माचिस (1996 फ़िल्म)
माचिस गुलज़ार द्वारा निर्देशित 1996 की एक हिन्दी फ़िल्म है, जिसके निर्माता आर.वी पंडित हैं। ओम पुरी, तब्बू, चन्द्रचूड़ सिंह और जिमी शेरगिल फ़िल्म में मुख्य भूमिकाओं में हैं। यह फ़िल्म 1980 के दशक के मध्य पंजाब में सिख विद्रोह के समय में एक सामान्य व्यक्ति के आतंकवादी बन जाने के सफर पर केंद्रित है। फ़िल्म का शीर्षक "माचिस" एक अलंकार की तरह है, जो दर्शाता है कि कोई भी युवा माचिस की तरह होता है, जो राजनीतिज्ञों या नीति-निर्माताओं की खामियों की वजह से कभी भी जल सकता है।
माचिस | |
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फ़िल्म का पोस्टर | |
निर्देशक | गुलज़ार |
लेखक | गुलज़ार |
निर्माता | आरवी पंडित |
अभिनेता | |
छायाकार | मनमोहन सिंह |
संपादक |
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संगीतकार | विशाल भारद्वाज |
वितरक | एरोस एंटरटेनमेंट |
प्रदर्शन तिथियाँ |
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लम्बाई |
167 मिनट 37 सेकंड[1] |
देश | भारत |
भाषा | हिन्दी |
लागत | ₹2.5 करोड़[2] |
कुल कारोबार | ₹6.38 करोड़[2] |
माचिस को समीक्षकों से सकारात्मक प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई, तथा बॉक्स आफिस पर भी यह सफल रही। 2.5 करोड़ रुपये के बजट पर बनी इस फ़िल्म ने कुल 6.38 करोड़ रुपये का व्यापार किया, और इसे बॉक्स आफिस इंडिया द्वारा "एवरेज" घोषित किया गया। गुलज़ार के निर्देशन तथा विशाल भारद्वाज के संगीत फ़िल्म के प्रमुख बिंदु थे। रिलीस के कई वर्षों बाद तक भी फ़िल्म के कई गीत, प्रमुखतः "चप्पा चप्पा चरखा चले" तथा "छोड़ आये हम वो गालियां" एफएम रेडियो या टीवी पर सुने जाते थे। विशाल भारद्वाज ने भी इस फ़िल्म के बाद निर्देशन के क्षेत्र में हाथ आजमाना प्रारम्भ किया और मक़बूल, ओमकारा तथा हैदर जैसी प्रसिद्ध फिल्मों का निर्देशन किया।
कथानक
संपादित करेंजसवंत सिंह रंधावा (राज जुत्शी) और उसकी बहन विरेन्द्र "वीरां" (तब्बू) पंजाब के एक छोटे से गांव में अपनी बुजुर्ग माता के साथ रहते हैं। कृपाल सिंह (चन्द्रचूड़ सिंह) जसवंत के बचपन का दोस्त और वीरां का मंगेतर हैं, और वह अपने दादाजी के साथ उनके घर के पास ही रहता है।
एक दिन सहायक पुलिस आयुक्त खुराना और इंस्पेक्टर वोहरा की अगुआई में पुलिस उनके गांव में जिमी (जिमी शेरगिल) की तलाश में आती है, जिसने कथित तौर पर भारतीय सांसद केदारनाथ की हत्या करने का प्रयास किया था। जसवंत मज़ाक करते हुए पुलिस को अपने कुत्ते, जिमी की तरफ ले जाता है, जिस कारण मारे अपमान के खुराना और वोहरा जसवंत को पूछताछ के लिए अपने साथ ले जाते हैं। जब जसवंत कई दिनों तक वापस नहीं आता, तो जसवंत के परिवार की देखभाल करते हुए कृपाल जसवंत को ढूंढने के लिए क्षेत्र के सभी पुलिस स्टेशनों के चक्कर काटता है। जब जसवंत अंततः 15 दिनों के बाद वापस आता है, तो पुलिस द्वारा किये गए अत्याचारों के कारण बुरी हालत में होता है, जिससे कृपाल क्रोधित हो जाता है।
