लियोन त्रोत्स्की
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लेव त्रोत्सकी (रूसी:: Лев Дави́дович Тро́цкий; उच्चारण: [ˈlʲef ˈtrot͡skʲɪj] ; Leon Trotsky ; 7 नवम्बर [O.S. 26 October] 1879 – 21 अगस्त 1940) रूस के मार्क्सवादी क्रांतिकारी तथा सिद्धान्तकार, सोवियत राजनेता तथा लाल सेना के संस्थापक व प्रथम नेता थे।
रूसी क्रांति के बाद हुए भीषण गृह युद्ध में विजयी रही लाल सेना की कमान ट्रॉट्स्की के हाथ में ही थी। एक सिद्धांतकार के रूप में स्थायी क्रांति के सिद्धान्त के जरिये उन्होने मार्क्सवादी विमर्श में योगदान किया। इसके साथ ही ट्रॉट्स्की ने एक नियम का प्रतिपादन भी किया कि पूँजीवाद के विकास का स्तर सभी जगह एक सा नहीं होता जिसका परिणाम पिछड़े देशों में सामाजिक और ऐतिहासिक विकास के दो चरणों के एक साथ घटित हो जाने में निकलता है।
बीसवीं सदी के पहले दशक में मार्क्सवादियों के बीच चल रहे बहस-मुबाहिसे के बीच ट्रॉट्स्की की इस सैद्धांतिक उपलब्धि ने रूस जैसे औद्योगिक रूप से पिछड़े देश में क्रांति करने के तर्क को मजबूती प्रदान की। लेनिन के देहांत के बाद ट्रॉट्स्की ने स्तालिन द्वारा प्रवर्तित एक देश में समाजवाद की स्थापना के सिद्धांत का विरोध किया, लेकिन वे पार्टी के भीतर होने वाले संघर्ष में अकेले पड़ते चले गये। पहले उन्हें पार्टी से निकाला गया, और फिर सोवियत राज्य के विरुद्ध षडयन्त्र करने के आरोप में देश-निकाला दे दिया गया। निष्कासन के दौरान ट्रॉट्स्की ने स्तालिन के नेतृत्व में बन रहे सोवियत संघ की कड़ी आलोचना करते हुए उसे नौकरशाह, निरंकुश और राजकीय पूँजीवादी राज्य की संज्ञा दी। सोवियत सीक्रेट पुलिस से बचने के लिए सारी दुनिया में भटकते हुए ट्रॉट्स्की ने 'परमानेंट रेवोल्यूशन' (1930), 'रेवोल्यूशन बिट्रेड' (1937) और तीन खण्डों में 'द हिस्ट्री ऑफ़ रशियन रेवोल्यूशन' (1931-33) जैसे क्लासिक ग्रंथ की रचना की। विश्व-क्रांति के अपने सपने को धरती पर उतारने के लिए उन्होंने चौथे कम्युनिस्ट इंटरनैशनल की स्थापना भी की जिसे कोई खास कामयाबी नहीं मिली। निष्कासन के दौरान ही मैक्सिको में स्तालिन के एक एजेंट के हाथों उन्हें जान से हाथ धोना पड़ा। ट्रॉट्स्की के अनुयायियों ने दुनिया के कई देशों में छोटी- छोटी कम्युनिस्ट पार्टियाँ बना रखी हैं। सोवियत शैली के कम्युनिज़म के विकल्प के रूप में उनके विचारों को ट्रॉट्स्कीवाद की संज्ञा मिल चुकी है।
जीवन परिचय
