पिशाच

पौराणिक या लोककथात्मक प्राणी

पिशाच काल्पनिक प्राणी है जो जीवित प्राणियों के जीवन-सार खाकर जीवित रहते हैं आमतौर पर उनका खून पीकर. हालांकि विशिष्ट रूप से इनका वर्णन मरे हुए किन्तु अलौकिक रूप से अनुप्राणित जीवों के रूप में किया गया, कुछ अप्रचलित परम्पराएं विश्वास करती थीं कि पिशाच (रक्त चूषक) जीवित लोग थे।[1][2][3]

फिलिप बर्न-जोन्स द्वारा पिशाच, 1897

लोककथाओं के अनुसार, पिशाच अक्सर अपने प्रियजनों से मिला करते थे और अपने जीवन-काल में जहां वे रहते थे वहां के पड़ोसियों के अनिष्ट अथवा उनकी मृत्यु के कारण बन जाते थे। वे कफ़न पहनते थे और उनके बारे में अक्सर यह कहा जाता था कि उनका चेहरा फूला हुआ और लाल या काला हुआ करता था। यह 19वीं सदी के शुरूआती दौर में आरंभ होने वाले आधुनिक काल्पनिक पिशाचों के मरियल, कांतिहीन चित्रण से स्पष्ट रूप से भिन्न था। हालांकि पिशाचीय सत्ता अनेक संस्कृतियों में मिलती है फिर भी पिशाच शब्द 18वीं सदी के आरंभ तक लोकप्रिय नहीं हुआ था। पश्चिमी यूरोप में पिशाच के अंधविश्वास का एक अन्तःप्रवाह चला जैसे कि बाल्कन प्रदेशों एवं पूर्वी यूरोप,[4] में जनश्रुतियों में पिशाच की लोककथाएं बार-बार दुहराई जाती रहीं जबकि स्थानीय अंचलों में लोग पिशाच को अलग-अलग नामों से जानते थे, जैसे कि सर्बिया में वैम्पिर (вампир), ग्रीस में राइकोलाकस (vrykolakas) तथा रोमानिया में स्ट्रिगोई (strigoi). यूरोप में पिशाच अंध-विश्वास के बढ़े हुए स्तर से जन उन्माद उत्पन्न हुआ और कुछ मामलों में शवों को दांव पर लगा दिया गया तथा लोगों पर पैशाचिकी का आरोप लगाया जाने लगा।

आजकल पिशाच आमतौर पर कल्पित सत्ता के रूप में समझे जाते हैं, हालांकि कुछ संस्कृतियों में इससे संबंधित प्राणियों जैसे कि 'छुपाकाबरा ' (chupacabra) में लोगों का विश्वास अभी भी कायम है। प्राक् औद्योगिक समाज में मृत्यु के पश्चात् शव के विघटन की प्रक्रिया के संबंध में पिशाचों में आरंभिक लोककथाओं के विश्वास का कारण अज्ञानता को ठहराया गया है। आनुवांशिक असामान्यता को भी 20वीं सदी में लोककथाओं की पैशाचिकी से जोड़ा जाता था जिसे मीडिया ने भरपूर उजागर किया, लेकिन इस कड़ी को उस समय से व्यापक रूप से बदनाम किया गया।

सन् 1819 में जॉन पोलिडोरी कृत रचना द वैम्पायर के प्रकाशन के साथ ही आधुनिक कथा-जगत में करिश्माई और कृत्रिम पिशाच का आविर्भाव हुआ। यह कहानी काफी सफल रही और 19वीं सदी के आरंभ में निर्विवादित रूप से पिशाच पर सबसे सफल प्रभावशाली रचना मानी गई।[5] हालांकि ब्रैम स्टोकर के सन् 1897 में प्रकाशित उपन्यास ड्रैकुला को सर्वोत्तम उपन्यास के रूप में याद किया जाता है जिसने पिशाच कथा-साहित्य की पृष्ठभूमि तैयार की। इस पुस्तक की सफलता ने पुस्तकों, फिल्मों, वीडियो गेम्स और टेलीविज़न शो के जरिए एक विशिष्ट पिशाच शैली को जन्म दिया जो 21वीं सदी में अब भी लोकप्रिय है। अपनी विशिष्ट संत्रास (भय) की शैली में पिशाच एक प्रभावशाली चरित्र है।

व्युत्पत्ति

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ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी वैम्पायर शब्द का अंग्रेजी में सर्वप्रथम प्रयोग का समय सन् 1734 में निर्धारित करता है। इसका प्रयोग सन् 1745 में हर्लियन मिसेलनी में ट्रैवेल्स ऑफ़ थ्री इंग्लिश जेंटिलमैन शीर्षक से प्रकाशित एक यात्रावृत में मिलता है।[6][7] पिशाच की चर्चा जर्मन साहित्य में पहले ही की जा चुकी थी।[8] सन् 1718 में जब ऑस्ट्रिया ने उत्तरी सर्बिया और ओल्टेनिया पर कब्जा कर लिया तो अधिकारियों ने कब्र खोदकर शवों को बाहर निकालने और "पिशाचों को मारने"[8] की स्थानीय प्रचलित प्रथा देखी. सन् 1725 से 1732 के बीच तैयार इन रिपोर्टों को व्यापक प्रचार मिला। [8]

अंग्रेजी शब्द (संभवतः फ्रेंच के वैम्पायर से होकर) जर्मन शब्द वैम्पिर से लिया गया है। यह सर्बिया के вампир/वैम्पिर शब्द से 18वीं सदी के आरंभ में लिया गया।[9][10][11][12][13] सर्बिया का यह रूप वस्तुतः सभी स्लाव भाषाओँ के समानांतर है: बुल्गारिया में вампир (वैम्पिर), चेक एवं स्लोवाक में upír, पोलिश में wąpierz और (शायद पूर्वी स्लाव-प्रभावित) upiór, रूस में упырь (upyr '), बेलारस में упыр (upyr), यूक्रेन में упирь (upir'), जो पुराने रूस के упирь (upir') से उद्भूत है। (गौरतलब है कि इनमें से अनेक भाषाओँ ने उसके बाद भी पश्चिम के "vampir/wampir" से यह शब्द लिया- ये इस प्राणी के लिए प्रयुक्त होने वाले स्थानीय शब्दों से भिन्न हैं। एकदम सही शब्द व्युत्पत्ति अस्पष्ट है।[14] प्रस्तावित मूल आद्य-स्लाव रूप *ǫpyrь और *ǫpirь है।[15] एक प्राचीन और कम प्रचारित मान्यता है कि स्लाव भाषाओँ ने तुर्की के "विच" शब्द से इसे लिया है जिसका अर्थ है 'चुड़ैल' (e.g., ततार ubyr).[15][16]

यह आम धारणा है कि पुराने रूसी Упирь (Upir') प्रारूप का प्रथम लिखित प्रमाण 6555 तिथि (1047 ईसवी)[17] के एक दस्तावेज में मिलता है। यह एक पादरी द्वारा लिखी गई भक्ति-गीतों की पुस्तक की पाण्डुलिपि में पाया जाने वाला एक प्रतीक कॉलोफ़न (पुष्पिका) है जिसने नोवगोर्दियन राजकुमार व्लादिमीर येरोस्लैवोविच के लिए इस पुस्तक को ग्लैगोलिटिक से साइरिलिक में लिप्यन्तरित किया।[18] पादरी ने अपना नाम "Upir ' Likhyi " (Упирь Лихый) लिखा है जिसका अर्थ "दुष्ट पिशाच" या "नकली पिशाच" जैसा ही कुछ.[19] स्पष्ट रूप से अनोखे इस नाम का उदहारण वर्त्तमान मूर्तिपूजा और उपनामों का व्यक्तिगत नामों के रूप में प्रयोग करने के रूप में उद्धृत किया गया।[20]

पुराने रूसी शब्द का प्रयोग बुत-परस्ती के विरोध में लिखे गए लेख पुस्तक "वर्ल्ड ऑफ़ सेंट ग्रिगोरी" में मिलता है जिसका रचनाकाल 11वीं से 13वीं शताब्दियों के बीच माना जाता है जिसमें उपायरी की पूजा की बात कही गई है।[21][22]

लोक विश्वास

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पैशाचिकी की धारणा सदियों से अस्तित्व में रही है; जैसे कि मैसोपोटामिया, हिब्रू, प्राचीन यूनानी और रोमन संस्कृतियों की कहानियों में दानवों और प्रेतात्माओं को आधुनिक पिशाचों का अगुआ माना जाता.हालांकि पिशाच जैसे प्राणियों के उद्भव की घटना इन प्राचीन सभ्यताओं में होने के बावजूद लोककथाओं के आधार पर इनकी सत्ता के बारे में आज हम जानते हैं कि पिशाचों की उत्पत्ति विशेष रूप से 18वीं सदी में दक्षिण-पूर्व यूरोप[4] में हुई, जब उस क्षेत्र के जातीय समूहों के मौखिक परंपराओं को लिपिबद्ध और प्रकाशित किया गया। अधिकतर मामलों में पिशाचों को बुरे प्राणियों, आत्महत्या के शिकार या चुड़ैलों के भूत-प्रेत के रूप में माना गया लेकिन इतना सृजन अपकारी प्रेतात्माओं के द्वारा भी संभव है जिनके कब्जे में कोई लाश है या जिन्हें किसी पिशाच ने काट लिया है। ऐसी लोककथाओं में विश्वास इतना व्यापक हो गया कि कुछ क्षेत्रों में इसने सामूहिक उन्माद को जन्म दिया और पिशाच समझे जाने वाले लोगों को सार्वजनिक फांसी भी दी गई।[23]

विवरण और सामान्य विशेषताएं

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लोककथात्मक पिशाच का एक निश्चित विवरण देना कठिन है, हालांकि यूरोपीय लोककथाओं में ऐसे अनेक तत्व हैं जो सर्व सामान्य हैं। पिशाचों के बारे में ऐसी रिपोर्ट थी कि वे आमतौर पर देखने में फूले हुए रक्ताभ या पीले बैंगनी अथवा काले रंग जैसे उनकी इन चारित्रिक विशेषताओं को अक्सर आजकल के रक्त पीने की घटनाओं के लिए जिम्मेदार ठहराया गया। वास्तव में, अक्सर कफ़न में लिपटे या ताबूत में लेटे शव के नाक और मुंह से खून रिसता हुआ देखा गया और बायीं आंख को अक्सर खुला हुआ पाया गया।[24] यह झीने पारदर्शी कफ़न में लिपटा हुआ कब्र में दफ़न, जिसके दांत, बाल और नाखून बड़े हो गए हो सकते थे, जबकि आमतौर पर ऐसे नुकीले दांत नहीं देखे जाते थे।[25]

सर्जनात्मक पिशाच

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मूल लोककथाओं में पैशाचिक पीढियों के पीछे अनेक एवं विविध कारण हैं। स्लाव एवं चीनी प्रथाओं में जिन मुर्दों को कोई पशु खासकर कुत्ते या बिल्ली लांघ ले तो लोगों को ऐसी शंका हो जाती थी कि वे मरे नहीं। [26] यदि किसी घायल शरीर पर कोई घाव हो जिसका उपचार उबलते हुए पानी से नहीं किया गया है तो वह भी जोखिम भरा हो जाता था। रूसी लोककथाओं में, पिशाच कभी चुड़ैल या वैसे लोग हुआ करते थे जिन्होंने जीवित अवस्था में चर्च के विरुद्ध विद्रोह किया था।[27]

