओं और अन्य स्वजनों की हत्या करने के पाप से अत्यंत दुःखी थे, तब भगवान श्रीकृष्ण की सलाह पर वे पाप मुक्ति के लिए विभिन्न तीर्थ स्थलों के दर्शन करने के लिए गए। श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया था कि जिस तीर्थ में तुम्हारे हथियार पानी में गल जाए वहीं तुम्हारा पाप मुक्ति का मनोरथ पूर्ण होगा। घूमते-घूमते पाण्डव लोहार्गल आ पहुँचे तथा जैसे ही उन्होंने यहाँ के सूर्यकुण्ड में स्नान किया, उनके सारे हथियार गल गये। उन्होंने इस स्थान की महिमा को समझ इसे तीर्थ राज की उपाधि से विभूषित किया। लोहार्गल से भगवान परशुराम का भी नाम जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि इस जगह पर परशुराम जी ने भी पश्चाताप के लिए यज्ञ किया तथा पाप मुक्ति पाई थी। विष्णु के छठें अंशअवतार ने भगवान परशुराम ने क्रोध में क्षत्रियों का संहार कर दिया था, लेकिन शान्त होने पर उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। यहाँ एक विशाल बावड़ी भी है जिसका निर्माण महात्मा चेतनदास जी ने करवाया था। यह राजस्थान की बड़ी बावड़ियों में से एक है। पास ही पहाड़ी पर एक प्राचीन सूर्य मन्दिर बना हुआ है। इसके साथ ही वनखण्डी जी का मन्दिर है। कुण्ड के पास ही प्राचीन शिव मन्दिर, हनुमान मन्दिर तथा पाण्डव गुफा स्थित है। इनके अलावा चार सौ सीढ़ियाँ चढने पर मालकेतु जी के दर्शन किए जा सकते हैं।
[ लोहार्गल का वराह मंदिर ] लोहार्गल धाम के प्रमुख मंदिरों में भगवान विष्णु के तृतीय अवतार श्रीवराह का मंदिर विशेष है,भगवान विष्णु ने अब तक 23 अवतार लिए हैं। जिनमें से एक है वराह अवतार। हर साल भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को वराह जयंती मनाई जाती है। यह भगवान विष्णु का मानवीय शरीर में धरती पर पहला अवतार था। इस अवतार में भगवान विष्णु ने शरीर मानवीय लिया था, जबकि उनका मुख वराह के समान था। इसीलिए इस अवतार को वराह अवतार कहा गया। प्राचीन शास्त्रों में यह कहा गया है कि विष्णु जी ने यह अवतार दैत्य हिरण्याक्ष का वध करने के लिए लिया था। वराह जयंती का इतिहास हिरण्याक्ष नाम का एक दैत्य था। उसे पूरी पृथ्वी पर शासन करने की इच्छा थी। इसलिए वह पृथ्वी को लेकर समुद्र में जाकर छिप गया। पृथ्वी को डूबता देख सभी देवी देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि – हे भगवन् आप पृथ्वी को डूबने से बचा लीजिए। क्योंकि इस पर ही संपूर्ण मानव समाज को अपना जीवन बिताना है। अगर पृथ्वी नहीं होगी तो मानव सभ्यता नहीं बचेगी। इसलिए हे करुणानिधान दीनों पर कृपा कर पृथ्वी को बचाइए। सभी देवताओं की पुकार सुन भगवान विष्णु ने वराह अवतार लिया। यह अवतार भगवान के अन्य अवतारों से बहुत अलग था। सभी देवी देवताओं ऋषि-मुनियों ने उन्हें इस रूप में देखकर उनकी स्तुति की। साथ ही प्रार्थना की कि वह हिरण्याक्ष से पृथ्वी को छुड़ाकर उसका वध कर दें। ताकि जीवों को दैत्यों के अत्याचार सहने के लिए मजबूर न होना पड़े। विष्णु जी ने वराह अवतार लेकर समुद्र में छुपे हिरण्याक्ष को ढूंढा। जब उससे पृथ्वी लेने लगे तो उसने युद्ध के लिए भगवान वराह को ललकारा। दैत्य हिरण्याक्ष की ललकार सुनकर भगवान विष्णु को क्रोध आया। भगवान वराह और दैत्य हिरण्याक्ष में भीषण युद्ध छिड़ा। जिसके बाद उन्होंने हिरण्याक्ष का वध कर दिया। भगवान वराह समुद्र से पृथ्वी को अपने दातों पर रखकर बाहर ले आए और पृथ्वी की पुनर्स्थापना की। वराह जयंती का महत्व वराह जयंती के दिन भगवान विष्णु के भक्त यानी वैष्णव उनकी पूजा आराधना करते हैं। इस दिन वराह भगवान की स्तुति की जाती है। साथ ही कुछ लोग इस दिन भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए व्रत भी करते हैं। भगवान विष्णु के इस अवतार को बहुत अनूठा माना जाता है। मान्यता है। जो कोई वराह जयंती के दिन भगवान विष्णु की पूजा आराधना करता है। उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। वह मृत्यु के बाद मोक्ष को प्राप्त करता है।