संपादित करेंट्रॉट्स्की का असली नाम लेव डेविडोविच ब्रोंस्टीन था। बहुत कम उम्र में ही वे मार्क्सवाद के प्रति आकर्षित हुए और भूमिगत राजनीति करते हुए 'ट्रॉट्स्की' का गुप्त नाम अपना लिया। उनके जीवन को तीन भागों में बाँट कर देखा जा सकता है। पहला हिस्सा वह है जब रूसी मार्क्सवाद के एक स्वतंत्र हस्ताक्षर की तरह वे क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लेते हुए पहले लेनिन के नजदीक आये और फिर उनका साथ देने से इनकार कर दिया। दूसरा हिस्सा 1917 से शुरू हो कर 1923 तक चला जब उन्होंने लेनिन के साथ कंधे से कंधा मिला कर सोवियत क्रांति को अग्रगति प्रदान की। इसके बाद उनके जीवन का तीसरा दौर शुरू हुआ जब उन्होंने क्रांति के लाभों की रक्षा करने के लिए स्तालिनवाद के ख़िलाफ़ अभियान छेड़ा।
बोल्शेविक नेताओं में केवल ट्रॉट्स्की ही ऐसे थे जिन्हें लेनिन का प्रमुख साथी होने के बावजूद उनके अनुयायी के तौर पर नहीं देखा जाता था। 1903 में रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी (आरएसडीएलपी) जब बोल्शेविकों और मेंशेविकों में विभाजित हुई, तो ट्रॉट्स्की ने लेनिन का साथ नहीं दिया। शुरुआत में उन्होंने बोल्शेविज्म की यह कह कर निंदा की कि यह तो सर्वहारा की नहीं बल्कि सर्वहारा पर तानाशाही का फॉर्मूला है। उस समय उन्हें शक था कि लेनिन रॉब्सपियरे जैसे षड्यंत्रकारी नेता हैं जिनके कारण रूस का समाजवादी आंदोलन पथभ्रष्ट हो जाएगा। उस समय ट्रॉट्स्की का विचार था कि गुप्त राजनीतिक काम करने वाली पेशेवर क्रांतिकारियों की अनुशासित पार्टी के हाथ में क्रांति की कमान देने से समाजवाद का लक्ष्य नहीं हासिल किया जा सकता। वे एक अधिक लोकतांत्रिक और खुले चरित्र की पार्टी बनाने के पक्ष में थे। 1905 में वे सेंट पीटर्सबर्ग की सोवियत नेता के रूप में उभरे। रूस की इस पहली सोवियत ने 1905 की क्रांति में प्रमुख भूमिका का निर्वाह किया था, और ट्रॉट्स्की इसे प्रामाणिक लोकतंत्र का नमूना मानते थे। क्रांति विफल हो जाने के बाद ज़ारशाही ने उन्हें गिरफ्तार करके साइबेरिया भेज दिया। ट्रॉट्स्की वहाँ से भाग निकले और अगला दशक उन्होंने युरोप में बिताया। इस दौरान सांगठनिक रूप से वे मेंशेविकों के साथ रहे। 1917 में वे रूस लौटे तब फरवरी क्रांति के कारण ज़ारशाही का पतन हो चुका था। अब वे बोल्शेविकों के साथ आ गये क्योंकि उन्हें लगा कि उनके और लेनिन के विचारों में काफी समानता आ चुकी है। स्वयं लेनिन ट्रॉट्स्की की राजनीतिक और सैद्धांतिक क्षमताओं के प्रशंसक थे। बोल्शेविक पार्टी में ट्राट्स्की का कद तेजी से बढ़ा। उन्होंने विदेशी मामलों के कमिसार के तौर पर जर्मनों के साथ शांति- वार्ता में भाग लिया। फौजी कमिसार के रूप में ट्रॉट्स्की ने लाल सेना के गठन में प्रमुख भूमिका निभायी और गृह युद्ध में उसका शानदार नेतृत्व किया। इन सफलताओं के कारण ट्रॉट्स्की को लेनिन के सम्भावित उत्तराधिकारियों में एक के रूप में देखा जाने लगा।