हाल ही में मरे प्रियजनों को भूत-प्रेत बनने से रोकने के लिए कभी-कभी सांस्कृतिक प्रथाएं जन्म लेती थीं। शवों को उल्टा गाड़ने की भी प्रथा काफी प्रचलित थी। साथ ही साथ, शरीर में प्रवेश करने वाली दुष्ट आत्मा को संतुष्ट करने तथा मृतक के ताबूत से बाहर निकलने की इच्छा को रोकने के लिए उसे संतुष्ट करने हेतु कब्र के पास भौतिक वस्तुएं, कटारी अथवा हंसिया[28] रख दिया जाता था। यह पद्धति प्राचीन यूनानी प्रथा से मिलती जुलती है जिसमें पाताल में बहने वाली स्टिक्स नदी को पार करने के लिए राहदारी (पथ कर) अदा करने के लिए मुर्दे के मुंह में सिक्का (ओबोलस) रख दिया जाता था। यह तर्क दिया गया है कि बजाय इसके, दुष्ट आत्मा को शरीर में प्रवेश करने से रोकने के लिए ही सिक्के रख दिए जाते थे। शायद इसी प्रथा ने बाद में चलकर पिशाच की लोक कथाओं को प्रभावित किया होगा। वृकोलाकास के संबंध में यह परंपरा आधुनिक यूनानी लोककथाओं में जारी रही, जिसमें शरीर को पिशाच बनने से रोकने के लिए मोम के क्रूस और "जीसस क्राइस्ट कॉन्कर्स" खुदे हुए मिट्टी के बर्तन मुर्दे के शरीर पर रख दिए जाते थे ताकि वह पिशाच न बन जाय.[29] यूरोप में आम तौर पर व्यवहार में लायी जाने वाली अन्य पद्धतियों में शामिल थे:घुटने के नसों को काट दिया जाना अथवा खसखस के दाने, बाजरा या बालू को संभावित पिशाच के कब्र स्थल में रख देना इत्यादि.इस प्रथा का उद्देश्य पिशाच को सारी रात बिखरे दानों को गिनने में व्यस्त किये रखना था।[30] इसी प्रकार के चीनी विवरणों से यह ज्ञात होता है कि पिशाच जैसे प्राणी को चावल की बोरी से अगर गुजारा जाता तो उसे प्रवेश करने से पहले हर दाने को गिनना पड़ता. यह मिथकीय विषय-वस्तु भारतीय उपमहाद्वीप की काल्पनिक कहानियों साथ ही साथ दक्षिण अमेरिका के चुड़ैलों और इसी प्रकार की अन्य दुष्ट प्रेतात्माओं अथवा प्राणियों की कहानियों में पाई जाती है।[31]

पिशाच की पहचान करना

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पिशाच की पहचान के लिए अनेक व्यापक धर्मानुष्ठान आयोजित किये जाते थे। इसमें पिशाच के कब्र की पहचान करने का एक तरीका यह भी था कि एक कुंवारे लड़के को एक कुंवारी घोड़ी पर बिठाकर किसी कब्रगाह या गिरजा की जमीन से होकर गुजारा जाता था -- घोड़ा अगर कब्र के पास प्रश्नात्मक भंगिमा में अड़ गया तो समझ लिया जाता था कि कब्र में पिशाच है।[27] आम तौर पर एक काले घोड़े को उपयोग में लाया जाता था, हालांकि अल्बानिया में इसका सफ़ेद होना जरूरी था।[32] किसी कब्र के ऊपर मिट्टी में अगर कोई सुराख़ दिखाई देती थी तो उसे पैशाचिकी होने का चिन्ह मान लिया जाता था।[33]

जिन शवों को पिशाच समझ लिया जाता था वे आमतौर पर अपेक्षा से अधिक स्वस्थ और गोल मटोल दिखते थे और उनमें सड़न का कोई नामो-निशान भी नहीं दिखाई देता था।[34] कुछ मामलों में जब संदेहास्पद कब्र खोले जाते थे, ग्रामीणों के विवरण के अनुसार शवों के पूरे चेहरे पर किसी शिकार के ताज़ा खून पाए जाते थे।[35] मवेशियों, भेड़ों, रिश्तेदारों या पड़ोसियों की मौत यह प्रमाणित करती है कि पिशाच किसी नियत निश्चित इलाके में ही सक्रिय रहते थे। लोककथाओं के पिशाच छोटे-मोटे भुतहा कार्यों के जरिए अपनी मौजूदगी का अहसास दिला सकते थे,[36] जैसे कि छतों पर पत्थर फेंकना, घर के सामानों को अस्त-व्यस्त कर देना और सोते हुए लोगों पर दबाव डालना इत्यादि.[37]

भूत-प्रेतों को दूर रखने में सक्षम टोने-टोटके—सांसारिक अथवा पवित्र वस्तुएं जैसे कि लहसुन[38] अथवा पवित्र जल पिशाच लोककथाओं में आमतौर पर प्रचलित है। ये वस्तुएं एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में अलग-अलग हैं। ऐसा माना जाता है कि जंगली गुलाब की एक टहनी और वन-संजली का पौधा पिशाचों को हानि पहुंचाते हैं। यूरोप में माना जाता था कि सरसों के दानों को घर के छत पर छिड़कने से पिशाचों को दूर रखा जा सकता है।[39] टोने-टोटके की अन्य पवित्र वस्तुओं में शामिल हैं, उदाहरणार्थ क्रूसमूर्ति, जापमाला, या पवित्र जल. ऐसा मानना है कि पिशाच पवित्र भूमि पर चलने, जैसे कि गिरजा या मंदिर, अथवा एक दूसरे के प्रतिकूल बहती हुई जलधारा से होकर गुजरने में असमर्थ हैं।[40] हालांकि परंपरागत तौर पर टोने-टोटके के रूप में नहीं माने जाने वाली वस्तुएं, जैसे आइनों का इस्तेमाल; पिशाचों से बचने के लिए आइनों के मुख बाहर की तरफ करते हुए दरवाजे पर रखकर इनके इस्तेमाल किये जा चुके हैं (कुछ संस्कृतियों में, पिशाचों के प्रतिविम्ब नहीं होते और कभी-कभी उनकी परछाई भी नहीं पड़ती. ऐसा शायद पिशाच में आत्मा के अभाव के प्रदर्शन के रूप में होता है).[41] हालांकि यह लक्षण सार्वभौमिक नहीं है (यूनानी राइकोलाकस/टाइम्पैनियस प्रतिविम्ब और परछाई दोनों के लिए सक्षम थे) इसका प्रयोग ब्रैम स्टोकर ने ड्रैकुला में किया था और बाद में यह परवर्ती रचनाकारों तथा फिल्मनिर्माताओं के साथ भी लोकप्रिय बनी रही। [42] कुछ प्रथाएं यह भी मानती हैं कि पिशाच किसी घर में प्रवेश नहीं कर सकते जब तक कि उन्हें गृह स्वामी आमंत्रित न करे. हालांकि प्रथम आमंत्रण के बाद वे मनमाने ढंग से आ और जा सकते हैं।[41] यद्यपि लोककथाओं के पिशाचों के बारे में माना जाता था कि वे रात को अधिक सक्रिय थे, उन्हें आमतौर पर सूर्य की रोशनी में असुरक्षित समझा जाता था।[42]

संदेहास्पद पिशाचों को नष्ट करने के तरीके भी अलग-अलग थे, विशेषकर दक्षिणी स्लाव संस्कृतियों में खूंटे से बांधना आमतौर पर सबसे अधिक उल्लेखनीय तरीका था।[43] रूस और बाल्टिक राज्यों[44] में अंगू (ऐश) वृक्ष की लकड़ी को अथवा सैलेशिया[45] में ओक के पेड़ की लकड़ी के साथ सर्बिया में वन-संजली[46] को तरजीह दी जाती थी। रूस और उत्तरी जर्मनी[47][48] में शक्तिशाली पिशाचों के ह्रदय में अक्सर खूंटा गाड़ दिया जाता था हालांकि रूस और उत्तरी जर्मनी में मुंह को और उत्तर-पूर्वी सर्बिया में पेट को लक्ष्य बनाया जाता था।[49] छाती की चमड़ी में छेद करना फूले हुए पिशाचों के शरीर से हवा निकालने का एक तरीका था; यह तरीका हंसिये जैसा तेज धार वाली वस्तुओं को शवों के साथ गाड़ने जैसा ही था ताकि भूत-प्रेत में तब्दील होने से पहले शरीर को बहुत अधिक फूलने पर वे चमड़ी में छेद कर सकें.[50]जर्मन और स्लैविक क्षेत्रों में सिरच्छेदन की पद्धति को अधिक तरजीह दी जाती थी जिसमे सिर को पैरों के बीच नितंबों के पीछे अथवा शरीर से दूर गाड़ दिया जाता था।[51] इस क्रिया को आत्मा की अविलम्ब विदाई के रूप में मानते थे, क्योंकि कुछ संस्कृतियों में शवों में आत्माओं का कुछ अधिक समय तक उपस्थित रहना माना जाता था। पिशाच के सिर, शरीर एवं कपड़ों को भी छेद कर जमीन के साथ खूंटी में बांध दिए जाते थे ताकि वे उठ न सके। [52] खानाबदोश इस्पात अथवा लोहे की सूइयों को शवों के दिलों में गोंदते थे और शवों को गाड़ने के समय इस्पात के टुकड़ों को मुंह में, आंखों और कानों के ऊपर तथा अंगुलियों के बीच रख देते थे। वे वन-संजली को शव के मोजे में अथवा पैरों के बीच खूंटी की तरह गोद देते थे। पुरातत्वविदों ने सन् 2006 में वेनिस के निकट 16वीं सदी की एक कब्र की खुदाई से एक महिला के शव के मुंह में ईंट ठूंसा हुआ पाया और इसका अर्थ निकाला गया कि यह एक प्रकार से पिशाच को मारने के लिए किया गया एक कर्मकांड था।[53] बाद के तरीकों में खौलते हुए पानी को कब्र के ऊपर डालना अथवा शव को पूरी तरह जलाकर भस्म कर देना भी शामिल किया गया। बाल्कन में पिशाच को गोली मार कर या पानी में डूबोकर, मृतक का अंत्येष्टि संस्कार बार-बार दुहराकर, मृतक के शरीर पर पवित्र जल छिड़ककर या जादू-टोने के द्वारा मार दिया जाता था। रोमानिया में लहसुन को मुंह में रखा जा सकता था और 19वीं सदी में हाल तक ताबूत में गोली मारने में सावधानी बरती जाती थी। प्रतिरोधात्मक मामलों में शवों के अंगच्छेद कर टुकडों को जलाकर राख को पानी में मिलाकर परिवार के सदस्यों में औषधि-उपचार के रूप में वितरित कर दिया जाता था। जर्मनी के सैक्सन प्रदेशों में संदेहास्पद पिशाचों के मुंह में नींबू रख दिया जाता था।[54]