पुलिस की क्रूरता से लड़ने के लिए जब कृपाल किसी भी कानूनी साधन की मदद प्राप्त करने में असमर्थ हो जाता है, तो वह अपने चचेरे भाई जीते को ढूंढने निकल जाता है, जो आतंकवादी समूहों के साथ संबंध रखता है। जीते को खोजते समय कृपाल की मुलाकात सनाथन (ओम पुरी) से होती है, जिसे वह एक बस में बम लगाते हुए देख लेता है। एक ढाबे में वह सनाथन से फिर मिलता है, जहां वह सनाथन से अपनी कहानी सुनने का आग्रह करता है। सनाथन उसे कमांडर (कुलभूषण खरबंदा) द्वारा संचालित अपने ट्रक पर यात्रा करने की सहमति दे देता है, जिसमें वह घरेलू निर्मित बमों और दो उग्रवादियों को ले जा रहा होता है। उनके ठिकाने पर पहुंचने पर, कृपाल उन्हें अपनी दुर्दशा बताता है, और तब उसे पता लगता है कि जीते को पुलिस का मुखबिर होने की वजह से कमांडर ने मार चुका होता है। कृपाल की पृष्ठभूमि, परिवार और उसकी दुर्दशा के बारे में जानने के बाद, कमांडर कृपाल को डांटते हुए कहता है कि वे लोग पेशेवर हत्यारे नहीं हैं। वह कृपाल से खुद ही खुराना को मार देने के लिए कहता है, और साथ ही आश्वस्त करता है कि उसका समूह कृपाल की यथासंभव रक्षा करेगा।
कृपाल धीरे-धीरे बाकी समूह और सनाथन की नज़रों में सम्मान कमाता है, जो उसे बताते हैं कि वे लोग राष्ट्रवादी या धार्मिक कारणों के लिए नहीं, बल्कि अपने मूल नागरिक अधिकारों और आत्म सम्मान के लिए ये लड़ाई लड़ रहे हैं। सनाथन उसे कहता है कि वह ऐसी प्रणाली के खिलाफ लड़ रहा है, जो निर्दोष लोगों का शिकार करती है, और सामान्य लोगों के मूल्यों को कम कर देती है। बाद में कृपाल को पता चला है कि सनथान 1947 में भारत के विभाजन के साथ हुआ सांप्रदायिक हिंसा का एक उत्तरजीवी है, जिसने 1984 के सिख विरोधी दंगों में अपने अधिकांश परिवार को खो दिया था। सनाथन का दावा है कि यह केवल शासक वर्ग है, जो राजनीतिक लाभ के लिए समाज को विभाजित करने की कोशिश कर रहा है।
समूह के साथ ट्रेनिंग करते हुए कृपाल खुराणा की हत्या की योजना बनाता है। इसके एक वर्ष बाद वह एक व्यस्त बाजार में सबके सामने खुराना की हत्या कर देता है। गायब हो जाने से पहले वह जसवंत और वीरां से एक अंतिम बार मिलने जाता है। जब कृपाल समूह के ठिकाने पर वापस लौटकर आता है, तो उस जगह को खाली पाता है। कुछ दिनों तक छुपे रहने के बाद, समूह का एक सदस्य उससे संपर्क करता है, और बताता है कि कमांडर ने हिमाचल प्रदेश में समूह का नया ठिकाना बना लिया है। कमांडर कृपाल को बताता है कि पुलिस को उस पर शक हो चुका है, और वे लोग जसवंत को फिर से पूछताछ के लिए ले गए थे।
कृपाल को धीरे-धीरे पता चलता है कि सामान्य जीवन में वापसी के सभी रास्ते उसके लिए बंद हो चुके हैं, और वह उस समूह को ही अपना परिवार मानने लगता है, जो अब एक नए मिशन की तैयारी कर रहा है और एक मिसाइल फायरिंग विशेषज्ञ के आगमन का इंतजार कर रहा है। जब कृपाल स्थानीय क्षेत्र में एक नौकरी के लिए आवेदन करता है, तो सनाथन उसे चेतावनी देते हुए कहता है कि मीडिया की नजर में वह अब एक आतंकवादी है, और पुलिस अधिकारियों की नजरों में पदोन्नति का एक साधन। समूह के सदस्यों में से एक, कुलदीप का सामना पुलिस से होता है, जिसमे वह बुरी तरह से चोटिल हो जाता है। इस अनुभव से भयभीत होकर कुलदीप सनाथन से अपने घर जाने की अनुमति मांगता है, और वहां पहुंचकर कनाडा में प्रवास कर जाने का वादा करता है। सनाथन अनिच्छा से उसे सहमति दे देता है, और एक बम उसके बैग में डाल देता है, जिससे वह रास्ते में ही मर जाता है।