लेनिन की ही तरह ट्रॉट्स्की को रूसी सर्वहारा वर्ग की रचनात्मक क्षमताओं में गहरा विश्वास था। इस विश्वास के आधार में विश्व-पूँजीवाद के अध्ययन से निकली उनकी एक विशेष तरह की सैद्धांतिक समझ थी। ट्र्रॉट्स्की का विचार था कि अपने पिछड़ेपन से छुटकारा पाने के लिए किसी देश को उन चरणों से क्रमवार गुजरने की जरूरत नहीं होती जिनसे विकसित देश गुजर चुके होते हैं। इन देशों में पिछड़ेपन के साथ-साथ अगड़ेपन के लक्षण भी उभरते हैं। इस सिद्धान्त के आधार पर विश्लेषण करते हुए ट्रॉट्स्की ने दिखाया कि रूस का अधिकांश भाग पिछड़ा और अविकसित है लेकिन उसमें पश्चिमी प्रभावों ने भी घुसपैठ कर ली है। कई जगहों पर आर्थिक उत्पादन और संबंधों के विकसित तौर-तरीके अपनाए जाने लगे हैं। औद्योगिक विकास के इन मुकामों ने शहरी केंद्रों में एक अच्छा-खासा सर्वहारा वर्ग और एक पश्चिमीकृत बौद्धिक अभिजन पैदा कर दिया है। परिणामस्वरूप राजनीतिक प्रतिरोध और सक्रियता के रैडिकल रूप प्रचलित हो गये हैं। चूँकि उद्योगीकरण ऊपर से थोपा गया है इसलिए स्थानीय पूँजीपति वर्ग कमजोर है, लेकिन सर्वहारा वर्ग मजबूत है। पूँजीवादी वर्ग लोकतांत्रिक क्रांति करने से डरता है और अपनी अक्षमता के कारण अपना ऐतिहासिक दायित्व नहीं निभा पा रहा है, इसलिए यह जिम्मेदारी सर्वहारा वर्ग के कंधों पर आ गयी है। किसानों को अपने नेतृत्व में लेते हुए उनके साथ मोर्चा बना कर मजदूर वर्ग को सामंतशाही और उसके सभी अवशेषों का उन्मूलन करते हुए समाजवाद की तरफ बढ़ना होगा।
ट्रॉट्स्की ने अपने सिद्धांत को स्थायी क्रांति करार दिया। 1850 में मार्क्स कम्युनिस्ट लीग की जनरल कौंसिल को संबोधित करते हुए इस पद का इस्तेमाल कर चुके थे। ट्रॉट्स्की के मुताबिक प्राक-पूँजीवादी मानसिकता वाले किसान इस क्रांतिकारी प्रक्रिया में मजदूरों का साथ बहुत दूर तक नहीं दे पाएँगे। उनकी दिलचस्पी जमीन का मालिकाना मिल जाने तक ही रहेगी। किसानों के साथ बनाया गया जो मोर्चा क्रांति के लिए रास्ता साफ करता है, वही समाजवाद की रचना में बाधक साबित होगा। इसलिए एक देश में, विशेषतः रूस में, समाजवाद का निर्माण तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक अन्य देशों में भी क्रांति नहीं हो जाती। इसलिए रूस की क्रांति को विश्व-क्रांति, खास कर विकसित देशों में क्रांति के शुरुआती चरण के तौर पर ही देखा जाना चाहिए। दिलचस्प बात यह है कि ट्रॉट्स्की की इन बातों और प्रथम विश्वयुद्ध के बाद लेनिन द्वारा प्रतिपादित कई सिद्धांतों में काफ़ी समानता प्रतीत होती है। कुछ ट्रॉट्स्कीवादियों ने यह आरोप भी लगाया है कि 1917 की क्रांति में लेनिन द्वारा ट्रॉट्स्की के ही सिद्धांतों का इस्तेमाल किया गया था। यह अलग बात है कि ख़ुद ट्रॉट्स्की ने 1917 में लेनिन का नेतृत्व स्वीकार करने के बाद कभी ऐसा नहीं कहा।