प्राचीन मान्यताएं

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जॉन कोलिएर द्वारा लिलिथ (1892)

जीवित प्राणियों के रक्त अथवा मांस का भक्षण करने वाले अलौकिक प्राणियों की कथाएं संसार की लगभग सभी संस्कृतियों में अनेक कई सदियों से पाई गई है।[55] आज हम इन अस्तित्वों को पिशाचों से संबद्ध कर देते हैं लेकिन प्राचीन समय में वैम्पायर शब्द का रक्तपान एवं इसी तरह के क्रियाकलापों के लिए उन दुष्ट आत्माओं या प्रेतात्माओं को उत्तरदायी ठहराया जाता था जो मांस भक्षण और रक्तपान कर सकते थे, यहां तक कि शैतान को भी पिशाच का पर्याय समझा जाता था।[56] लगभग सभी राष्ट्र ने भूत-प्रेत अथवा दुष्ट आत्माओं को और कुछ मामलों में देवताओं को रक्त पान से जोड़ा है। उदाहरणार्थ भारत में वैताल, मुर्दों में निवास करने वाले पिशाच जैसे प्राणियों की कहानियों को बैताल पचीसी में संकलित किया गया है; कथासरित्सागर की एक प्रसिद्द कथा राजा विक्रमादित्य और एक दुर्गाह्य को पकड़ने के लिए उनके रात्रि की खोजों के बारे में बतलाती है।[57]पिशाचा, बुरे कर्म करने वाले या पागल होकर मरने वालों की वापस लौटी आत्माओं में भी पिशाचीय लक्षण पाए जाते हैं।[58] बड़े-बड़े दांतों वाली, मुर्दों या नर-मुंडों का हार पहनी हुई, प्राचीन भारतीय देवी काली को भी घनिष्ठ रूप से रक्त पान से जोड़ा जाता था।[59]मिस्र में देवी सेख्मेत भी रक्तपान करती थीं।

ईरानी सभ्यता उन सभ्यताओं में से एक है, जिसमें रक्तपान करने वाली दुष्ट आत्माओ की कथाएं मिलती हैं:मनुष्य के रक्त पान की कोशिश करने वाले प्राणियों के दृश्यों को मिट्टी के बर्तन के ठीकरों पर खुदाई कर चित्रित किया गया है।[60] प्राचीन बेबिलोनिया में भी पौराणिक लिलितु[61] की कथाओं ने अपने पर्याय लिलिथ (हिब्रू לילית) और हिब्रू पिशाच विद्या से उसकी बेटी लीलू को जन्म दिया। लिलितु को एक दुष्टात्मा समझा जाता था और प्रायः शिशुओं के रक्त पान पर ही जीवित रहने वाले चरित्र के रूप में चित्रित किया जाता था। हालांकि यहूदी प्रतिरूप पिशाचों के बारे में ऐसा कहा जाता था कि वे पुरुष और नारी दोनों के साथ ही नवजात शिशुओं को भी खाते थे।[61]

यूनान और रोम की प्राचीन पौराणिक गाथाओं में एम्पुसे,[62] लामिया,[63] एवं स्ट्रिजेस के विवरण मिलते हैं। समय के अंतराल के साथ-साथ प्रथम दो शब्द क्रमशः डाइनों एवं दुष्ट आत्माओं का वर्णन करने वाले शब्द बन गए। एम्पुसा हिकेट देवी की कन्या थी और उसका वर्णन कांसे के पांवों वाली दुष्ट राक्षसी के रूप में किया गया था। वह स्वंय को युवती के रूप में बदल कर पुरूषों को उनका रक्तपान करने से पहले सुप्तावस्था में उन्हें यौन-संबंध बनाने के लिए फुसलाती थी।[62] लामिया छोटे बच्चों को शिकार बनाती थी जब रात में वे सोये रहते थे। गेलौड या गेलो के समान वह उनका खून चूसती थी।[63] लामिया की ही तरह स्ट्रिजेस भी बच्चों को खाती थीं लेकिन नवयुवकों को भी अपना शिकार बनाती थीं। आमतौर पर उनका वर्णन कौवों और पक्षियों के शरीर धारण करने वालों के रूप में किया गया था। जिन्हें बाद में मानव मांस और रक्त का भक्षण करके जीवित रहने वाले एक प्रकार के निशाचर पक्षी स्ट्रिक्स के रूप में रोमन पौराणिक गाथा में शामिल किया गया।[64]

मध्यकालीन एवं परवर्ती यूरोपीय लोककथा

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पिशाचों से भरी हुई अनेक मिथकों (काल्पनिक कथाओं) का उद्भव मध्यकाल में हुआ। 12वीं सदी में अंग्रेज इतिहासकार एवं वृत्तान्त लेखक वाल्टर मैप और विलियम ऑफ न्यूबर्ग ने भूत-प्रेतों के वृत्तांतों को रिकॉर्ड किया।[23][65] हालांकि पिशाची प्राणियों के रिकॉर्ड्स अंग्रेजी आख्यानों में इस तिथि के बाद कम हो गए हैं।[66] ये कथाएं जिनका सविस्तार रिपोर्ट 18वीं सदी में पूर्वी यूरोप की परवर्ती लोककथाओं से मिलती-जुलती हैं। ये पिशाची दंतकथाओं की मूल अवधारणा थी जो बाद में जर्मनी और इंग्लैंड में प्रवेश कर गयी, जहां वे बाद में परिष्कृत और लोकप्रिय हुईं.

18वीं सदी के दौरान पूर्वी यूरोप में पिशाच को देखने के लिए ल्प्गों में उन्माद छा गया था। संभावित भूत-प्रेतों की पहचान करने और उन्हें मारने के लिए अक्सर खूंटी गाड़ी जाती थी और कब्र की खुदाई की जाती थी। यहां तक कि सरकारी अफसर भी पिशाचों की तलाश कर उन्हें खूंटी से बांधने में व्यस्त हो गए।[67]नवजागरण काल के दौरान अधिकाधिक लोककथाओं की श्रुतियों को दबा दिया गया, इसके बावजूद पिशाच में विश्वास नाटकीय ढंग से बढ़ता गया। परिणामस्वरूप पूरे यूरोप में सामूहिक उन्माद का दौर चल पड़ा.[23] सन् 1721 में पूर्वी प्रशा में और सन् 1725 से लेकर 1734 तक हैब्सबर्ग राजतंत्र में पिशाच के तथाकथित आक्रमण से आतंक फ़ैल गया जो अन्य इलाकों में भी फैलता चला गया। पिशाची मामलों के दो प्रसिद्ध उदाहरण : अधिकारिक रूप से प्रथम बार रिकॉर्ड किये जाने वाले मामलों में शामिल थे सर्बिया में रहने वाले पीटर प्लोगोजोवित्ज़ और आर्नोल्ड पाओल के शवों से जुड़े हुए मामले. प्लोगोजोवित्ज़ के बारे में मानना है कि उसकी मृत्यु 62 वर्ष की उम्र में हुई थी, लेकिन तथाकथित रूप से अपनी मृत्यु के पश्चात् अपने बेटे से भोजन मांगने वापस आ गए। जब बेटे ने भोजन देने से इंकार कर दिया तो वह दूसरे ही दिन मृत अवस्था में पाया गया। प्लोगोजोवित्ज़ के बारे में मानना है कि वे वापस लौटे और अपने कुछ पड़ोसियों पर हमला कर दिया जिनकी मृत्यु खून बहने के कारण हुई। [67] दूसरे मामले में, भूतपूर्व सैनिक से किसान बनने वाले पाओल पर कई साल पहले सूखी घास काटने के समय पिशाच ने तथाकथित रूप से हमला कर दिया जिससे उसकी मौत हो गई। उसकी मृत्यु के पश्चात् आसपास के लोग मरने लगे और व्यापक रूप से यह विश्वास कर लिया गया कि पाओल अपने पड़ोसियों का शिकार करने के लिए लौट आया था।[68] पिशाचों के संबंध में सर्बिया की एक अन्य प्रसिद्ध काल्पनिक कथा (जनश्रुति) जलचक्की में निवास करने वाले और चक्की वालों को मारकर उनका रक्तपान करने वाले किसी सावा सावानोविक पर केन्द्रित है। लोककथा के चरित्र को बाद में सर्बियन लेखक मिलोवान गिलिसिक की कहानी में एवं इसी कहानी से प्रेरित 1973 में बनी सर्बियन आतंक फिल्म लेप्टिरिका में उपयोग किया गया।

दोनो घटनाओं के प्रमाण प्रस्तुत किये गए:सरकारी अधिकारियों ने शवों की जांच की, मामले की रिपोर्ट तैयार की और समूचे यूरोप में पुस्तकें प्रकाशित की। [68] यह उन्माद, जिसे साधारणतया "18वीं-सदी के पिशाच-विवाद" के रूप में जाना जाता है, एक पीढ़ी के लिए प्रकोप बनकर तेजी से फैल गया। पैशाचिक हमला समझे जाने वाले गांव की महामारी ने इस समस्या को और भी अधिक उग्र कर दिया। निःसंदेह यह ग्रामीण समुदायों में फैले हुए घोर अंधविश्वास से उत्पन्न हुआ जिसमें स्थानीय निवासी शवों को खोदकर निकाल लेते थे और कुछ मामलों में उनके चारों कोनो पर खूंटियां गाड़कर घेराबंदी कर देते थे। हालांकि अनेक विद्वानों ने इस अवधि में पिशाच के अस्तित्व के नहीं होने की सूचना दी और समय से पहले दफनाए जाने अथवा जलांतक रोग (रेबीज) को अंधविश्वास के बढ़ने के लिए जिम्मेदार ठहराया है। सन् 1746 में सम्माननीय धर्मशास्त्री एवं फ्रांसीसी विद्वान डोम औगस्टाइन कॉलमेट ने एक व्यापक प्रबंध-लेख एक साथ रखा, जो पिशाच के अस्तित्व के सन्दर्भ में अस्पष्ट था। कॉलमेट ने पिशाचीय घटनाओं, असंख्य पाठकों के साथ ही आलोचक वॉल्टेयर एवं हिमायती पिशाच्विदों के मतों को एक साथ संग्रहीत किया और पिशाचों के अस्तित्व के होने का दावा करने वाले प्रबंध लेख की व्याख्या की। [69] अपने दार्शनिक शब्द कोष में वॉल्टेयर ने लिखा:[70]

These vampires were corpses, who went out of their graves at night to suck the blood of the living, either at their throats or stomachs, after which they returned to their cemeteries. The persons so sucked waned, grew pale, and fell into consumption; while the sucking corpses grew fat, got rosy, and enjoyed an excellent appetite. It was in Poland, Hungary, Silesia, Moravia, Austria, and Lorraine, that the dead made this good cheer.

