पूंजीवाद
पूँजीवाद सामान्यत: उस आर्थिक प्रणाली या तंत्र को कहते हैं जिसमें उत्पादन के साधन पर निजी स्वामित्व होता है। इसे कभी कभी "व्यक्तिगत स्वामित्व" के पर्यायवाची के तौर पर भी प्रयुक्त किया जाता है यद्यपि यहाँ "व्यक्तिगत" का अर्थ किसी एक व्यक्ति से भी हो सकता है और व्यक्तियों के समूह से भी। मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि सरकारी प्रणाली के अतिरिक्त अपनी तौर पर स्वामित्व वाले किसी भी आर्थिक तंत्र को पूँजीवादी तंत्र के नाम से जाना जा सकता है। दूसरे रूप में ये कहा जा सकता है कि पूँजीवादी तंत्र लाभ के लिए चलाया जाता है, जिसमें निवेश, वितरण, आय उत्पादन मूल्य, बाजार मूल्य इत्यादि का निर्धारण मुक्त बाजार में प्रतिस्पर्धा द्वारा निर्धारित होता है।
इतिहास
संपादित करेंपूँजीवाद का इतिहास मनुष्य के इतिहास जितना ही पुराना है; प्राचीन मिस्र, कार्थेज, रोम, बेबिलोनिया और यूनान में व्यक्तिगत संपत्ति और एकाधिकार पर आधारित समाजों का इतिहास मिलता है। दासप्रथा जैसी निजी स्वामित्व की चरम स्थिति रही है। मध्यकाल में यूरोप में इसका अधिक विकास हुआ; 21वीं शताब्दी के पश्चात पूँजीवाद ने संसार के अनेक भागों में सामंतशाही और वाणिज्यवाद के बीज बोए। आधुनिक युग के आरंभ में व्यापारिक पूँजीवाद ने अपने विकासक्रम में औद्योगिक पूँजीवाद को जन्म दिया, जिसे पूँजोत्पादन पूँजीवाद (Mass Production Capitalism) भी कहा जाता है।
पूँजीवादी आर्थिक तंत्र को यूरोप में संस्थागत ढाँचे का रूप सोलहवीं सदी में मिलना आरम्भ हुआ, हालाँकि पूँजीवादी प्रणाली के प्रमाण प्राचीन सभ्यताओं में भी मिलते हैं।
ऐडम स्मिथ ने अपनी पुस्तक "द वेल्थ ऑफ नेशंस" (१७७६) में प्राकृतिक आधार पर आर्थिक स्वतंत्रता की बात कही है, उसने पूँजीवाद का नाम नहीं लिया है। आर्थिक मामलों में प्राकृतिक स्वतंत्रता को आधार मानकर चलने के संबंध में उसका विश्वास था, जैसा कि अन्य उदारवादियों का भी मत रहा है, कि यदि आर्थिक व्यापार को किसी भी नियंत्रण से मुक्त क्रियान्वित होने दिया जाए, तो इस स्थिति में उत्पादन-वृद्धि अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाएगी, तथा सर्वकल्याणकारी राज्य की स्थापना में सहायता मिलेगी। ऐडम स्मिथ का यह व्यक्तिगत पूँजी और स्वतंत्र उद्योग का उदारवादी मत आधुनिक पूँजीवाद का मेरुदंड हैं।
१८ वीं सदी में यूरोप की औद्योगिक क्रांति के साथ पूँजीवाद को नया बल मिला। उसके प्रभाव से १७७० और १८४० के मध्य आर्थिक और व्यापारिक क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। पूर्वकालीन सारी सभ्यताएँ शोषित सर्वहारा के श्रम की नींव पर बनी थी। आधुनिक सभ्यता मानवीय आविष्कारों और यांत्रिक शक्ति द्वारा निर्मित हुई है। यांत्रिक उपकरणों की सहायता से मनुष्य की उत्पादनक्षमता में अत्यधिक वृद्धि हुई और निजी उद्योगों में इस उत्पादन-क्षमता-वृद्धि के उपयोग ने पूँजीवाद के विकास को अत्यधिक बल दिया।
पूँजीवादी का सिद्धांत सबसे पहले औद्योगिक क्रांति के फलस्वरुप कार्ल मार्क्स के सिद्धांत की व्याख्या के संदर्भ में आया। १९ वीं सदी में कुछ जर्मन सिंद्धांतकारों ने इस अवधारणा को विकसित करना आरम्भ किया जो कार्ल मार्क्स के पूंजी और ब्याज के सिद्धांत से हटकर था। बीसवीं सदी के आरंभ में मैक्स वेबर ने इस अवधारणा को एक सकारात्मक ढंग से व्याख्यित किया। शीत युद्ध के दौरान पूँजीवादी की अवधारणा को लेकर बहुत बहस चली।
पूँजीवाद का प्रभाव एवं इसकी प्रतिक्रिया
संपादित करेंऔद्योगिक क्रांति के आरंभिक दिनों में इंग्लैंड में ऐडम स्मिथ का अहस्तक्षेप का सिद्धांत (Laissez-Faire) वैयक्तिक स्वतंत्रता और अनियंत्रित आर्थिक व्यवस्था का आधार बन गया। किंतु इस औद्योगिक परिवर्तन से उत्पन्न परिस्थितियों ने सरकार को उद्योगपतियों और श्रमिकों की समस्याओं में हस्तक्षेप करने को बाध्य कर दिया। इन्हीं दिनों समाजवाद (सोशलिज्म) शब्द का प्रयोग प्रथम बार हुआ (कोआपरेटिव मैगज़ीन, १९२७)। इस स्थिति में तथाकथित स्वतंत्र उद्योग, १८ वीं सदी के उदारतावाद और आज के समाजवादी नियंत्रण का समन्वित रूप होगा। अमेरीकी पूँजीवाद, व्यापार में व्यक्तिगत आधिपत्य और राजकीय संचालन का मिश्रित रूप है। यद्यपि बहुक्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता उद्योग का मुख्य आधार है तथापि पिछले वर्षों वाणिज्य और श्रमिक संगठनों में एकाधिकारिक नियंत्रण की स्थिति द्रुत गति से बढ़ी है। संपत्ति और आय के अव्यवस्थित वितवरण से लोगों का सामाजिक स्तर बहुत नीचे गया है। कंपनी ट्रस्टीशिप और पब्लिक एजेंसी जैसे अनेक संगठनों ने प्रतिद्वंद्विता के सिद्धांत को विकृत कर दिया है।
राष्ट्रीयकरण की योजनाओं से नियंत्रण की मात्रा में वृद्धि हुई और स्वतंत्र अर्थव्यवस्था को जबर्दस्त धक्का लगा। प्रत्येक राष्ट्र के सम्मुख यह समस्या रहती है, कि वह अपनी आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार व्यवस्थाएँ करे। व्यवस्था के निर्णय, उपलब्ध श्रम शक्ति और आर्थिक स्रोतों पर निर्भर करते हैं। राज्य प्रतिनिधियों और योजनाविदों के सम्मुख उत्पादन के रूप, मात्रा और तरीके आदि के प्रश्न रहते हैं। समाजवादी व्यवस्था के अंतर्गत इसके लिए सरकारों और सरकार द्वारा नियुक्त योजना समितियों द्वारा निर्णय किए जाते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत एक व्यक्ति या समूह को अपने आर्थिक नियोजन का स्वतंत्र अधिकार रहता है।