बाणभट्ट
बाणभट्ट या बाण भट्ट सातवीं शताब्दी के संस्कृत गद्यकार और कवि थे। वह राजा हर्षवर्धन के "आस्थान कवि" थे। उनके दो प्रमुख ग्रंथ हैं: हर्षचरितम् तथा कादम्बरी। हर्षचरितम्, राजा हर्षवर्धन का जीवन-चरित्र है और कादंबरी विश्व का पहला उपन्यास।[1] कादंबरी पूर्ण होने से पहले ही बाणभट्ट का देहान्त हो गया और इसे उनके पुत्र पुलिनभट्ट ने पूरा किया। दोनों ग्रंथ संस्कृत साहित्य के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माने जाते है।[2] बाण ने किसी भी कथनीय बात को छोड़ा नहीं जिसके कारण कोई भी पश्चाद्वती लेखक बाण को अतिक्रांत न कर सका। कवि की सर्वतोमुखी प्रतिभा, व्यापक ज्ञान, अद्भुत वर्णन शैली और प्रत्येक वर्ण्य-विषय के सूक्ष्मातिसूक्ष्म वर्णन के आधार पर यह सुभाषित प्रचलित है कि बाण ने किसी वर्णन को अछूता नहीं छोड़ा है और उन्होंने जो कुछ कह दिया, उससे आगे कहने को बहुत कुछ शेष नहीं रह जाता। बाण ने जितनी सुन्दरता, सहृदयता और सूक्ष्मदृष्टि से बाह्य प्रकृति का वर्णन किया है, उतनी ही गहराई से अन्तः प्रकृति और मनोभावों का विश्लेषण किया है। उनके वर्णन इतने व्यापक और सटीक होते हैं, कि पाठक को यह अनुभव होता है कि उन परिस्थितियों में वह भी ऐसा ही सोचता या करता। प्रातः काल वर्णन, सन्ध्यावर्णन, शूद्रकवर्णन, शुकवर्णन, चाण्डालकन्या वर्णन आदि में बाण ने वर्णन ही नहीं किया है, अपितु प्रत्येक वस्तु का सजीव चित्र उपस्थित कर दिया है। चन्द्रापीड को दिये गये शुकनासोपदेश में तो कवि की प्रतिभा का चरमोत्कर्ष परिलक्षित होता है। कवि की लेखनी भावोद्रेक में बहती हुई सी प्रतीत होती है। शुकनासोपदेश में ऐसा प्रतीत होता है मानो सरस्वती साक्षात मूर्तिमती होकर बोल रही हैं।
बाण भट्ट का संस्कृत महाकवियों में का विशिष्ट महत्त्व है। उत्कृष्ट गद्यकाव्यकार के रूप में उन्हें सर्वोच्च स्थान दिया गया हैं। इसके अतिरिक्त, ऐतिहासिक दृष्टि से भी उनको अपूर्व विशेषता प्राप्त है। संस्कृत इतिहास के वे ऐसे अकेले कलाकार हैं जिनके जीवनवृत्त के विषय में हमें बहुत सी प्रामाणिक जानकारी प्राप्त है, जो प्राय: उन्हीं के ग्रंथों में उपलब्ध है। हर्षकालीन राजनीतिक और सामाजिक अनेक विषयों के ज्ञान और सूचना देने के कारण हर्षचरित का विशेष महत्त्व है। यह भी पता चलता है कि बाण का काल हर्षवर्धन के शासनकाल (606 ई. से 646 ई.) के आसपास ही था। उस युग में कवि ने काव्यरचना भी की थी। हर्षचरित के तीन आरंभिक उच्छ्वासों तथा कादम्बरी के आरंभिक पद्यों में बाण के वंश और जीवनवृत्त से संबद्ध जो सूचना मिलती है उसका सारांश यह है ।
जीवन परिचय
संपादित करेंमहाकवि बाणभट्ट ने गद्यरचना के क्षेत्र में वही स्थान प्राप्त किया है जो कि कालिदास ने संस्कृत काव्य क्षेत्र में। पाश्चाद्वर्ती लेखकों ने एक स्वर में बाण पर प्रशस्तियों की अभिवृष्टि की है।
