स्माइलिंग बुद्धा (पोखरण-1) या मुस्कुराते बुद्ध भारत द्वारा किया गया प्रथम सफल परमाणु परीक्षण का कूटनाम है।[1] यह परीक्षण जिसे 18 मई 1974 को पोखरण (राजस्थान) में सेना के स्थल पर जिसे पोखरण टेस्ट रेंज कहते है वह वरिष्ठ सेना के अफसरों की निगरानी में किया गया।  

पोखरण-1 इस  मामले में भी महत्वपूर्ण है कि यह संयुक्त राष्ट्र के पाँच स्थायी सदस्य देशों के अलावा किसी अन्य देश द्वारा किया गया पहला परमाणु हथियार का परीक्षण था। अधिकारिक रूप से भारतीय विदेश मन्त्रालय ने इसे शान्तिपूर्ण परमाणु बम विस्फोट बताया, लेकिन वास्तविक रूप से यह त्वरित परमाणु कार्यक्रम था।

प्रारम्भिक कार्यक्रम, 1944–1960 

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भारत ने होमी जहाँगीर भाभा के नेतृत्व में सन 1944 में " टाटा मूलभूत अनुसन्धान संस्थान " में अपने परमाणु कार्यक्रम की शुरुआत की। भौतिकशास्त्री राजा रमन्ना ने परमाणु अस्त्रों के निर्माण सम्बन्धी कार्यक्रम में अपना सक्रिय योगदान दिया, उन्होंने परमाणु हथियारों की वैज्ञानिक तकनीक को अधिकाधिक उन्नत किया और बाद में पोखरण-1 परमाणु कार्यक्रम के लिए गठित पहली वज्ञानिको की टोली के मुखिया बने।

सन् 1947 में भारत के अंग्रेजो से आज़ाद होने के बाद तत्कालीन प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु ने परमाणु कार्यक्रम की जिम्मेदारी होमी जे भाभा के काबिल हाथो में सौपीं। 1948 में पास हुए "परमाणु ऊर्जा अधिनियम " का मुख्य उद्देश्य इसका शान्तिपूर्ण विकास करना था। भारत शुरुआत से ही परमाणु अप्रसार संधि के पक्ष में था लेकिन उस पर हस्ताक्षर नहीं कर सका।

सन् 1954 में भाभा ने परमाणु कार्यक्रम को शस्त्र निर्माण की तरफ मोड़ा तथा दो महत्वपूर्ण बुनियादी ढाँचों पर ध्यान दिया। पहला ट्रांबे परमाणु ऊर्जा केन्द्र (मुम्बई) की स्थापना तथा दूसरा एक सरकारी सचिवालय, परमाणु ऊर्जा विभाग (DAE)। इसके पहले सचिव भाभा (1954 से 1959) रहे जिनके नेतृत्व में 1958 तक ऊर्जा क्षेत्र में काफी तेजी से कार्य हुआ। 1959 के आते आते DAE कोरक्षा बजट का एक तिहाई भाग स्वीकृत हो गया था। सन 1954 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र तथा कनाडा के साथ मौखिक रूप से परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण उपयोग पर सहमति प्राप्त कर ली थी। संयुक्त राष्ट्र और कनाडा ट्रोम्बे में सर्कस रिएक्टर के निर्माण में सहयोग देने पर राजी भी हो गए, सर्कस रिएक्टर एक प्रकार से भारत और संयुक्त राष्ट्र के मध्य परमाणु आदान प्रदान की शुरुआत थी। सर्कस रिएक्टर पूरी तरह से शांतिपूर्ण उपयोग के लिए बना था तथा इसका उद्देश्य प्लूटोनियम युक्ति को विकसित करना था। जिसके कारण नेहरु ने कनाडा सेपरमाणु ईंधन लेने से मना कर दिया तथा स्वदेशी नाभिकीय ईंधन चक्र विकसित करने की ओर बल दिया।

जुलाई 1958 में नेहरु ने "फ़ीनिक्स परियोजना " जिसका लक्ष्य साल भर में 20 टन नाभिकीय ईंधन बनाने का था की शुरुआत की जो की सर्कस रिएक्टर की आवश्यक क्षमता के अनुसार ईंधन प्रदान कर सके। एक अमेरिकी कम्पनी विट्रो इंटरनेशनल द्वारा बनाई गयी यह इकाई प्युरेक्स (PUREX)  प्रक्रिया का उपयोग करती थी। इस इकाई का निर्माण कार्य ट्रोम्बे में 27 मार्च 1961 में चालु हुआ तथा 1964 के मध्य तक यह बन के तैयार हो गया था।

