ब्राह्मणवाद

तल्लो वर्ण वा जातिमाथि ब्राह्मणहरूको भेदभावको नीति
(ब्राह्मणधर्म से अनुप्रेषित)

ब्राह्मणवाद (अंग्रेजी: Brahminism) भारत में ब्राह्मणों के पुरोहित वर्ग द्वारा ऐतिहासिक रूप से प्रचारित किए गए धार्मिक विचारों और विचारधारा को संदर्भित करता है। इसका उपयोग भारतीय समाज के उनके वर्चस्व और उनकी हिंदू विचारधारा के संदर्भ में किया जा सकता है। [1]

ऐतिहासिक रूप से, और अभी भी कुछ आधुनिक लेखकों द्वारा, इस शब्द का उपयोग अंग्रेजी में हिंदू धर्म का उल्लेख करने के लिए किया गया था। 18 वीं और 19 वीं शताब्दी में, ब्राह्मणवाद हिंदू धर्म के लिए अंग्रेजी में सबसे आम शब्द था, और लोगों पर लागू होने पर "हिंदू" का अर्थ "भारतीय" था। वास्तव में भारतीय वामपंथ अक्सर अंग्रेजों को दोषी ठहराता है, विशेष रूप से स्वतंत्रता से पहले भारत की जनगणना के जिम्मेदार, न केवल इस शब्द का आविष्कार करने के लिए बल्कि एक धर्म के रूप में "हिंदू धर्म" की अवधारणा के लिए।

आधुनिक भारत में, जो लोग समानता पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के लिए काम करते हैं या उनकी इच्छा रखते हैं, वे 'ब्राह्मणवाद' शब्द का उपयोग करते हैं। बीआर अंबेडकर, जिन्होंने बाद में फरवरी, 1938 में एक भाषण में भारतीय संविधान की मसौदा समिति की अध्यक्षता की, ने इस शब्द का अर्थ "स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की भावना की उपेक्षा" बताया। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि इस शब्द का अर्थ एक समुदाय के रूप में ब्राह्मणों की शक्ति, विशेषाधिकारों और हितों से नहीं है। ब्राह्मणवाद एक ऐसी मनोवृत्ति है जिसके तहत व्यक्ति सम्मान, सुरक्षा, समृद्धि, स्वास्थ्य व शिक्षा के मामले में अपने अलावा और किसी को अपनी जगह पसन्द नहीं करता। लोग कहते हैं कि ऐसी मनोवृत्ति किसी भी देश के लिए जानलेवा है। यह मनोवृत्ति किसी में भी हो सकती है। इससे पीड़ित लोग इसे जातंकवाद कहते हैं। वे बताते हैं कि जाति पूछकर या जानकर आतंकित करना जातंकवाद होता है। जैसे- जाति पूछकर मूंछ रखने पर प्रताड़ित करना,घोड़ी पर न चढ़ने देना, बाल काटने से मना कर देना, पानी का मटका छू लेने पर मार-पीट करना, उनके हाथ से बना या छुआ न खाना न पीना, जाति जानकर परीक्षा में कम अंक देना, नौकरियों में चयन न होने देना, प्रमोशन न होने देना।

देश को बचाने के लिए ऐसी सोच से बाहर आना बहुत जरूरी है।

इन्हें भी देखें

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