आर्यासप्तति के लेखक गोवर्धनाचार्य का कथन है-
- जाता शिखंडिनी प्राग्यथा शिखंडी तथावगच्छामि।
- प्रागल्भ्यमधिकमाप्तुं वाणी बाणी बभूवेति।
तिलकमञ्जरी के लेखक धनपाल की प्रशस्ति इस प्रकार है-
- केवलोऽपि स्पफुरन् बाणः करोति विमदान् कवीन्।
- किं पुनः क्लृप्तसन्धानपुलिन्दकृतसन्निधिः।।
त्रिलोचन ने निम्नलिखित पद्य में बाण की प्रशंसा की है-
- हृदि लग्नेन बाणेन यन्मन्दोऽपि पदक्रमः।
- भवेत् कविवरंगाणां चापलं तत्रकारणम्।।
राघवपाण्डवीय के लेखक कविराज के अनुसार-
- सुबन्धुर्वाणभट्टश्च कविराज इति त्रयः।
- वक्रोक्तिमार्ग निपुणश्चतुर्थो विद्यते न वा।।
पश्चाद्वर्ती लेखकों की अनन्त प्रशस्तियों में ये कुछ ही हैं।
बाण संस्कृत के कुछ गिने-चुने लेखकों में से एक हैं जिनके जीवन एवं काल के विषय में निश्चित रूप से ज्ञात है। कादम्बरी की भूमिका में तथा हर्षचरितम् के प्रथम दो उच्छ्वासों में बाण ने अपने वंश के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक सूचना दी है।
सोन नदी (प्राचीन हिरण्यबाहु) के तट पर स्थित भवर सेन नाम के ग्राम में वात्स्यायनगोत्रीय विद्वद्ब्राह्मण कुल में बाणने जन्म लिया। प्रितिकूट को वर्तमान में मध्य प्रदेश के सीधी जिलान्तर्गत भवर सेन नामक गाँव के रूप में पहचाना गया है जो गंगा और सोन नदियों के संगम के दक्षिण में सोन नद के पूर्वी तट पर स्थित है (सीधी की कहानी)। बाण अपने वंश का उद्भव सरस्वती तथा दधीचि के पुत्र सारस्वत के भाई वत्स से बतलाते हैं। वत्स का वंशज कुबेर था जिसका चतुर्थ पुत्र पाशुपत बाण का प्रपितामह था। बाण के पितामह का नाम अर्थपति था जिनको ग्यारह पुत्र हुए। बाण के पिता का नाम चित्रभानु था। बाण के शैशवकाल में ही उनकी माता राज्यदेवी की मृत्यु हो गई। उनका पालन-पोषण उनके पिता के द्वारा ही हुआ। बाण अभी चौदह वर्ष के ही थे कि उनके पिता उनके लिए कापफी सम्पत्ति छोड़कर चल बसे।
यौवन का प्रारम्भ एवं सम्पत्ति होने के कारण, बाण संसार को स्वयं देखने के लिए घर से चल पड़े। उन्होंने विभिन्न प्रकार के लोगों से सम्बन्ध स्थापित किया। अपने समवयस्क मित्रों तथा साथियों में बाण ने प्राकृत के कवि ईशान, दो भाट, एक चिकित्सक का पुत्र, एक पाठक, एक सुवर्णकार, एक रत्नाकर, एक लेखक, एक पुस्तकावरक, एक मार्दगिक, दो गायक, एक प्रतिहारी, दो वंशीवादक, एक गान के अध्यापक, एक नर्तक, एक आक्षिक, एक नट, एक नर्तकी, एक तांत्रिक, एक धातुविद्या में निष्णात और एक ऐन्द्रजालिक आदि की गणना की है। कई देशों का भ्रमण करके वह अपने स्थान प्रीतिकूट लौटा। वहां रहते हुए उन्हें हर्षवर्धन के चचेरे भाई कृष्ण का एक सन्देश