इस विवाद का अंत तभी हुआ जब ऑस्ट्रिया की महारानी मारिया थेरेसा ने अपने निजी चिकित्सक जेरार्ड वैन स्विटन को पैशाचिक सत्ता के दावे की जांच के लिए भेजा. उसने यह निष्कर्ष निकाला कि पिशाचों का कोई अस्तित्व नहीं है। इस बिना पर महारानी ने कब्रों को दोबारा खोदकर खोलने तथा शवों के अपवित्रीकरण पर निषेधाज्ञा जारी करते हुए कानून लागू कर पैशाचिक महामारी जैसी बीमारी के अंत की घोषणा कर दी। इस आलोचना के बावजूद, पिशाच कलात्मक कार्यों और स्थानीय अंधविश्वासों में विद्यमान थे।[69]

गैर यूरोपीय मान्यताएं

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अफ्रीका के विभिन्न प्रदेशों में पैशाचिक क्षमताओं वाले प्राणियों की अनेक लोककथाएं हैं: पश्चिमी अफ्रीका में अशांति जाति के लोग लोहे के दांत वाले और पेड़ों पर वास करने वाले असान्बोसम[71] तथा इयु (EWE) लोग जुगनू का आकार धारण कर बच्चों का शिकार करने वाले एड्ज़ (adze) की कहानियां कहते हैं।[72] पूर्वी केप क्षेत्र में इमपंडुलू के बारे में जनश्रुति है कि वे बड़े नाखूनों और पंजों वाले पक्षी का आकार धारण कर गर्जन और बिजली को बुला सकते हैं। मडागास्कर के निवासी बेट्सिलियो लोगों का रमांगा के बारे में कहना है कि यह निर्वासित अथवा जीवित पिशाच है जो कुलीन रईसों के खून पीता है और उनके नाखून की कतरनें खाता है।[1]

फ्रांसीसी और अफ्रीकी वोडु या वूडू जादू के मिश्रण से विश्वासों का संयोजन फलीभूत किस तरह होता है, इसका एक उदाहरण लूगारू है। इसका एक उदाहरण लूगारू शब्द संभवतः फ्रेंच शब्द लौप-गरौ (जिसका अर्थ है "भेड़िया-मानव") से लिया गया है और यह मॉरीशस की संस्कृति में आम बात है। हालांकि लूगारू की कहानियां कैरेबियन द्वीप समूह और संयुक्त राज्य अमेरिका में लुसियाना में व्यापक स्तर पर फ़ैल गई हैं।[73] इसी प्रकार की राक्षसियां त्रिनिदाद की सौकौयन्त और कोलंबिया की लोककथाओं में टुंडा और पटसोला हैं। जबकि दक्षिणी चिली के मापुचे जाति के लोग खून चूसने वाले सांप को पेयुचें[74] के रूप में जानते हैं। दक्षिण अमेरिकी अंधविश्वास में पैशाचिक प्राणियों से रक्षा के लिए घृतकुमारी को दरवाजे के पीछे या बगल में लटका देने की मान्यता थी।[31] एज़्टेक पौराणिक कथाओं में सिहुटेटियो का वर्णन किया गया जो उन स्त्रियों की कंकाल समान चेहरों वाली प्रेतात्माएं थीं जिनकी बच्चे को जन्म देने के समय ही मृत्यु हो गयी, वे बच्चों को चुरा लिया करती थीं और जीवित लोगों को पागल कर उनके साथ यौन संपर्क कायम करती थीं।[27]

18वीं और 19वीं सदी के दौरान पिशाचों में विश्वास न्यू इंग्लैंड में विशेष रूप से रॉड द्वीप और पूर्वी कनेक्टिकट में व्यापक रूप से फ़ैल चुका था। ऐसे परिवारों के अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये जा चुके हैं जो मृतकों के पिशाच होने की अपनी मान्यता और परिवार में बीमारी और मौत के लिए उन्हें जिम्मेदार मानने के कारण अपने प्रियजनों को कब्र से खोदकर बाहर निकाल कर उनके दिलों को शरीर से अलग कर देते थे जबकि "वैम्पायर" शब्द का व्यवहार वास्तव में मृत व्यक्ति के लिए कभी नहीं किया गया था। घातक रोग तपेदिक या "कन्ज़म्प्शन" जैसा कि इसी नाम से यह उस वक्त जाना जाता था, के बारे में ऐसा मानना था कि तपेदिक रोग से मरने वाले परिवार के सदस्य के रात्रिकालीन कोप से ही परिवार के अन्य सदस्य इस घातक बीमारी से ग्रसित हो जाते थे।[75] सबसे अधिक प्रसिद्ध और हाल फिलहाल दर्ज संदिग्ध वैम्पायरिज़्म का मामला उन्नीस वर्षीया मर्सी ब्राउन का है जो सन् 1892 में एक्ज़ेटर, रॉड द्वीप में मर गई। उसके पिता ने परिवारिक चिकित्सक की सहायता से उसकी मौत के दो महीने बाद उसे उसके कब्र से बाहर निकाला, उसके दिल को काटकर बाहर निकाला और जलाकर राख कर दिया। [76]

मूलतः प्राचीन लोक कथाओं (दंतकथाओं) में निहित, पिशाचीय सत्ता की कहानियों के साथ पिशाचों के बारे में आधुनिक विश्वास महाद्वीप की मुख्य भूमि से होकर दक्षिणी-पूर्व एशिया के द्वीपों के पिशाची प्राणियों तक सम्पूर्ण एशिया में फ़ैल गया। भारत में भी अन्य पिशाचीय जनश्रुतियों का विकास हुआ। भूत या प्रेत उस व्यक्ति की आत्मा है जिसकी असामयिक मृत्यु हो गई है। शवों में प्राण-संचार कर यह उसके आसपास रात में भटकता है तथा जिन्दा लोगों पर पिशाच की तरह हमला करता रहता है।[77] उत्तरी भारत में ब्रह्मराक्षस है। यह पिशाच जैसा ही एक प्राणी है जिसका सिर आंतों और एक खोपड़ी से घिरा हुआ है, जिससे इसने रक्त पान किया। हालांकि पिशाचों का आविर्भाव जापानी सिनेमा में 1950 के अंतिम दशक में हुआ, लेकिन इसके पीछे की लोककथा का मूल स्रोत पश्चिमी है।[78] जो भी हो, नुकेकुबी एक ऐसा प्राणी है जिसका सिर और कंधा शरीर से अलग होकर मानव के शिकार के लिए रात में उड़ने लगता है।[79]

महिला पिशाचों के सामान प्राणियों के संबंध में दंतकथाएं (जनश्रुतियां) हैं कि वे अपने शरीर के ऊपरी हिस्से को अलग कर सकती हैं, ऐसी कहानियां फिलिपिंस, मलेशिया एवं इंडोनेशिया में भी मिलती हैं। फिलिपिंस में पिशाच जैसे मुख्यतः दो जीव हैं: टैगालोग मैंडुरुगो ("रक्त-शोषक") और विसायन मैनानंगल ("स्वंय को खंडित करने वाला"). मैंडुरुगो असवंग का ही एक प्रकार है जो दिन में एक आकर्षक लड़की का रूप धारण कर लेता है और रात में डैने तथा धागे जैसी लम्बी, खोखली जीभ विकसित कर लेता है। जीभ का व्यवहार सोये हुए शिकार का खून चूसने के लिए किया जाता है। मैनानंगल एक अधेड़ सुंदरी महिला के रूप में वर्णित है जो अपने ऊपरी धड़ को अलग करने में सक्षम है ताकि वह चमगादड़ के जैसे पंखों के साथ रात में असंदिग्ध सोई हुई गर्भवती औरतों का उनके ही घरों में शिकार करने के लिए उड़ सके। वे सूंड़ जैसी लम्बी जीभ का इस्तेमाल इन गर्भवती महिलाओं से भ्रूण चूसने के लिए करती हैं। वे अंतड़ियां (खासकर दिल और जिगर) तथा बीमारों के बलगम (कफ) खाना भी पसंद करती हैं।[80]

मलेशियाई पेनान्गलन या तो खूबसूरत अधेड़ अथवा जवान औरत हो सकती हैं, जिसने काला जादू का सक्रिय इस्तेमाल कर अथवा अन्य अप्राकृतिक माध्यमों से खूबसूरती हासिल की। वे स्थानीय लोककथाओं में आमतौर पर काली राक्षसी प्रवृत्ति वाली पिशाचिनों के रूप में वर्णित हैं। वह अपने विषदंत वाले सिर को विच्छेद करने में सक्षम हैं जो रात भर आमतौर पर गर्भवती महिलाओं के खून की खोज में उड़ती रहती है।[81] मलेशियाई अपने दरवाजों और खिड़कियों के आसपास इस उम्मीद से जेरुजू (गोखरू) लटका दिया करते थे जिससे कि पेनान्गलन अपनी अंतड़ियों में गोखरू के कांटे चुभ जाने के डर से अदंर प्रवेश नहीं करेंगे। [82]बाली की लोककथाओं में लेयाक भी इसी तरह का प्राणी है।[83] इंडोनेशिया में एक कुंतिलानक या मतियानक[84] अथवा मलयेशिया में पोंतियानक या लैंग्सुइर[85] एक ऐसी औरत है जिसकी प्रसव के दौरान ही मौत हो गई और वह गांवों को भयग्रस्त कर बदला लेने के उद्देश्य से मरी नहीं। एक आकर्षक महिला के रूप में प्रकट हुई जो लंबे काले बालों से अपनी गर्दन के पीछे ढंके हुए एक छेद के द्वारा बच्चों के खून चूसा करती थी। उसके बालों से यह छेद भर देने से वह भाग खड़ी होती थी। शवों के मुंह शीशे की माला से भरे, प्रत्येक कांखों के नीचे अंडे और पंजों में सूइयां होती थीं ताकि उन्हें लैंग्सुइर होने से रोका जा सके। [86]

जियांग शि (सरलीकृत चीनी वर्ण: 僵尸; पारम्परिक चीनी वर्ण: 僵屍 or 殭屍; पिनयिन: jiāngshī; वस्तुतः "कड़ी लाश") को पश्चिम के निवासी कभी-कभी "चीनी पिशाच" कहा करते थे। वे वास्तव में पुनः अनुप्राणित शव थे जो जीवित प्राणियों को मारकर () अपने शिकार के जीवन-सार को शोषित करने के लिए उड़ान भरा करते थे। ऐसा कहा जाता है कि वे तब प्रकट होते थे जब किसी मृतक के शरीर को छोड़ने में उसकी आत्मा (魄 ) असफल हो जाती है।[87] हालांकि कुछ लोगों ने पिशाच के साथ जियांग शि की तुलना पर विवाद खडा कर दिया है क्योंकि जियांग शि आमतौर पर बुद्धिहीन प्राणी हैं जिनके पास स्वतंत्र सोच नहीं हैं।[88] इस राक्षस की एक असामान्य विशेषता इसकी हरी-सफ़ेद रोएंदार त्वचा है, जिसे शायद इसने शवों पर पड़ती फफूंदी या कवक से पाया है।[89]