इस बीच, कृपाल को पता चलता है कि उसका एक साथी, जयमल सिंह ही वास्तव में जिमी है जिसकी तलाश में पुलिस उस दिन जसवंत के घर आई थी थी। इसके तुरंत बाद, मिसाइल शूटर वहां आता है और तब कृपाल को यह पता चलता है कि वह कोई और नहीं बल्कि उसकी मंगेतर वीरां है। अंततः जब उन दोनों को एक दिन अकेले समय मिलता है, तो वीरां कृपाल को बताती है कि खुराना की हत्या के बाद जसवंत को जब पूछताछ के लिए ले जाया गया था, तो वहां उसे बुरी तरह पीटा गया था, जिसके बाद उसने जेल में आत्महत्या कर ली थी। इस त्रासदी के बारे में सुनते ही उनकी मां की भी मृत्यु हो गई, और इंस्पेक्टर वोहरा रोज़ उनके घर आने लगा, जिससे परेशान होकर वीरां ने भी कृपाल के नक्शेकदम पर चलने का फैसला किया और उससे मिलने का प्रयास करने लगी। कृपाल और वीरां के बीच नज़दीकी फिर से बढ़ने लगती है।
मिशन का खुलासा सांसद केदारनाथ को मारने की साज़िश के रूप में होता है, जो अपनी पिछली स्थानीय सिख तीर्थ की यात्रा के समय जिमी के हाथों बच गया था। एक साथ रहने के दौरान, कृपाल और वीरां चुपचाप शादी करने का फैसला करते हैं, और वीरां कृपाल की साइनाइड की गोली चुपचाप चुरा लेती है, जो कि समूह के प्रत्येक सदस्य को पुलिस द्वारा पकड़े जाने की स्थिति में इस्तेमाल करने को दी गयी थी। गुप्त रूप से सिख तीर्थ का दौरा करते समय कृपाल कांस्टेल इंस्पेक्टर वोहरा को देखता है, जिसे केदारनाथ की यात्रा के लिए सुरक्षा का प्रभार दिया गया है। कृपाल उसके घर तक वोहरा का पीछा करता है, लेकिन उसे मारने का प्रयास करते हुए पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया जाता है।
इस बीच, समूह का एक सदस्य कृपाल को वोहरा के निवास में प्रवेश करते देख लेता है। यह तर्क देते हुए कि कृपाल अगर वफादार होता, तो उसने खुद को मारने के लिए साइनाइड की गोली ले ली होती, सनाथन ने निष्कर्ष निकाला कि कृपाल एक पुलिस मुखबिर था। इसके बाद उसने वीरां पर कृपाल की मदद करने के आरोप लगाया और उस पर नज़र रखने का आदेश दिया। मिशन के दिन, सनाथन ने समूह को आगे बढ़ने का आदेश दिया और वजीरेन को वीरां को मारने के लिए कहा हालांकि, वीरां ने मुक्त टूटकर वाजिरेन को मार दिया। इस बीच, जयमल और सनाथन मिशन पर निकल पड़े। जयमल तो एक पुल पर केदार नाथ के मोटरकैड को रोकते हुए मार दिया गया, जबकि सनाथन ने केदार नाथ की कार उड़ा देने के लिए मिसाइल चला दी। कब सनाथन वहां से भाग निकलने का प्रयास करता है, तो वीरां उसका पीछा कर उसे मार देती है।
फिल्म वीरां के साथ समाप्त होती है, जो अब तक समूह के सदस्य के रूप में उजागर नहीं हुई है। वह कृपाल से मिलने जेल में जाती है, और वहां जाकर कृपाल को इसकी साइनाइड की गोली देकर अपनी वाली गोली खा लेती है।
पात्र
संपादित करें- तब्बू - वीरेन्द्र कौर (वीरां)
- चन्द्रचूड़ सिंह[3] - कृपाल सिंह
- ओम पुरी - सनाथन
- कुलभूषण खरबंदा - कमांडर
- कंवलजीत सिंह - इंस्पेक्टर वोहरा
- एस एम ज़हीर - खुराना
- राज जुत्शी - जसवंत सिंह रंधावा (जस्सी)
- जिमी शेरगिल[4] - जयमल सिंह (जिमी)
- रवि गोसाईं - कुलदीप
- सुनील सिंह - वज़ीर सिंह
- अमरीक गिल - नानू
- नवींद्र बहल - वीरां की माता
रिलीज़