सूर्यकुंड व सूर्य मंदिर की कहानी
संपादित करेंयहां प्राचीन काल से निर्मित सूर्य मंदिर लोगों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। इसके पीछे भी एक अनोखी कथा प्रचलित है। प्राचीन काल में काशी में सूर्यभान नामक राजा हुए थे, जिन्हें वृद्धावस्था में अपंग लड़की के रूप में एक संतान हुई। राजा ने भूत-भविष्य के ज्ञाताओं को बुलाकर उसके पिछले जन्म के बारे में पूछा। तब विद्वानों ने बताया कि पूर्व के जन्म में वह लड़की मर्कटी अर्थात बंदरिया थी, जो शिकारी के हाथों मारी गई थी। शिकारी उस मृत बंदरिया को एक बरगद के पेड़ पर लटका कर चला गया, क्योंकि बंदरिया का मांस अभक्ष्य होता है। हवा और धूप के कारण वह सूख कर लोहार्गल धाम के जलकुंड में गिर गई किंतु उसका एक हाथ पेड़ पर रह गया। बाकी शरीर पवित्र जल में गिरने से वह कन्या के रूप में आपके यहाँ उत्पन्न हुई है। विद्वानों ने राजा से कहा, आप वहां पर जाकर उस हाथ को भी पवित्र जल में डाल दें तो इस बच्ची का अंपगत्व समाप्त हो जाएगा। राजा तुरंत लोहार्गल आए तथा उस बरगद की शाखा से बंदरिया के हाथ को जलकुंड में डाल दिया। जिससे उनकी पुत्री का हाथ स्वतः ही ठीक हो गया। राजा इस चमत्कार से अति प्रसन्न हुए। विद्वानों ने राजा को बताया कि यह क्षेत्र भगवान सूर्यदेव का स्थान है। उनकी सलाह पर ही राजा ने हजारों वर्ष पूर्व यहां पर सूर्य मंदिर व सूर्यकुंड का निर्माण करवा कर इस तीर्थ को भव्य रूप दिया।
एक यह भी मान्यता है, भगवान विष्णु के चमत्कार से प्राचीन काल में पहाड़ों से एक जल धारा निकली थी जिसका पानी अनवरत बह कर सूर्यकुंड में जाता रहता है। इस प्राचीन, धार्मिक, ऐतिहासिक स्थल के प्रति लोगों में अटूट आस्था है। भक्तों का यहाँ वर्ष भर आना-जाना लगा रहता है। यहाँ समय समय पर विभिन्न धार्मिक अवसरों जैसे ग्रहण, सोमवती अमावस्या आदि पर मेला लगता है किंतु प्रतिवर्ष कृष्ण जन्माष्टमी से अमावस्या तक के विशाल मेले का विशेष महत्व है जो पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र रहता है। इस अमावस्या को मेले के कारण जिला कलेक्टर की ओर से जिले में अवकाश भी घोषित किया जाता है। श्रावण मास में भक्तजन यहाँ के सूर्यकुंड से जल से भर कर कांवड़ उठाते हैं। यहां प्रति वर्ष माघ मास की सप्तमी को सूर्यसप्तमी महोत्सव मनाया जाता है, जिसमें सूर्य नारायण की शोभायात्रा के अलावा सत्संग प्रवचन के साथ विशाल भंडारे का आयोजन किया जाता है। यहाँ चौबीस कोस की परिक्रमा भी की जाती है। परिक्रमा के बाद नर-नारी कुण्ड में स्नान कर पुण्य लाभ प्राप्त करते हैं। जय सूर्य देव
आसपास के तीर्थ
संपादित करें- शाकम्भरी देवी माता का यह मंदिर लोहार्गल के पास सकराय गाँव मे है। यह मंदिर शक्रा अथवा शंकरा देवी का है। मंदिर मे ब्रह्माणी और रूद्राणी देवियों की प्रतिमाएँ है। किंतु वर्तमान मे शंकरा देवी को शाकम्भरी देवी कहा जाने लगा। वैसे भारत मे शाकम्भरी देवी का सबसे प्राचीन शक्तिपीठ उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले की पहाडियों मे है। एक अन्य मंदिर राजस्थान के ही साम्भर मे है। सकराय मे भी शाकम्भरी माता का ये स्थान है।