आधुनिक मान्यताएं

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आधुनिक कथा साहित्य में, पिशाच को एक सौम्य, करिश्माई खलनायक के रूप में चित्रित किया जाता है।[25] पैशाचिक सत्ता के बारे में साधारण अविश्वास के बावजूद पिशाचों के कभी कभार दिखाई देने की सूचना मिलती रहती है। दरअसल, पिशाच की तलाश करने वाले समाज अभी भी मौजूद हैं, हालांकि काफी हद तक सामाजिक कारणों से उनका गठन हुआ है।[23] सन् 2002 के अंतिम दशक से 2003 के आरंभ के दौरान पिशाच के हमलों के आरोप पूरे अफ्रीकी देश मालावी में फ़ैल गए। यहां तक कि भीड़ ने पथराव कर एक को मौत के घाट उतार दिया और कम से कम अन्य चार लोगों पर हमले हुए जिसमे राज्यपाल एरिक चिवाया भी थे क्योंकि लोगों का यह मानना था कि सरकार की पिशाचों के साथ मिली भगत थी।[90]

सन् 1970 के आरंभ में स्थानीय प्रेस ने यह अफवाह फैला दी कि एक पिशाच ने लंदन की हाईगेट सीमेट्री (कब्रिस्तान) को भुतहा बना दिया है या प्रेत बाधित कर दिया है। पिशाच की तलाश करने वाले पेशेवर लोग कब्रिस्तान में बड़ी संख्या में इकट्ठे हुए. इस घटना के बारे में कई किताबें लिखी गईं हैं; विशेषकर सिएन मैनचेस्टर नामक एक स्थानीय निवासी के द्वारा जो ऐसे प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने "हाईगेट वाम्पायर" के अस्तित्व के बारे में सुझाव दिया और यह दावा किया कि उस क्षेत्र के सभी पिशाचों के जाल को झाड़ फूँक कर नष्ट कर दिया है।[91] जनवरी 2005 में, इंग्लैंड के बर्मिंघम शहर में यह अफवाह फ़ैल गई कि एक हमलावर ने कई लोगों को काट लिया है, इससे सड़कों पर पिशाच के घूमने के संबंध में लोगों की चिंता और बढ़ गई। हालांकि स्थानीय पुलिस ने कहा कि ऐसे किसी अपराध की सूचना उनके पास नहीं थी और यह मामला एक शहरी लोककथा जैसा लगता है।[92]

आधुनिक युग में पिशाचीय सत्ता के सबसे उल्लेखनीय मामलों में पुएर्टो रिको और मेक्सिको का छुपाकाबरा ("बकरी को चूसनेवाला") का उल्लेख होता है जिसके बारे में कहा गया है कि यह एक ऐसा जीव है जो पालतू जानवरों के रक्त-मांस खा-पीकर जीता है। अतः कुछ लोग इसे भी पिशाच की श्रेणी में ही मानते हैं। "छुपाकाबरा के उन्माद" को बार-बार गहरे आर्थिक और राजनीतिक संकटों से जोड़ा जाता रहा विशेष रूप से 1990 के मध्य दशक के दौरान.[93]

यूरोप में जहां पिशाच की अधिकतर लोककथाओं का जन्म होता है, वहां पिशाच को केवल एक काल्पनिक प्राणी ही माना जाता है। हालांकि अनेक समुदायों ने आर्थिक उद्देश्यों से भूत-प्रेत को अपना लिया है। कुछ मामलों में, खासकर छोटे इलाकों में पिशाच का अंधविश्वास अभी भी प्रचलित है और पिशाच दिखाई देना अथवा पिशाच के हमले लगातार होते ही रहते हैं। रोमानिया में फरवरी 2004 के दौरान टोमा पेत्रे के कई सगे संबंधियों ने यह डर जताया कि वह पिशाच बन चुका है। उन्होंने उसके शव को कब्र खोदकर बाहर निकाला, उसके दिल को चीर कर बाहर किया, इसे जला दिया और राख को जल में घोल दिया ताकि वे उसे पी सकें.[94]

पैशाचिकी आधुनिक समय के तांत्रिक आंदोलनों की प्रासंगिकता का प्रतिनिधित्व भी करता है। पिशाच की पौराणिक कथाएं, उसकी जादुई क्षमताएं, सम्मोहन एवं परभक्षी आदिरूप एक सशक्त प्रतीक के रूप में अभिव्यक्त होता है जिसका उपयोग धार्मिक अनुष्ठानों, शक्ति के कार्य तथा जादुई करिश्मों और यहां तक कि आध्यात्मिक प्रणाली में भी हो सकता है।[95] यूरोप में सदियों से पिशाच तांत्रिक समाज का एक अंग रहा और एक दशक से भी अधिक समय के लिए अमेरिकी उप-संस्कृति में भी नव-गॉथिक सौंदर्यशास्त्र से पूरी तरह प्रभावित और मिश्रित होकर फ़ैल गया।[96]

पिशाच की मान्यताओं की उत्पत्ति

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ला वैम्पायर, फेवाल में आर डी मोरैने द्वारा लिथोग्राफ (1851-1852).

पिशाच की उत्पत्ति की मान्यताओं के अनेक मौलिक सिद्धांत अंधविश्वास की व्याख्या के रूप में और कभी-कभी पिशाच के कारण सामूहिक उन्माद के रूप में भी पेश किए गए हैं। असामयिक दफ़न से लेकर मृत्यु के बाद शव की सड़न चक्र के संबंध में आरंभिक अज्ञानता तक प्रत्येक को पिशाचों में विश्वास के कारण के रूप में उल्लेखित किया गया।

स्लाव अध्यात्मवाद

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हालांकि अनेक संस्कृतियों में पूर्वी यूरोपीय पिशाच के ही सदृश भूत-प्रेत के बारे में एक ऐसा अंधविश्वास है जो स्लाविक पिशाच की प्रचलित व्याप्त सांस्कृतिक अवधारणा है। स्लाव संस्कृति में पिशाच में विश्वास की जड़ें काफी हद तक ईसाईकरण से पूर्व स्लाव लोगों की आध्यात्मिक मान्यताएं एवं रिवाज़ और मृत्यु के पश्चात् जीवन के बारे में उनकी समझ पर आधारित है। पुराने धर्म का वर्णन करने वाली प्राक्-ईसाई स्लाव रचनाओं के अभाव के बावजूद अनेक पगान के गैर-ईसाई मूर्तिपूजक मान्यताओं एवं धार्मिक अनुष्ठानों को स्लाव लोगों ने उनके देश का ईसाईकरण कर दिए जाने के बाद भी जारी रखा। ऐसी मान्यताओं और रिवाज़ों के उदाहरणों में पूर्वजों की पूजा, घर की आत्माओं एवं मृत्यु के बाद आत्मा के बारे में विश्वास शामिल हैं। स्लाव क्षेत्रों में पिशाच में विश्वास की जड़े स्लाव आध्यात्मिकता की जटिल संरचना में खोजी जा सकती हैं।

शैतान और प्रेतात्माओं ने प्राक्-औद्योगिक स्लाव समाज में महत्वपूर्ण कार्य किए और उन्हें मनुष्य के जीवन तथा उनके अधिकार-क्षेत्र में पारस्परिक रूप से प्रभावित करने वाला समझा जाता था। कुछ प्रेतात्माएं उदार और मानवीय कार्यों में मददगार थीं जबकि अन्य प्रेतात्माएं हानिकारक और अक्सर विनाशकारी हो सकती थीं। ऐसी प्रेतात्माओं के उदाहरण दोमोवोई, रुसल्का, विला, किकिमोरा, पोलुद्नित्सा और वोद्यानोय हैं। इन प्रेतात्माओं को भी पूर्वजों अथवा किसी मृत मानव से व्युत्पन्न माना जाता था। ऐसी प्रेतात्माएं इच्छानुसार विभिन्न आकारों में प्रकट हो सकती थीं, यहां तक कि भिन्न पशुओं और मानव आकारों में. इनमें से कुछ प्रेतात्माएं मानवों को हानि पहुंचाने के लिए अपकारी कार्य कलापों में शामिल हो सकती थीं, जैसा कि, मानवों को डूबोने में, फसल की पैदावार में बाधा पहुंचाने में या मवेशियों के खून चूसने में और कभी-कभी मानवों को सीधे हानि पहुंचाने में भी. अतः स्लाव लोग प्रेतात्माओं के सनकी और विनाशकारी व्यवहार की अपार क्षमता को रोकने के लिए इन्हें संतुष्ट और तृप्त रखने को बाध्य थे।[97]

साधारण स्लाव विश्वास आत्मा और शरीर के बीच एक बुनियादी अंतर की ओर इंगित करता है। आत्मा को नश्वर नहीं माना जाता है। स्लाव मानते थे कि मृत्यु के बाद आत्मा शरीर से बाहर चली जाएगी और अनंत में परलोकगमन से पूर्व अपने आस-पड़ोस और कार्य-स्थल में 40 दिनों तक भ्रमण करती रहेगी.[97] इस कारण, घर के दरवाजों और खिड़कियों को खुला छोड़ देना आवश्यक माना जाता था ताकि आत्मा अपने अवकाशानुसार आराम से आवागमन कर सके। लोगों को ऐसा विश्वास था कि इस वक्त आत्मा में मृतक के शव में पुनः प्रवेश करने की क्षमता है। पहले बताये प्रेतात्माओं के सामान, निकलती हुई आत्मा या तो आशीर्वाद देगी या फिर आने के इन 40 दिनों के दौरान अपने परिवार और पड़ोसियों पर कहर ढ़ा सकती है। किसी एक व्यक्ति की मृत्यु पर उसकी आत्मा की पवित्रता और शांति सुनिश्चित करने के लिए उचित अंत्येष्टि संस्कार पर अधिक जोर दिया जाता था क्योंकि यह आत्मा उसके शरीर से अलग हो चुकी थी। बिना बपतिस्मा बच्चे की मौत, हिंसक अथवा अकाल मृत्यु या किसी भयंकर पापी की मौत (जैसे कि ओझा अथवा हत्यारे की मृत्यु) मृत्यु के पश्चात् आत्मा के अशुद्ध बने रहने के ये सारे आधारभूत कारण हो सकते थे। अगर शरीर को उचित ढंग से दफनाया नहीं गया तो भी आत्मा अशुद्ध हो सकती है। वैकल्पिक रूप से अगर एक शरीर को समुचित तरीके से नहीं दफनाया जाय तो उसमें किसी अन्य अशुद्ध आत्माओं एवं प्रेतात्माओं के प्रवेश कर जाने की प्रबल संभावना हो सकती है। एक अशुद्ध आत्मा स्लाव लोगों में से इसीलिए इतनी भयभीत रहती थी क्योंकि उनमें प्रतिशोध लेने की क्षमता थी।[98]

मृत्यु और आत्मा से संबंधित इन गहरी उलझी मान्यताओं ने पिशाच की स्लाव अवधारणा को आविष्कृत करने में योगदान दिया। पिशाच सड़ते हुए शरीर को धारण किए रहने वाली अशुद्ध प्रेतात्मा का प्रत्यक्षीकरण है। इस बिना मरे हुए प्राणी को तामसिक और जीवितों के प्रति प्रतिशोधी और ईर्ष्यालु समझा जाता है। इसे अपना शारीरिक अस्तित्व बनाए रखने के लिए जीवितों के रक्त की हमेशा जरूरत बनी रहती है।[99] हालांकि पिशाच की यह अवधारणा थोड़ी सी अलग आकृति में स्लाव देशों और उनके गैर स्लाव पड़ोसियों में है - पिशाच विश्वास के विकास का पता स्लाव क्षेत्रों में प्राक्-ईसाई स्लाव अध्यात्मवाद में लगाना संभव है।

