रामसिंह कूका
बाबा रामसिंह कूका (3 फरवरी, 1816 - 29 नवम्बर, 1885) भारत की आजादी के सर्वप्रथम प्रणेता (कूका विद्रोह), असहयोग आन्दोलन के मुखिया, सिखों के नामधारी पंथ के संस्थापक, तथा महान समाज-सुधारक थे।
वे प्रथम नेता थे जिन्होने कूका विद्रोह के द्वारा असहयोग और ब्रितानी वस्तुओं तथा सेवाओं के बहिष्कार को अंग्रेजों के विरुद्ध एक राजनैतिक हथियार के रूप में प्रयोग किया। सन्त गुरु राम सिंह ने 12 अप्रैल 1857 को श्री भैणी साहिब जिला लुधियाना (पंजाब) सफेद रंग का स्वतन्त्रता का ध्वज फहराकर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का शंखनाद कर दिया था। उस समय भारतवासी गुलामी के साथ-साथ सामाजिक कुरीतियों के शिकार थे। इन परिस्थितियों में गुरु जी ने लोगों में स्वाभिमान से जीने की चेतना जागृत की। साथ ही भक्ति व वीर रस पैदा करने, देश प्रेम, आपसी भाईचारा, सहनशीलता व मिल बाँट कर रहने के लिए प्रेरित किया।
सन २०१६ में भारत सरकार ने आधिकारिक रूप से सत्गुरु रामसिंह की २००वीं जयन्ती मनाने का निर्णय लिया था। [1]
जीवनी
संपादित करेंबाबा रामसिंह कूका का जन्म 1816 ई॰ में वसंत पंचमी पर लुधियाना के भैणी ग्राम में हुआ था। कुछ समय वे महाराजा रणजीत सिंह की सेना में रहे, फिर घर आकर खेतीबाड़ी में लग गये, पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति होने के कारण इनके प्रवचन सुनने लोग आने लगे। धीरे-धीरे इनके शिष्यों का एक अलग ही पंथ बन गया, जो कूका पंथ (नामधारी) कहलाया।
गुरू रामसिंह गोरक्षा, स्वदेशी, नारी उद्धार, अंतर्जातीय विवाह, सामूहिक विवाह आदि पर बहुत जोर देते थे। उन्होंने भी सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतंत्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी। प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर भैणी गाँव में मेला लगता था। १८७२ में मेले में आते समय उनके एक शिष्य को मुसलमानों ने घेर लिया। उन्होंने उसे पीटा और गोवध कर उसके मुँह में गोमांस ठूंस दिया। यह सुनकर गुरू रामसिंह के शिष्य भड़क गये। उन्होंने उस गाँव पर हमला बोल दिया, पर दूसरी ओर से अंग्रेज सेना आ गयी। अत: युध्द का पासा पलट गया।
इस संघर्ष में अनेक कूका वीर शहीद हुए और 68 पकड़ लिये गये। इनमें से 50 को सत्रह जनवरी 1872 को मलेरकोटला में तोप के सामने खड़ा कर उड़ा दिया गया। शेष 18 को अगले दिन फाँसी दी गयी। दो दिन बाद गुरू रामसिंह को भी पकड़कर बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया।
महान समाज-सुधारक
संपादित करेंसतगुरु राम सिंह एक महान सुधारक व रहनुमा थे, जिन्होंने समाज में पुरुषों व स्त्रियों की संपूर्ण तौर पर एकता का प्रचार किया व अपने प्रचार में सफल भी रहे, क्योंकि 19वीं सदी में लड़कियों के जन्म लेते ही उन्हें मार देना, बेच देना व विद्या से वंचित रखने जैसी सामाजिक कुरीतियाँ प्रचलित थी। तब सतगुरु राम सिंह ने ही इन कुरीतियों को दूर करने के लिए लड़के-लड़कियों दोनों को समान रूप से पढ़ाने के निर्देश जारी किए।
सिख पुरुषों की तरह स्त्रियों को भी अमृत छका कर सिखी प्रदान की गई। बिना ठाका शगुन, बारात, डोली, मिलनी व दहेज के सवा रुपये में विवाह करने की नई रीति का आरम्भ हुआ। इसे आनंद कारज कहा जाने लगा। पहली बार 3 जून 1863 को गाँव खोटे जिला फिरोजपुर में 6 अंतर्जातीय विवाह करवा कर समाज में नई क्रांति लाई गई। सतगुरु नाम सिंह की प्रचार प्रणाली से थोड़े समय में ही लाखों लोग नामधारी सिख बन गए, जो निर्भय, निशंक होकर अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध कूके (हुंकार) मारने लगे, जो इतिहास में कूका नाम से प्रसिद्ध हुए।
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ Press Information Bureau, Government of India issued on 16 December 2016