नाभिकीय परियोजना अपनी पूर्ति की ओर आगे बढ़ रही थी, तभी 1960 में नेहरु ने इसे निर्माण की ओर मोड़ने की सोची तथा भारत में भी नाभिकीय बिजली घर की अपनी परिकल्पना को मूर्त रूप देते हुए अमेरिकी कम्पनी वेस्टिंगहाउस इलेक्ट्रिक को भारत का पहला नाभिकीय बिजली घर, तारापुर (महाराष्ट्र) में बनाने का जिम्मा सौपा। केनेथ निकोल्स (Kenneth Nichols) जोकि अमेरिकी सेना में अभियंता थे ने नेहरु से मुलाकात की, यही वो वक्त था जब नेहरु ने भाभा से नाभिकीय हथियारों को बनाने में लगने वाले वक्त के बारे में पुछा तब भाभा ने 1 वर्ष का अनुमानित समय माँगा। 

1962 के आते-आते परमाणु कार्यक्रम धीमी रफ़्तार से ही सही लेकिन चल रहा था। नेहरु भी भारत-चीन युद्ध के चलते जिसमे भारत ने चीन से अपनी जमीन खोयी थी, परमाणु कार्यक्रम से विचलित हो गए थे। नेहरु ने सोवियत संघ से मदद की अपील  की लेकिन उसने क्यूबाई मिसाइल संकट के चलते मदद करने में अपनी असमर्थता जाहिर की। तब भारत इस निष्कर्ष पर पंहुचा की सोवियत संघ विश्वास योग्य साथी नहीं है, तब नेहरु ने दृढसंकल्पित होके किसी और के भरोसे बैठने के बजाय खुद को परमाणु शक्ति संपन्न देश बनाने का निश्चय किया जिसका खाका सन 1965 में भाभा को दिया गया जिन्होंने राजा रमन्ना के अधीन तथा उनकी मृत्यु के बाद परमाणु हथियार कार्यक्रम को आगे बढाया।

हथियारों का विकास, 1967-72 

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भाभा अब आक्रामक तरीके से परमाणु हथियारों के लिए पैरवी कर रहे थे और भारतीय रेडियो पर कई भाषण दिए। 1964 में, भाभा ने  भारतीय रेडियो के माध्यम से भारतीय जनता को बताया कि "इस तरह के परमाणु हथियार उल्लेखनीय सस्ते होते हैं" और अमेरिकी परमाणु परीक्षण कार्यक्रम (plowshare) की किफायती लागत का हवाला देते हुए अपने तर्क का समर्थन किया।परमाणु कार्यक्रम आंशिक रूप से धीमा हो गया जब लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमन्त्री बने। 1965 में, प्रधानमंत्री शास्त्री जी को पाकिस्तान के साथ एक और युद्ध का सामना करना पड़ा।शास्त्री जी ने ,परमाणु कार्यक्रम के प्रमुख के रूप में भौतिक विज्ञानी विक्रम साराभाई को नियुक्त किया लेकिन क्योंकि उनके गांधीवादी विश्वासों की कारण साराभाई ने सैन्य विकास के बजाय शान्तिपूर्ण उद्देश्यों की ओर कार्यक्रम का निर्देश किया। 1967 में , इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमन्त्री बनी और परमाणु कार्यक्रम पर काम नए उत्साह के साथ फिर से शुरू हो गया।होमी सेठना, एक रासायनिक इंजीनियर ने , प्लूटोनियम ग्रेड हथियार के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जबकि रमन्ना ने पूरे परमाणु डिवाइस का डिज़ाइन और निर्माण करवाया|पहले परमाणु बम परियोजना में ,अपनी संवेदनशीलता की वजह से, 75 से अधिक वैज्ञानिकों नें काम नहीं किया। परमाणु हथियार कार्यक्रम अब यूरिनियम के बजाए प्लुटोनीयम  के उत्पादन की दिशा में निर्देशित किया गया था।

1968-69 में, पी.के. आयंगर तीन सहयोगियों के साथ सोवियत संघ का दौरा किया और मास्को, रूस में परमाणु अनुसन्धान सुविधाओं का दौरा किया।अपनी यात्रा के दौरान आयंगर प्लूटोनियम fuel pulsed  रिएक्टर बहुत  से  प्रभावित हुए|भारत लौटने पर, आयंगर ने प्लूटोनियम रिएक्टरों का ,जनवरी 1969 में, भारतीय राजनीतिक नेतृत्व द्वारा अनुमोदित विकास के बारे में निर्धारित किया था। गुप्त प्लूटोनियम संयंत्र पूर्णिमा के रूप में जाना जाता था,और निर्माण का कार्य मार्च 1969 में शुरू हुआ। संयन्त्र के नेतृत्व में आयंगर, रमन्ना, होमी सेठना और साराभाई शामिल थे।

  1. "इतिहास के पन्नों से..." मूल से 22 मई 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 21 मई 2018.