मिला कि कुछ चुगलखोरों ने राजा से बाण की निन्दा की है इसलिए वे तुरन्त ही राजा से मिलने गए और दो दिन की यात्रा के पश्चात् अजिरावती के तट पर राजा को मिले। प्रथम साक्षात्कार में बाण को बहुत निराशा हुई क्योंकि सम्राट के साथी मालवाधीश ने कहा ‘अयमसौभुजङ्गः’ (यह वही सर्प (दुष्ट) है) अस्तु, बाण ने अपनी स्थिति का स्पष्टीकरण किया और सम्राट् उससे प्रसन्न हुए सम्राट के साथ कुछ मास रहकर बाण वापिस लौटा और उन्होंने प्रस्तुत हर्षचरित के रूप में हर्ष की जीवनी लिखनी प्रारम्भ की।
बाण की आत्मकथा यहां समाप्त हो जाती है और बाण के अन्तिम समय के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। परन्तु ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि बाण को राजसंरक्षण मिला और उन्होंने भी हर्ष चरित लिखकर उसका मूल्य चुका दिया। बाण का भूषणभट्ट अथवा भट्टपुलिन्द नाम का एक पुत्र था जिसने बाण की मृत्यु के पश्चात कादम्बरी को सम्पूर्ण किया।अत: कादम्बरी को दो लेखकों ने पूर्ण किया।
उनके पूर्वज भट्ट तैतरीय शाखा के उदुम्बर वंश ब्राह्मण थे। सोननदी के किनारे "प्रीतिकूट" में उनके पूर्वजों का निवास था। इसी वंश में इनके वृद्ध प्रपितामह हुए थे। उनका नाम "कुबेर" था और गुप्तवंशीय राजाओं द्वारा उन्हें सम्मान प्राप्त हुआ था। उनके पुत्रों में पाशुपात के अनेक पुत्र थे। उनमें से अर्थपति एक था जिसके 11 पुत्रों में चित्रभानु थे। इन्हीं के पुत्र थे बाण भट्ट। इनकी माता राजदेवी का देहांत तभी हो गया था जब बाण शिशु थे। इनका परिवार धनसंपन्न था। माता के निधन पर चित्रभानु ने माता पिता दोनों के वात्सल्य और कर्तव्य का भार उठाया। बाण जब 14 वर्ष के थे तभी पिता का स्वर्गवास हो जाने से बड़े दु:खी हुए। पैतृक धन, वैभव, योग्य अभिभावक का अभाव और युवावस्था की चपलता के कारण वे आखेट आदि के व्यसनों में पड़ गए। घुमक्कड़ी प्रकृति और अल्हड़ता के कारण वे आवारा होकर कुसंगति में जा पड़े। नत्र्तक, गायक, नट, विट आदि मंडली बनाकर वे देशाटन को निकल पड़े। जब घूम फिर कर वापस आए जब स्वार्जित अनुभूतियों के कारण उनकी बुद्धि विकसित हुई। जब वे हर्ष के यहाँ पहुँचे तो पहले तो "हर्ष" ने उनपर व्यंग्य कसे तथा उनकी अवहेलना की। पर बाद में "बाण" के शास्त्रज्ञान ओर काव्यप्रतिभा से प्रभावित होकर उनहें राजसभा में आश्रय, सम्मान और अपना स्नेह दिया। कुछ समय बाद घर लौटने पर लोगों द्वारा और अपने छोटे भाई के बार बार पूछने पर उन्होंने "हर्ष" की प्रशस्ति में "हर्षचरित" नामक गद्यकाव्य लिखा।
बाण का कार्यकाल
संपादित करेंबाण के काल निर्णय में कोई कठिनाई नहीं है। हर्षचरित के प्रारम्भ में वे हर्ष को राज्य करता हुआ राजा बतलाते हैं-
- जयति ज्वलत्प्रतापज्वलनप्राकारकृतजगद्रश।
