किसी धातु या मिश्रधातु से ढाले हुए वर्णमाला के अक्षरों को 'टाइप' (Type) कहते हैं। टाइप का समूह बनाकर और उसपर स्याही लगाकर छापने की कला को मुद्रण कला या टाइप कला (Typography) कहते हैं। छपाई की प्रमुख कला होने के नाते टाइप कला का आविष्कार मानव के सर्वोत्तम आविष्कारों में उल्लेखनीय है। विद्वानों की विद्वत्ता, बुद्धिमानों की बुद्धिमत्ता, नेताओं के आदेश, कलाकारों की कला, सभी को टाइपकला ने अमर बनाया है। मानव को वैज्ञानिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में प्रगति के पथ पर निरंतर अग्रसर करनेवाली यही कला है।

धातु से निर्मित 'टाइप' - ध्यान दें कि लिखावट को उल्टा पढ़ना पड़ेगा।

छपाई की विविध कलाओं में टाइपकला का स्थान अन्यतम है। इसकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी कलाएँ, लिथो ऑफसेट तथा फोटोग्रैव्योर अत्यधिक प्रगतिशील हैं। किंतु टाइप कला अपने विस्तृत क्षेत्र तथा अगण्य सुविधाओं का निवारण करने के जितने साधन टाइप कला में उपलब्ध हैं उतने छपाई की किसी और कला में नहीं हैं। टाइप से छापनेवाली मशीनें भी दूसरी कलाओं की मशीनों की तुलना में अत्यधिक तेज चलती हैं। टाइप कला से छपाई, कुछ प्रकार के रंगीन कार्यों को छोडकर, सस्ती भी पड़ती है। अतएव टाइप कला का प्रयोग पुस्तकों, समाचारपत्रों पत्रिकाओं, लेखनसामग्री, फार्म, डिब्बे, डिब्बियाँ इत्यादि छापने में व्यापक रूप से होता है। फोटोग्राफी अथवा यांत्रिक विधियों से चित्र बनाने तथा यंत्रों द्वारा टाइप को कंपोज (संयोजन) तथा फोटो चित्रों को कंपोज करने की प्रणालियों का विकास हो जाने के कारण टाइप कला की उपयोगिता अत्यधिक बढ़ गई है।

 
सन् १५६८ में जर्मनी के फ्रैंकफुर्त में टाइप-वुन्यास करते कलाकार
 
घूर्णी मशीन द्वारा मुद्रण

टाइप कला का आविष्कार मानव की प्रगति के आरंभिक पदचिह्नों के साथ साथ हुआ। अपनी आंतरिक भावनाओं को दूसरों पर व्यक्त करने के उद्देश्य से मानव ने शिलाओं पर आकार खोदना सीखा। अक्षरों तथा शब्दों के विकास के साथ साथ सुमेर, बैबीलोनिया, मिस्र, भारत, चीन और कोरिया में लकड़ी, शिला तथा धातु की मुहरें और ठप्पे प्रयोग में आने लगे। 11वीं शताब्दी में पी शिंग ने चीन में पहली बार मिट्टी को पकाकर टाइप बनाए। सीसा (lead), राँगा तथा सुरमा की मिश्रधातु से पहली बार गटनबर्ग ने जर्मनी में 15वीं शताब्दी में टाइप बनाए। उन्होंने छपाई का यंत्र तथा स्याही बनाकर टाइप कला का पूर्ण रूप से आविष्कार किया।

टाइप कला उपयोगी एवं औद्योगिक और औद्योगिक कला होने के साथ ही ललित कला भी है। अक्षरों, शब्दों, चित्रों तथा आकारों का प्रदर्शन, प्रस्तुत विषय के हेतु, ऐसे उपयुक्त ढंग से होना चाहिए कि जहाँ पढ़नेवालों को विषय का अभिप्राय ग्रहण करने में पूरी सहायता मिले, वहाँ सुंदरता और स्वच्छता का भी समावेश हो। पुस्तक या अन्य छपनेवाली वस्तु के विधान, परिमाण तथा खाके उसके विषय के अनुकूल ही होने चाहिए।

टाइप कला के निम्नलिखित तीन सिद्धांत माने गए हैं -

  • (३) पारिमाणिक (विस्तार, आकार तथा परस्पर अनुरूपता)
  • (२) वैधानिक (योजना, अभिकल्प तथा रचना)
  • (३) चाक्षुष (दृष्टि संबंधी)

पारिमाणिक सिद्धान्त के अनुसार पुस्तक या अन्य छपनेवाली वस्तुओं की माप (विस्तार), टाइप की माप, टाइप तथा ब्लाकों की आकृति और क्षेत्रफल इत्यादि व्यावहारिक ढंग से उपयुक्त होने चाहिए। इसके उपक्रम, कागज का पारिमाणिक माप, मुद्रण की मशीनों का माप तथा पढ़नेवालों की सुविधा है।

वैधानिक सिद्धांत के अनुसार छपनेवाली वस्तु की रूपरेखा पहले बना लेनी चाहिए और तदनतर उसे कार्यान्वित करना चाहिए। व्यावहारिक कठिनाइयों को दूर करने तथा मितव्यय की सीमाओं में रहते हुए मुद्रणकार्य विधिपूर्वक संपन्न करना चाहिए।

चाक्षुष सिद्धांत के अनुसार टाइप कला को ललित कलाओं की मर्यादाओं का पालन करना पड़ता है। अभिकल्प बनाने में स्याही, रंग, टाइप, आकृति, कागज की अनुरूपता, समतोलन तथा स्थिरता इत्यादि का यथोचित ध्यान रखना चाहिए। इस क्षेत्र में टाइप कला को ललित कलाओं की तरह हर नई विचारधारा को अपनाने के लिए प्रस्तुत रहना चाहिए।

आज के परमाणु युग में दूसरी कलाओं की भाँति टाइप कला भी प्रगतिशील है। सार्वजनिक यंत्रीकरण के साथ-साथ अणुयंत्रों ने इस कला पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया है। हस्तकौशल का स्थान अणुशक्तियाँ ग्रहण कर रही हैं, किंतु फिर भी टाइप कला पर से ललित कलाओं का प्रभुत्व प्राय: कभी नहीं हट सकेगा।

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