संपादित करेंफिल्म 25 अक्टूबर 1996 को रिलीज़ हुई। फिल्म को केन्द्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड द्वारा बिना किसी कट के जारी कर दिया गया था, हालांकि कुछ राजनीतिज्ञों ने फिल्म की रिलीज़ पर आपत्ति जताते हुए कहा था कि इसमें पंजाब में आतंकवाद का एक विकृत दृष्टिकोण दर्शाया गया है।[5]
संगीत
संपादित करेंसभी गीत गुलज़ार द्वारा लिखित; सारा संगीत विशाल भारद्वाज द्वारा रचित।
माचिस – कैसेट रिलीज़ | |||
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क्र॰ | शीर्षक | गायक | अवधि |
1. | "छोड़ आये हम" | हरिहरन, सुरेश वाडेकर, विनोद सहगल, केके | 05:17 |
2. | "तुम गए" | लता मंगेशकर, संजीव अभ्यंकर | 04:55 |
3. | "याद ना आये" | लता मंगेशकर | 04:46 |
4. | "ऐ हवा" | लता मंगेशकर | 06:34 |
5. | "पानी पानी रे" | लता मंगेशकर | 05:10 |
6. | "तुम गए" | हरिहरन | 04:55 |
7. | "भेज कहार" | लता मंगेशकर | 03:25 |
8. | "चप्पा चप्पा" | हरिहरन, सुरेश वाडेकर | 04:28 |
9. | "माचिस थीम ओपनिंग" | 01:50 | |
10. | "माचिस थीम क्लोजिंग" | 02:58 | |
कुल अवधि: | 57:16 |
माचिस – सीडी रिलीज़ (पार्श्व संगीत) | ||
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क्र॰ | शीर्षक | अवधि |
11. | "आफ्टर टार्चर (प्रथम)" | 00:57 |
12. | "द एस्केप" | 01:08 |
13. | "गोइंग होम" | 00:44 |
14. | "फ्लेवर ऑफ़ मनाली" | 02:33 |
15. | "आफ्टर द टार्चर (द्वितीय)" | 01:34 |
16. | "रीयूनियन" | 02:19 |
17. | "कॉन्फेशन" | 00:51 |
18. | "साइनाइड" | 01:09 |
19. | "जेल" | 02:23 |
कुल अवधि: | 57:56 |
परिणाम
संपादित करेंबॉक्स ऑफिस
संपादित करेंबॉक्स आफिस पर फ़िल्म को धीमी शुरुआत मिली। रिलीस के दिन फ़िल्म ने 5 लाख रुपये का व्यापार किया। इसके बाद दूसरे दिन और तीसरे दिन की कमाई जोड़कर फ़िल्म की पहले सप्ताहांत की कमाई 22 लाख रुपये रही। फ़िल्म ने अपने पहले सप्ताह में 43,75,000 रुपये की कमाई करी। अपने पूरे प्रदर्शन काल में फ़िल्म ने कुल 6,37,81,250 रुपये का व्यापार किया। कुल कमाई के आधार पर 2.5 करोड़ रुपये में बनी इस फ़िल्म को एवरेज घोषित किया गया।
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ "MAACHIS - BBFC" (अंग्रेज़ी में). ब्रिटिश बोर्ड ऑफ फ़िल्म सर्टीफिकेशन. मूल से 14 अप्रैल 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 अप्रैल 2018.
- ↑ अ आ "MAACHIS - Box Office India". बॉक्स आफिस इंडिया. मूल से 13 अप्रैल 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 अप्रैल 2018.
- ↑ वर्मा, वंदना (11 अप्रैल 2017). "सुपरहिट 'माचिस' का वह बिसरा हुआ हीरो अब दिल्ली की गलियों में क्यों दिख रहा है..." एनडीटीवी इंडिया. मूल से 13 अप्रैल 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 अप्रैल 2018.
- ↑ मिश्रा, सर्वेश्वरी. "गोरखपुर के जिमी शेरगिल का 'माचिस' से 'मदारी' तक का सफर". वाराणसी: पत्रिका. मूल से 14 अप्रैल 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 अप्रैल 2018.
- ↑ Bose, Brinda (2006). Gender and Censorship (अंग्रेज़ी में). New Delhi: Women Unlimited, Kali for Women. पृ॰ 321. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788188965144. मूल से 13 अप्रैल 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 अप्रैल 2018.