- सकलप्रणयिमनोरथसिद्धि श्रीपर्वती हर्षः।।
हर्ष के वंश का वर्णन उदाहरणतः प्रभाकरवर्धन एवं राज्यवर्धन के नाम यह निःसन्देह सिद्ध करते हैं कि बाण कन्नौज के सम्राट हर्षवर्धन (606-646) के राजकवि थे। बाण का यह काल बाह्य साक्ष्यों से भी साम्य रखता है। बाण का उल्लेख 9वीं शताब्दी में अलंकार शास्त्र के ज्ञाता आनन्दवर्धन ने किया। सम्भवतः बाण आनन्दवर्धन से बहुत पहले हो चुके थे। वामन (750 ईस्वी) ने भी बाण का उल्लेख किया। गौड़वाहो के लेखक वाक्पति राज (734 ईस्वी) भी बाण की प्रशंसा करते हैं।
महाकवि बाण भट्ट की कृतियां
संपादित करेंकादम्बरी और हर्षचरितम् के अतिरिक्त कई दूसरी रचनाएँ भी बाण की मानी जाती हैं। उनमें से मार्कण्डेय पुराण के देवी महात्म्य पर आधारित दुर्गा का स्तोत्र चंडीशतक है। प्रायः एक नाटक ‘पार्वती परिणय’ भी बाण द्वारा रचित माना जाता है। परन्तु वस्तुतः इसका लेखक कोई पश्चाद्वर्ती वामन भट्टबाण है।
बाण भट्ट के सर्वाधिक प्रसिद्ध दो ग्रंथ (1) हर्षचरित (बाण के अनुसार ऐतिहासिक कथा से संबद्ध होने के कारण आख्यायिका) और (2) कादंबरी (कल्पित वृत्ताश्रित होने से कथा) हैं। "हर्षचरित" को कुछ लोग ऐतिहासिक कृति मानते हैं। परंतु शैली, वृत्तवर्णन, कल्पनात्मकता और कथारूढ़ियों (मोटिफ) के प्रयोग विनियोग के कारण इसे "ऐतिहासिक रोमांस" कहना कदाचित् असंगत न होगा। कादंबरी का आधार कल्पित कथा है। "सुबंधु" ने गद्यकाव्य की जिस अलंकृत शैली को प्रवर्तित किया, बाण ने उसे विकसित और उन्नत बनाया। कादंबरी में उसका उत्कृष्टतम रूप निखर उठा है। संस्कृत गद्यकाव्यों में इस कथाकाव्य का स्थान अप्रतिम है। इन दोनों कृतियों में तत्कालीन धर्म, संस्कृति, समाज, परंपरा, आस्थाविश्वास, कला, साहित्य, मनोरंजन, राजकीय वैलासिक जीवन आदि का इतना संश्लिष्ट, ब्योरेवार और जीवंत चित्र है जैसा अन्यत्र दुर्लभ है। बाण की भाषा शैली प्रौढ़ है, यद्यपि विशेषणों की बहुलता को आडंबर बताकर अनेक आलोचकों ने उसे बोझिल, गतिहीन और अल्पसार बताया है। अंशत: यह सही भी है किंतु आलंकारिक चमत्कारसर्जना युक्त उनकी वर्णनशैली में विशेषण प्रयोग अर्थहीन नहीं हैं। वर्ण्यवस्तु का चित्रोत्थापक और व्योरेवार वर्णन इस कारण लंबा चौड़ा हो गया है जिससे शब्दों द्वारा अंकित संश्लिष्ट बिंब के सभी रंगों और रेखाओं का सूक्ष्मतम चित्रण किया जा सके : चित्रग्राहिणी प्रतिभा की सूक्ष्म निरीक्षणशक्ति से संपन्न बाण को बिंबोत्थापन में जो सफलता मिली है, वह संस्कृत साहित्य में कदाचित किसी को भी नहीं मिली। इन कृतियों को, इन्हीं ब्योरेवार वर्णन के कारण, तत्कालीन सांस्कृतिक इतिवृत्त का अनुपम साधन कहा जा सकता है। उनकी शैली में वर्णननैपुण्य, निरीक्षणप्रज्ञा, कवि