रोग निदान विज्ञान

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पॉल बार्बर ने अपनी पुस्तक वैम्पायर्स, बरिअल एंड डेथ में यह वर्णन किया है कि पिशाचों में विश्वास इस बात का परिणाम था कि प्राक्-औद्योगिक समाज के लोगों के लिए मृत्यु और सड़न की प्राकृतिक प्रक्रिया वर्णन से बाहर थी।[100]

लोग कभी-कभी पैशाचिकी के बारे में संदेह करने लग जाते थे जब कोई शव बिना दफ़न के स्वाभाविक शव-सा नहीं दिखता था जैसा कि वे सोचते थे। हालांकि सड़न-प्रक्रिया की दर तापमान और मिट्टी की संरचना पर निर्भर करते हुए भिन्न- भिन्न होती है और इसमें से कई लक्षण अभी भी पूरी तरह ज्ञात नहीं हैं। इसने पिशाच की तलाश करने वाले लोगों को भूल से इस निष्कर्ष पर पहुंचा दिया है कि एक मृत शरीर एक दम ही नहीं गलते या विडम्बनापूर्ण तरीके से उन्होंने सड़न के लक्षणों को निरंतर जीवन के संकेत के रूप में समझ लिया।[101] लाशें फूलती हैं क्योंकि सड़न से धड़ में गैसें भरती हैं और बढ़ता हुआ दबाव रक्त को मुंह और नाक से रिसने के लिए बाध्य कर देता है। इसी कारण शरीर "गोल मटोल", "अच्छा खाया पिया" और "रक्ताभ" दीखता है -- ये परिवर्तन और भी अधिक आश्चर्यजनक होते थे अगर वह व्यक्ति अपने जीवन-काल में पीला मुरझाया हुआ या पतला रहा। अर्नोल्ड पावोल के मामले में, कब्र से खोदकर निकाले गए एक बूढी महिला के शव को उसके पड़ोसियों ने अधिक गोल-मटोल और स्वस्थ ठहराया जबकि अपनी जीवितावस्था में वह ऐसी कभी नहीं दिखी.[102] रिसते हुए रक्त से यह धारणा बनती थी कि वह लाश हाल फिलहाल पैशाचिक क्रिया कलापों में व्यस्त थी।[35] त्वचा का काला पड़ना भी सड़न के कारण उत्पन्न हुआ था।[103] फूले सड़ते हुए शरीर में खूंटी गाड़ने से शरीर से खून बहने लगेगा और शरीर में जमी गैसें बाहर निकलने के लिए मजबूर हो जायेगी. यह कराह जैसी आवाज़ पैदा कर सकता है जब गैसें स्वर-तंत्रियों से होकर गुजरती है या बची-खुची उदर वायु गुदा द्वार से होकर बाहर निकलती है। पीटर प्लोगोजोवित्ज़ के मामले की आधिकारिक रिपोर्ट "दूसरे प्रचंड लक्षण जिन्हें मैं पूरे सम्मान के साथ समर्थन देता हूं" के बारे में चर्चा करती है।[104]

मृत्यु के पश्चात् त्वचा और मसूढ़ों से तरल पदार्थ कम होने लगते हैं और वे सिकुड़ने लगते है। इससे जबड़े के साथ जकड़ी हुई बालों, नाखूनों और दांतों की जड़ें दिखाई देने लगती हैं। इससे यह भ्रम पैदा हो सकता है कि बाल, नाखून और दांत पैदा हो गए हैं। एक निश्चित अवस्था में पहुंचकर नाखून गिर जाते हैं और त्वचा छिलके की तरह अलग हो जाती है, जैसा कि प्लोगोजोवित्ज़ के मामले में रिपोर्ट में कहा गया है -- चमड़ियां और नाखूनों की भीतरी परतें जो बाहर निकल आती हैं उन्हें "नयी त्वचा" और "नए नाखून" मान लिए जाते हैं।[104]

समय से पहले दफन

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यह भी अनुमान लगाया जा चुका है कि पिशाच की लोककथाएं ऐसे लोगों से प्रभावित थीं जिन्हें आदिम चिकित्साज्ञान के कारण जीवित ही दफना दिया जाता था। कुछ मामलों में जिसमें लोगों ने किसी ख़ास ताबूत से आवाज़ बाहर निकलने की सूचना दी, जिसे बाद में खोदकर बाहर निकालने पर अंगुलियों के नाखूनों के निशान अदंर की ओर पाए गए जिससे यह जाहिर हो रहा था कि शिकार बचकर भागने की कोशिश कर रहा था। दूसरे मामलों में लोग उनके सिरों, नाकों या चेहरों पर मारते थे और यह जाहिर होता था कि वे "भोजन करा" रहे हैं।[105] इस सिद्धांत समस्या इस प्रश्न को लेकर है कि जिन लोगों को जीवित ही अनुमानतः दफना दिया जाता था भला वे इतने लंबे अरसे तक बिना अन्न, जल अथवा शुद्ध हवा के कैसे जीवित रह सकते थे। आवाज़ बाहर आने की एक वैकल्पिक व्याख्या शवों के प्राकृतिक रूप से सड़न के कारण गैसों के बाहर निकलने की व्याकुलता से बुदबुदाहट की आवाज़ है।[106] अव्यवस्थित एवं विकृत मकबरे के पीछे ऐसा ही एक और कारण है, मकबरे को लूटना.[107]

संक्रामक रोग

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लोककथाओं की पैशाचिकी का संबंध अपहचान योग्य अथवा रहस्यमयी बीमारियों से होने वाली सिलसिलेवार मौतों से जोड़ा गया है जो अक्सर उसी परिवार में अथवा उसी के समान छोटे समुदाय में होती रही हैं।[75]पीटर प्लोगोजोवित्ज़ और अर्नोल्ड पाओल के पारंपरिक मामलों में महामारी का संकेत स्पष्ट है और इससे भी अधिक मर्सी ब्राउन के मामले में और आमतौर पर न्यू इंग्लैंड के पिशाची विश्वासों में जहां किसी खास बीमारी, तपेदिक को पैशाचिकी के प्रकोप से जोड़ दिया जाता था। जैसा कि टाऊन प्लेग के फुफ्फुसीय रूप के सामान यह फेफड़ों के ऊत्तक के फटने के कारण होठों पर खून दिखाई देता था।[108]

पॉरफिरिया

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सन् 1985 में जीव रसायनज्ञ डेविड डॉल्फिन ने दुर्लभ रक्त विकार पॉरफिरिया और पिशाच की लोककथा के बीच एक कड़ी की पेशकश की। यह देखते हुए कि इस हालत में अंतःशिरा के रक्त से इलाज किया जाता है, उन्होंने सुझाया कि बड़ी मात्रा में रक्त के सेवन से रूधिर में वृद्धि होगी जो किसी तरह पेट की दीवारों के पार रूधिर प्रवाह में पहुंचा दिया जायेगा. इस प्रकार पिशाच केवल पॉरफिरिया बीमारी से पीड़ित थे जो रूधिर को बदलकर अपने रोग के लक्षण को कम करना चाहते थे।[109] इस सिद्धांत को चिकित्सा शास्त्र की दृष्टि से नकार दिया गया। बतौर इस सुझाव के कि पॉरफिरिया रोग से पीड़ित रक्त के लिए लालायित रहते है अथवा रक्त के उपभोग से पॉरफिरिया के लक्षणों में आराम मिल सकता है, ये बीमारी के बारे में गलतफहमी पर आधारित थे। इससे अतिरिक्त, यह देखा गया कि डॉल्फिन काल्पनिक (खून चूसने वाले) पिशाचों को भूल से लोककथा के पिशाचों के रूप में समझ लिया था, जिनमें से अधिकतर को उन्होंने पाया कि वे खून नहीं पीते.[110] इसी प्रकार पीड़ितों के द्वारा सूर्य की रोशनी और संवेदना के बीच समानता स्थापित किया गया जबकि यह संपर्क काल्पनिक न कि लोककथात्मक पिशाच से जुड़ा हुआ था। किसी भी हाल में डॉल्फिन अपने काम के व्यापक प्रचार-प्रसार की ओर अग्रसर नहीं हुए.[111] विशेषज्ञों के द्वारा खारिज कर दिए जाने के बावजूद इस कड़ी ने मीडिया का ध्यान आकर्षित किया[112] और लोकप्रिय आधुनिक लोककथा बन गया।[113]

जलांतक (रेबीज)

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जलांतक को पैशाचिक लोककथा से जोड़ा गया है। स्पेन में विगो के ज़ेरल हॉस्पिटल में एक तंत्रिका विज्ञानी, डॉ॰ जुआन गोमेज़-अलोंसो ने तंत्रिका विज्ञान की एक रिपोर्ट में इस संभावना की जांच की। लहसुन और रोशनी के प्रति ग्रहणशीलता अति संवेदनशीलता के कारण हो सकती थी, जो जलांतक रोग का ही एक लक्षण है। यह रोग दिमाग के हिस्सों को भी प्रभावित कर सकता है जिससे सामान्य निद्रा की प्रवृत्तियों में गड़बड़ी और (इस प्रकार निशाचर बनकर) अतिकामुकता पैदा हो सकती है। लोककथा के अनुसार अगर कोई अपना प्रतिविम्ब देख सकता है तो वह उन्मत्त या पागल नहीं है (लोककथा की ओर संकेत है कि पिशाचों के प्रतिविम्ब नहीं होते). भेड़िये और चमगादड़ जिन्हें अक्सर पिशाचों से जोड़ा जाता है, वे जलांतक के वाहक हो सकते हैं। यह रोग दूसरों को दांत से काटने के लिए अभिप्रेरित कर सकता है और मुंह पर खूनी झाग भी भर सकता है।[114][115]

गतिशील अतींद्रिय ज्ञान

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सन् 1931 में दुःस्वप्न पर अपने प्रबंध लेख ऑन द नाईटमेयर में वेल्श के मनोविश्लेषक एर्नेस्ट जोन्स ने यह उल्लेख किया कि पिशाच अनेक अवचेतन प्रबल प्रेरणाओं और रक्षात्मक प्रतिक्रियाओं के प्रतीक मात्र हैं। प्रेम, अपराध और घृणा उनकी भावनाएं हैं जो मृतक के अपने कब्र में लौट आने के विचार को बढ़ावा देती है। अपने प्रिय जनों से पुनर्मिलन की कामना से शोक संतप्त लोग यह विचार पोषण करते थे कि हाल में मृतक की भी ऐसी ही धारणा होनी चाहिए। इसी से यह धारणा पैदा हुई कि लोककथाओं के पिशाच और भूत-प्रेत अपने रिश्तेदारों से मुलाकात करने आते हैं, खासकर अपने जीवन साथी से.[116] हालांकि कुछ मामलों में जहां रिश्ते के साथ अवचेतन अपराध जुड़ा होता था, पुनर्मिलन की आकांक्षा चिंता से विकृत हो जाती थी। इससे दमन का जन्म हो सकता है जिसे फ्रॉयड ने विकृत रोगजन्य के विकास के साथ जोड़ा था।[117] जोन्स ने इस मामले में अनुमान लगाया कि इस मामले में पुनर्मिलन की मूल इच्छा (यौन इच्छा) में जबरदस्त रूप से परिवर्तन हो सकता है: इच्छा का स्थान भय ले लेती है, प्यार की जगह परपीड़न-रति और वस्तु अथवा प्रियजन का स्थान कोई अज्ञात सत्ता ले लेती है। यौन का पहलू बरकरार रह भी सकता है और नहीं भी.[118]