लेनिन की मृत्यु के बाद स्तालिन ने एक देश में समाजवाद के निर्माण की शोधपत्र तैयार की। इस मामले में बुखारिन जैसे सिद्धांतकार भी स्तालिन के साथ थे। पर ट्रॉट्स्की ने चेतावनी दी कि इस सिद्धान्त पर अमल करने के नतीजे रूस के लिए विनाशकारी निकलेंगे। उन्होंने कहा कि खेती के सामूहिकीकरण का समय अभी नहीं आया है। ट्रॉट्स्की लेनिन द्वारा स्थापित कोमिंटर्न (कम्युनिस्ट इंटरनेशनल) को सोवियत विदेश नीति के औजार में सीमित कर देने के भी विरुद्ध थे। उनका तर्क था कि सोवियत संघ को उद्योगीकरण और आधुनिकीकरण के रास्ते पर जरूर चलना चाहिए, पर इन उपलब्धियों को समाजवाद का पर्याय नहीं समझा जा सकता। समाजवाद का मतलब है, श्रम की ऊँची उत्पादकता, उसके परिणामस्वरूप बेहतर जीवन-स्तर और अपने पूँजीवाद के सर्वाधिक विकसित रूपों जैसा समाज। यह तभी हो सकता है कि जब सर्वहारा के हाथ में विश्व-अर्थव्यवस्था की बागडोर हो। ट्रॉट्स्की का कहना था कि स्तालिन के तहत जो सोवियत व्यवस्था है, उसे केवल संक्रमणकालीन समझा जाना चाहिए। अभी इस बात की गारंटी नहीं की जा सकती कि इसका विकास समाजवाद में होगा या यह पतित हो कर पूँँजीवाद के किसी संस्करण में बदल जाएगी। ट्रॉट्स्की मानते थे कि रूस की नौकरशाही एक नये वर्ग की शक्ल लेती जा रही है। भले ही सोवियत समाज राजकीय पूँजीवाद की स्थिति में न पहुँचा हो, लेकिन उसकी स्थिति मजदूरों के एक कमतर राज्य जैसी तो है ही।
ट्रॉट्स्की के विचारों की विशेष बात यह थी कि उनमें मार्क्सवाद को हर समस्या की अचूक औषधि के रूप में देखने की प्रवृत्तियों का विरोध निहित था। इसी तरह वे मार्क्सवाद के नाम पर कला-साहित्य और ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों को एक विशेष दिशा में धकेले जाने के भी खिलाफ थे। अपने इन रैडिकल विचारों के बावजूद वे पार्टी का बहुमत अपने पक्ष में नहीं कर सके। पार्टी के भीतर उन्हें एक ऐसे नेता के रूप में देखा जाता था जो संकट आने पर तो करिश्माई नेतृत्व प्रदान कर सकता है, लेकिन पार्टी के भीतर होने वाली रोजमर्रा की उठा-पटक से निबटने में दिलचस्पी नहीं रखता, और जो अपनी बौद्धिक चमक-दमक में अकेला रहना पसंद करता है। जब ट्रॉट्स्की की उम्मीदों के मुताबिक युरोप में क्रांति नहीं हुई, तो उन्होंने विश्व-क्रांति का लक्ष्य छोड़ कर केवल एक देश में समाजवाद का निर्माण करने में लग जाने की स्तालिनीय परियोजना को इसका जिम्मेदार ठहराया। ट्रॉट्स्की ने यह कभी नहीं माना कि स्तालिनकालीन गलतियों की जड़ में पार्टी और राजनीति का लेनिनिस्ट-बोल्शेविक विचार है जिसके कारण एक पार्टी द्वारा संचालित राज्य पूरे समाज को अपना ताबेदार बनाने में कामयाब हो गया है। दरअसल, ट्रॉट्स्की ने जीवन के तीसरे दौर में निष्कासन भोगते हुए भी 1903 से 1914 के बीच की गयी लेनिन और बोल्शेविकवाद की अपनी कठोर आलोचनाओं को कभी नहीं दोहराया।
बाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- त्रोत्सकी और भारत (रेडियो रूस)