प्रतिभा, शास्त्रवैदुय्य, रसभावघनता, अलंकारचमत्कृति, रीतिप्रौढ़ता आदि गुणों का पूर्ण उन्मेष है। लंबे लंबे, विशेषण डंबरित और समासजटिल भाषाशैली की रचना में वे जितने पटु और समर्थ हैं। उतने ही कुशल और सफल हैं समासहीन और प्रभावोत्पादन में छोटे छोटे लघुतम वाक्यों के अत्यंत समर्थ प्रयोग में। कोमलकांत पदावली और ओज:क्रातिमयी शब्दयोजना में भी उनकी शक्ति विलक्षण थी। कादंबरी उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना है। पर इसकी कथा कुछ उलझी हुई है। पूर्वार्ध की ही रचना (जो ग्रंथ का 2/3 भाग है) बाण कर पाए थे। शायद इस कारण भी कथा सुलझ न पाई। इनके पुत्र पुंदि (भूषण) ने सफलतापूर्वक उत्तरार्ध लिखकर इसे पूरा किया। पिता की शैली के अनुकरण में उन्हे आंशिक सफलता ही मिली। कहा जाता है कि पद्य में भी "बाण" ने कादंबरी कथा लिखी थी। पर उक्त ग्रंथ अबतक अप्राप्त है। "चंडीशत" नामक स्तोत्र को बाणरचित माना जाता है। ("पार्वती परिणय" नाटक को भी कुछ पंडित बाणकृत मानते हैं। पर कुछ शोधकों ने उसे 14वीं शती के वामनभट्ट बाण की कृति माना है)।
शैली
संपादित करेंएक विद्वान आलोचक के अनुसार विशेषणबहुल वाक्य रचना में, श्लेषमय अर्थों में तथा शब्दों के अप्रयुक्त अर्थों के प्रयोग में ही बाण का वैशिष्ट्य है। उनके गद्य में लालित्य है और लम्बे समासों में बल प्रदान करने की शक्ति है। वे श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, सहोक्ति, परिसंख्या और विशेषतः विरोधाभास का बहुलता से प्रयोग करते है। जैसा कि अच्छोदसरोवर के उल्लेख से स्पष्ट है उनका प्रकृति वर्णन तथा अन्य प्रकार के वर्णन करने पर अधिकार है। कादम्बरी में शुकनास तथा हर्षचरितम् के प्रभाकरवर्धन की शिक्षाओं से बाण का मानव प्रकृति का गहन अध्ययन सुस्पष्ट है।
बाण की शब्दावली विस्तृत है और प्रायः वह एक शब्द के सभी पर्यायों का प्रयोग करते हैं। उन्होंने ‘ध्वनि’ के लिए 19 शब्दों का प्रयोग किया है। इसी प्रकार विशेषणों के प्रयोग में बाण निष्णात हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि विशेषणों का अन्त नहीं होगा। उनके वर्णन जैसे उज्जयिनी तथा दिवाकर मित्र के आश्रम का वर्णन विस्तृत होने पर भी निर्दोष, वैविध्यपूर्ण एवं प्रभावशाली हैं।
बाणभट्ट का मानव प्रकृति का ज्ञान आश्चर्यजनक है। उसका कोई भी तत्त्व अनुद्घाटित नहीं रहा। यह ठीक ही कहा गया है-
- "'बाणोच्छिष्टं जगत सर्वम्।'"