खून चूसने की जन्मजात कामुकता का आतंरिक संबंध नरभक्षण एवं लोककथात्मक इन्कुबुस जैसी व्यवहार से जोड़ा जा सकता है। अनेक जनश्रुतियों के रिपोर्ट के अनुसार तरह-तरह के प्राणी शिकार के शरीर से अन्य तरल पदार्थ निकाल लेते हैं, स्पष्ट है कि अवचेतन में मिलन के कारण वीर्य-स्खलन हुआ हो। अंततः जोन्स ने गौर किया कि जब कामेच्छा का अधिक स्वाभाविक पहलू दमित होता है, तो दबे हुए रूप कि अभिव्यक्ति खासकर परपीड़न-रति में हो सकती है। उन्होंने महसूस किया कि मौखिक परपीड़न-रति पैशाचिक बर्ताव का अभिन्न अंग है।[119]

राजनीतिक व्याख्या

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आधुनिक युग में पिशाच मिथक की पुनः खोज राजनैतिक मकसद के बिना नहीं है।[120] कुलीन काउंट ड्रैकुला कुछ पागल नौकर-चाकर से अलग अकेले अपने किले में, केवल रात में ही प्रकट होकर अपने किसानों को खाकर जीनेवाला प्राचीन परजीवी शासन का प्रतीक है। वर्नर हार्ज़ोग ने अपनी पुस्तक नोस्फेरातु द वैम्पायर में इस राजनीतिक व्याख्या को अतिरिक्त व्यंग्यात्मक मोड़ देते हैं जब उनका युवा एस्टेट एजेंट जो कहानी का नायक है, अगला पिशाच बन जाता है। इस प्रकार पूंजीवादी बुर्जुआ आगामी परजीवी वर्ग बन जाता है।[121]

मनोविकृति विज्ञान

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अनेक हत्यारों ने अपने शिकारों पर मिलते-जुलते पैशाचिक कर्म-काण्ड पूरे किए हैं। सीरियल हत्यारे पीटर कर्टेन और रिचर्ड ट्रेंटन चेज़ दोनों को पत्रिकाओं में "पिशाच" कहा गया जब यह देखा गया कि वे दोनों उस व्यक्ति का रक्त पान कर रहे थे जिसकी उन्होंने हत्या की थी। इसी प्रकार सन् 1932 में स्वीडन के स्टॉकहोम में अनसुलझे हत्या के मामले को पीड़ित की मौत की परिस्थितियों के कारण पिशाच हत्या[122] का उपनाम दिया गया। 16वीं सदी के अंतिम चरण में हंगरी की काउंटेस और सामूहिक हत्यारिणी एलिजाबेथ बेथोनी अपने परवर्ती कारनामों के कारण बदनाम हो गई, जब उसे अपनी सुंदरता और जवानी बरक़रार रखने के लिए अपने शिकार के खून में नहाता हुआ चित्रित किया गया।[123]

लोगों की समकालीन उपसंस्कृति के लिए पिशाच एक जीवन शैली का नाम है, अधिकतर गॉथ उपसंस्कृति में लोग दूसरों का रक्त पान मनोरंजन के लिए करते हैं। यह प्रतीक पंथ, हॉरर फ़िल्म्स, ऐनी राईस की कहानियां एवं विक्टोरियन इंग्लैंड की शैलियों से संबंधित लोकप्रिय संस्कृति के समृद्ध समकालीन इतिहास से अनुप्रेरित है।[124] पिशाच उपसंस्कृति में सक्रिय पैशाचिकता में रक्त से संबंधित पैशाचिकता, जिसे आम तौर पर रक्तिम पैशाचिकता कहा जाता है तथा मानसिक पैशाचिकता अथवा अनुमानित ऊर्जा पर अपना भरण-पोषण करने के उल्लेख शामिल हैं।[125]

पिशाच चमगादड़

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पेरू में एक पिशाच

हालांकि अनेक संस्कृतियों में इनके बारे में कहानियां हैं, हाल फ़िलहाल ही पिशाच चमगादड़ पारंपरिक पिशाच जनश्रुति के अभिन्न अंग बन गए हैं। वास्तव में, 16वीं सदी में दक्षिण अमेरिका की मुख्य भूमि पर उनका पता लगने तक पिशाच चमगादड़ केवल पिशाच की जनश्रुति (लोककथा) से ही अभिन्न रूप से जोड़े जाते थे।[126] हालांकि यूरोप में पिशाच चमगादड़ नहीं है, चमगादड़ों और उल्लुओं को काफी अरसे से अलौकिक सत्ता एवं सगुण लक्षणों के साथ जोड़ा जाता रहा है, खासकर उनकी निशाचर आदतों के कारण.[126][127] आधुनिक इंग्लिश अग्रदूती परंपरा में, चमगादड़ का अर्थ है "अन्धकार और अराजक की शक्तियों की जागरूकता".[128]

वास्तविक पिशाच चमगादड़ों की तीन प्रजातियां हैं और सब के सब लैटिन अमेरिका के स्थानिक है। मानव-स्मृति में ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जो यह सुझाए कि प्राचीन विश्व में इनके कोई सगे पूर्वज थे। अतः यह असंभव है कि अनुश्रुतियों के पिशाच केवल विकृत प्रस्तुति हैं अथवा पिशाच चमगादड़ के केवल यादगार हैं। चमगादड़ों का नामकरण अन्य बातों के विपरीत लोककथाओं (जनश्रुतियों) के पिशाच के नाम पर किया गया था। द ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के रिकॉर्ड के अनुसार जनश्रुतियों का उपयोग इंग्लिश में 1734 से और जीव विज्ञान में 1774 से पूर्व नहीं किया गया था। हालांकि पिशाच चमगादड़ के काटने से आमतौर पर व्यक्ति को कोई हानि नहीं पहुंचती है। चमगादड़ को जाना जाता है कि वह मानवों पर ही अपना पोषण करते हैं और बड़े शिकार कर जैसे कि मवेशी और कभी-कभी अपने शिकार के शरीर की त्वचा पर दो-नाखूनों के निशान छोड़ जाते हैं।[126]

साहित्यिक ड्रैकुला अनेक बार उपन्यास में अपने आप को चमगादड़ में रूपांतरित कर लेता है और पिशाच चमगादड़ों का उल्लेख इसमें दो बार हुआ है। ड्रैकुला के 1927 के मंचीय निर्माण में उपन्यास का अनुकरण करते हुए ड्रैकुला को चमगादड़ में बदलते हुए दिखाया गया है जैसा कि फ़िल्म में भी है जिसमें बेला लुगोसी चमगादड़ में बदल जाती है।[126] चमगादड़ में रूपांतरण के दृश्य का उपयोग फिर से लोन चानी जूनियर द्वारा 1943 में सन ऑफ़ ड्रैकुला में किया गया।[129]

आधुनिक कथा साहित्य में

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पिशाच अब लोकप्रिय उपन्यास का उपास्कर (आवश्यक अंग) है। ऐसे उपन्यासों की रचना अठारहवीं सदी की कविता से आरंभ हुई जो उन्नीसवीं सदी में लघु कथाओं के रूप में जारी रही जिसमें से सर्वप्रथम और सबसे अधिक प्रभावोत्पादक जॉन पोलिडोरी की द वैम्पायर (1819) थी जिसमें लोर्ड रुथ्वेन को पिशाच के चरित्र में दिखाया गया है। लोर्ड रुथ्वेन के शोषण के कारनामों को आगे चलकर पिशाच नाटकों की श्रृंखलाओं में दर्शाया गया जिसमें वे विरोधी नायक (खलनायक) की भूमिका में थे। पिशाच की विषय-वस्तु अत्यधिक भयानक धारावाहिक प्रकाशनों जैसे कि वारने द वैम्पायर (1847) में जारी रही में और जो ब्रैम स्टोकर रचित और 1897 में प्रकाशित प्रतिष्ठित सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ पिशाच उपन्यास ड्रैकुला में चरम उत्कर्ष पर पहुंच गयी।[130] समयांतराल से, कुछ चारित्रिक विशेषताओं को अब अभिन्न अंग माना जाता है। पिशाच के पार्श्व चित्र में समाविष्ट कर लिए गए हैं। नुकीले विषदंत और सूर्य की रोशनी में असुरक्षा का अहसास 19वीं सदी के दौरान दिखाई दी; वारने द वैम्पायर और काउंट ड्रैकुला, दोनों में ही बाहर निकले हुए बड़े-बड़े दांत दिखाए गए हैं[131] एवं मुर्नाऊ नोस्फेरातु (1922) में दिन के उजाले से भय दर्शाया गया है।[132] 1920 के दशक की मंच प्रस्तुतियों में लबादा का पहनावा सामने आया, जिसमें नाटककार हैमिल्टन डिएन को मंच से गायब करने में आसानी के लिए ऊंचे कॉलर वाला लबादे का प्रयोग शुरू किया गया।[133] लोर्ड रुथ्वेन और वारने चांदनी में अपने को चंगा पा रहे थे हालांकि पारंपरिक लोककथा में ऐसा कोई उल्लेखन नहीं मिलता है।[134] यद्यपि लोककथाओं में सविस्तार प्रमाण उपलब्ध नहीं है फिर भी अमरता पिशाच फिल्म और साहित्य की सबसे सबल विशेषता है। अलौकिक जीवन पाने के लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है यथा, अपनी बराबरी के भूतपूर्व लोगों के रक्त की निरंतर लालसा.[135]

 
द डार्क ब्लू से डी एच फ्रिसटन द्वारा "कार्मिल्ला" 1872.