बाण ने किसी भी कथनीय बात को छोड़ा नहीं जिसके कारण कोई भी पश्चाद्वती लेखक बाण को अतिक्रांत न कर सका। कवि की सर्वतोमुखी प्रतिभा, व्यापक ज्ञान, अद्भुत वर्णन शैली और प्रत्येक वर्ण्य-विषय के सूक्ष्मातिसूक्ष्म वर्णन के आधार पर यह सुभाषित प्रचलित है कि बाण ने किसी वर्णन को अछूता नहीं छोड़ा है और उन्होंने जो कुछ कह दिया, उससे आगे कहने को बहुत कुछ शेष नहीं रह जाता। बाण ने जितनी सुन्दरता, सहृदयता और सूक्ष्मदृष्टि से बाह्य प्रकृति का वर्णन किया है, उतनी ही गहराई से अन्तः प्रकृति और मनोभावों का विश्लेषण किया है। उनके वर्णन इतने व्यापक और सटीक होते हैं, कि पाठक को यह अनुभव होता है कि उन परिस्थितियों में वह भी ऐसा ही सोचता या करता। प्रातः काल वर्णन, सन्ध्यावर्णन, शूद्रकवर्णन, शुकवर्णन, चाण्डालकन्या वर्णन आदि में बाण ने वर्णन ही नहीं किया है, अपितु प्रत्येक वस्तु का सजीव चित्र उपस्थित कर दिया है। चन्द्रापीड को दिये गये शुकनासोपदेश में तो कवि की प्रतिभा का चरमोत्कर्ष परिलक्षित होता है। कवि की लेखनी भावोद्रेक में बहती हुई सी प्रतीत होती है। शुकनासोपदेश में ऐसा प्रतीत होता है मानो सरस्वती साक्षात मूर्तिमती होकर बोल रही हैं।
बाण के वर्णनों में भाव और भाषा का सामंजस्य, भावानुकूल भाषा का प्रयोग, अलंकारों का सुसंयत प्रयोग, भाषा में आरोह और अवरोह तथा लम्बी समासयुक्त पदावली के पश्चात् लघु पदावली आदि गुण विशेष रूप से प्राप्त होते हैं। प्रत्येक वर्णन में पहले विषय का सांगोपांग वर्णन मिलता है, बहुत समस्तपद मिलते हैं, तत्पश्चात् श्लेषमूलक उपमायें और उत्प्रेक्षाएँ, तदनन्तर विरोधाभास या परिसंख्या से समाप्ति। श्लेषमूलक उपमा प्रयोग, विरोधाभास और परिसंख्या के प्रयोगों में क्लिष्टता, दुर्बोधता और बौद्धिक परिश्रम अधिक है। कहीं-कहीं वर्णन इतने लम्बे हो गये हैं कि ढूँढ़ने पर भी क्रियापद मिलने कठिन हो जाते हैं। महाश्वेता-दर्शन में एक वाक्य 67 पंक्तियों का है और कादम्बरी दर्शन में तो एक वाक्य 72 पंक्तियों का हो गया है। विशेषण के विशेषणों की परम्परा इतनी लम्बी है कि मूल क्रिया लुप्त सी हो जाती है। ऐसे वर्णनों में वर्णन का स्वास्त्य रह जाता है, पर कथाप्रवाह पद-पद पर प्रतिहत हो जाता है।
बाण का भाव एवं कल्पना पर अद्वितीय अधिकार था। उसके वाक्यों की लम्बाई असाधारण होते हुए भी मनोरंजक तथा उत्कृष्ट है। बाण की कृतियों में भावों की समृद्धता एवं अभिव्यक्ति की प्रचुरता होने से वे सहृदयों के हृदयों पर प्रभाव डालती है वस्तुतः ठीक ही कहा गया है:
- वाणी बाणो बभूव। ( वणी, बाण हो गयी।)
महाकवि बाणभट्ट की रचनाएं
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करें- ↑ "स्थानविश्वर (ऐतिहासिक क्षेत्र, भारत)". ब्रिटैनिका विश्वकोश. अभिगमन तिथि २४ नवम्बर २०१४.
- ↑ अमरेश दत्ता (1988). भारतीय साहित्य के मकदूनियाई: देवराज ज्योति को. साहित्य अकादमी. पपृ॰ १३३९–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ ९७८-८१-२६०-११९४-०
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