पिशाच अथवा भूत-प्रेत सर्वप्रथम कविताओं में प्रकाशित हुए उदाहरणार्थ हेनरिच अगस्ट ओसेनफेल्डर के द वैम्पायर (1748), गोटफ्राइड अगस्ट बर्जर के लेनोर (1773), जोहान वोल्फगैंग वोन गोएथ के डाई बरौट वोन कोरिन्थ (द ब्राइड ऑफ़ कोरिन्थ) (1797), सैमुएल टेलर कोलेरिज की अधूरी कविता क्राइस्टाबेल तथा लोर्ड बायरन की द जियावर (1813) में.पिशाच से संबंधित द वैम्पायर (1819) नामक प्रथम गद्य उपन्यास कृति का श्रेय बायरन को दिया गया। हालांकि वास्तव में यह बायरन के निजी चिकित्सक जॉन पोलिडोरी द्वारा लिखी गई थी, जिन्होंने अपने यशस्वी रोगी की गुक्दों में विखरी, रहस्यपूर्ण खंडित कहानी को रूपांतरित कर दिया। [23][130] बायरन के निजी हावी होने वाले व्यक्तित्व को उसकी प्रेयसी लेडी कैरोलिन लैम्ब ने अपने यथार्थवादी रोमन-अ-क्लेफ़ (टीका-टिप्पणियों सहित व्यंग्यात्मक रचना) लिखी गई रचना ग्लेनार्वोन (बायरन के उग्र भयंकर जीवन पर आधारित एक गॉथिक फंतासी) जिसको मॉडल चरित्र के रूप में कभी न मरने वाले नायक लोर्ड रुथ्वेन के लिए पोलिडोरी ने अपनी रचना में स्थान दिया। पिशाच पर आधारित द वैम्पायर 19वीं सदी के आरंभ की सर्वाधिक सफल और सबसे प्रभावशाली कृति थी।[5]

जेम्स मालकॉम रायमर रचित लोकप्रिय मध्य विक्टोरियन युगीन गॉथिक संत्रास कथा वारने द वैम्पायर युगांतकारी घटना थी (वैकल्पिक रूप से थॉमस प्रेस्केट प्रेस्ट को आरोपित), यह सर्वप्रथम श्रृंखलाबद्ध पर्चों की शक्ल में 1845 से 1847 के बीच आमतौर पर पेन्नी ड्रेडफुल्स शीर्षक से प्रकाशित हुआ क्योंकि इसमें वीभत्स सामग्री थी और कीमत भी कम था। यह कहानी पुस्तक के रूप में 1847 में प्रकाशित हुई जिसमें दो स्तंभों वाले 868 पृष्ठ थे। इसमें सनसनीपूर्ण रोमांचक शैली का खास प्रयोग है जिसमें वारने के भयानक कारनामों को चटकीली कल्पना के सहारे व्यंजित किया गया है।[134] इसके अतिरिक्त इस शैली पर आधारित दूसरी रचना शेरिडन ले फानु की समलैंगिक पिशाच कथा कार्मिला (1871) थी। उससे पूर्व वारने की ही तरह पिशाच कार्मिला का उसकी अवस्था की विवशता को उजागर करने के लिए करूणा और सहानुभूति की रोशनी में चरित्रांकन किया गया है।[136]

ब्रैम स्टोकर के ड्रैकुला (1897) की तरह लोकप्रिय उपन्यास में पिशाच को चित्रित करने की प्रचेष्टा इतनी प्रभावशाली या इतनी पूर्ण विकसित किसी की भी नहीं थी।[137] पैशाचिकी का चित्रण दानवी आधिपत्य की संक्रामक बीमारी के रूप में हुआ जिसमें यौन भावना, रक्त और मृत्यु, हलके रोग गौण तत्व के रूप में विक्टोरियन यूरोप में थे जहां तपेदिक और उपदंश की बीमारियां आम बात थीं। स्टोकर की कृति में पैशाचिक विशेषताओं के साथ ही लोककथा के परंपरा का प्रभुत्व समाहित हो गया जिसने आधुनिक काल्पनिक कथात्मक पिशाच की अवधारणा को विकसित किया। अपनी पुरानी रचनाओं, द वैम्पायर और "कार्मिला" के आधार पर स्टोकर ने 1800 के अंतिम दशक में अपनी नई पुस्तक के लिए अनुसंधान आरंभ कर दिया। इस संदर्भ में उन्होंने कुछ पुस्तकों का भी अध्ययन किया जैसे कि एमिली जेरार्ड द्वारा लिखित द लैंड बियोंड द फॉरेस्ट (1888) एवं ट्रांसिल्वानिया और पिशाचों के बारे में अन्य पुस्तकें. लंदन में एक सहकर्मी ने उन्हें "यथार्थ-जीवन ड्रैकुला" व्लाद टेपेस की कथा सुनाई. स्टोकर ने अविलम्ब इस कहानी को अपनी किताब में शामिल कर लिया। जब पहली बार 1897 में यह पुस्तक प्रकाशित हुई तो पहला अध्याय छोड़ दिया गया किन्तु बाद में 1914 में यह ड्रैकुला'स गेस्ट के रूप में प्रकाशित हुआ।[138]

1954 में प्रकाशित रिचर्ड मैथेसन की आई ऐम लीजेंड वैज्ञानिक पिशाच उपन्यासों में सर्वप्रथम था जिसके आधार पर द लास्ट मैन ऑन अर्थ (1964), द ऑमेगा मैन (1971) और आई ऐम लीजेंड (फ़िल्म) (2007) फ़िल्में बनीं।

इक्कीसवीं सदी ने पिशाच कथा के अधिकाधिक उदाहरण लाए जैसे की जे.आर. वार्ड की ब्लैक डैगर ब्रदरहुड सीरीज़ और अन्य काफी लोकप्रिय पिशाच पुस्तकें जिसने किशोरों और युवा वयस्कों को काफी आकर्षित और प्रभावित किया। ऐसे पैशाचिक असाधारण रोमांटिक उपन्यास एवं सहबद्ध पैशाचिक चटपटे मनोरंजक उपन्यास तथा पैशाचिक गुप्त रहस्यमयी कहानियां उल्लेखनीय लोकप्रियता और हमेशा बढ़ने वाली समकालीन प्रकाशन की घटनाएं हैं।[139]एल.ए. बैंक्स की द वैम्पायर हंट्रेस लीजेंड सीरीज़, लॉरेल के. हैमिल्टन की कामुक अनिता ब्लेक: वैम्पायर हंटर सीरीज़ और किम हैरिसन की द होलोज़ सीरीज़ पिशाच का चित्रण विविधता के साथ नए दृष्टिकोण से करते हैं, जिनमें से कुछ का मौलिक जनश्रुतियों के साथ कोई संबंध नहीं है।

बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध ने अनेक खंडों में पिशाच महाकाव्य के प्रकाशन का उत्थान देखा. इनमें से प्रथम गॉथिक रोमांस शैली के रचनाकार मैरिलिन रोस की कृति बमाबास कॉलिंस सीरीज़ (1966-71) थी जो हल्के-फुल्के ढंग से समकालीन अमेरिकन TV सीरीज़ डार्क शैडोज़ पर आधारित थी। इसने पिशाचों को काव्यात्मक त्रासद नायक के चरित्र के रूप में देखने की प्रवणता पैदा की न कि बुराई के परंपरागत अवतार के रूप में. इस फार्मूला का प्रयोग उपन्यासकार ऐनी राईस के सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रभावशाली कृति वैम्पायर क्रोनिकल्स (1976-2003) में किया गया।[140]. स्टेफनी मेयेर द्वारा कृत "ट्विलाइट" सीरीज़ (2005-2008) में पिशाच लहसुन और क्रॉस के प्रभाव को नजरअदाज़ कर देते हैं और सूर्य की रोशनी का भी उन पर कोई असर नहीं पड़ता है (हालांकि यह उनके अलौकिक स्वरुप को उजागर करती है).[141]

फिल्म और टेलीविज़न

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पिशाच का चरित्र क्लासिक हॉरर फिल्म के पूर्व प्रतिष्ठित पात्रों में से एक माना जाता है, यह फिल्म और खेल (वीडियो गेम्स) उद्योगों का सबसे प्रचलित विषय साबित हुआ है। शर्लौक होम्स को छोड़ कर ड्रैकुला ज़्यादातर फिल्मों का प्रधान चरित्र है और अन्य अनेक आरंभिक फिल्में या तो ड्रैकुला नामक उपन्यास पर आधारित थीं या तो उससे काफी हद तक प्रभावित थीं। इनमें शामिल है एफ़. डब्ल्यु. मुर्नाऊ द्वारा निर्देशित 1922 की ऐतिहासिक जर्मन मूक फिल्म नोस्फेरातु जो ड्रैकुला के चरित्र को चित्रित करने वाली पहली फिल्म थी। हालांकि नाम और चरित्र ड्रैकुला की नक़ल करने के लिए ही थे पर स्टोकर की विधवा पत्नी ने मुर्नाऊ को ऐसा करने की अनुमति नहीं दी। इसलिए फिल्म के कई पहलुओं को बदलना पड़ा. इस फिल्म के अलावा थी युनिवर्सल की ड्रैकुला (1931) जिसमें बेला लुगोसी ने काउंट की भूमिका में अभिनय किया। यह ड्रैकुला को चित्रायित करने वाली पहली सवाक फिल्म थी। इस दशक में अनेक पिशाच फिल्में बनी जिसमें सबसे उल्लेखनीय 1936 में बनी ड्रैकुला'स डॉटर थी।[142]

पिशाच की लोककथा को फिल्म उद्योग में और भी मजबूती तब मिली जब मशहूर हैमर हॉरर सीरिज़ की फिल्मों के साथ नयी पीढ़ी के लिए ड्रैकुला के चरित्र का पुनर्जन्म हुआ। इस सीरिज़ में क्रिस्टोफर ली ने काउंट का अभिनय किया। 1958 की सफल फिल्म ड्रैकुला की सात उत्तर्काथायें आयीं, जिनमें ली ने भूमिका निभाई. ली इनमें से दो फिल्मों को छोड़कर बाकी सब में ली ड्रैकुला के भूमिका में लौटे एवं उनका अभिनय यादगार बन गया।[143] 1970 के दशक तक फिल्मों में पिशाच के चरित्र में विविधता आई जैसे कि काउंट योर्गा, वैम्पायर (1970), 1972 की ब्लाकुला में एक अफ्रीकी काउंट के रूप में, 1979 सलेम'स लॉट में एक नोस्फेरातु जैसा पिशाच और उसी साल नोस्फेरातु द वैम्पायर शीर्षक से नोस्फेरातु का पुनर्निमाण क्लॉस किंसकी के साथ किया। अक्सर समलैंगिक विशेषताओं के साथ नारी चरित्रों को कई फिल्मों में चित्रित किया गया जैसे की कार्मिला पर आधारित हैमर हॉरर की द वैम्पायर लवर्स (1970). हालांकि दुष्ट पिशाच के केंद्रीय चरित्र के इर्द-गिर्द शिष्टता अभी भी घूमती है।[143]

1972 की डैन कर्टिस की टेलीविज़न श्रृंखला (सीरिज़) कोल्चाक: द नाईट स्टॉकर के आरंभिक एपिसोड संवाददाता कार्ल कोल्चाक के चरित्र के इर्दगिर्द घूमती है जो लास वेगास पट्टी पर एक पिशाच के शिकार की टोह में लगा हुआ है। बाद की फिल्मों की पटकथा में अनेक विविधताएं आयीं, इनमें से कुछ पिशाच की तलाश करने वाले व्यक्ति पर संकेंद्रिक थीं जैसे कि ब्लेड मार्वेल कॉमिक्स की "ब्लेड" फिल्मों में और बफ्फी द वैम्पायर स्लेयर में. बफ्फी, जिसे 1992 में रिलीज़ की गयी, ने TV पर पैशाचिक चरित्र का पूर्वाभास इसी नाम की एक लंबे अरसे तक चलने वाली हिट TV सीरीज़ के रूपांतर के वृहद् संस्करण एंजेल के साथ उजागर किया। फिर भी अन्य लोगों ने पिशाचों को नायक के रूप में ही पेश किया जैसे कि 1983 की द हंगर, 1994 की इंटरव्यू विद द वैम्पायर: द वैम्पायर क्रौनिकल्स और इसके अप्रत्यक्ष परिणाम के रूप में क्वीन ऑफ़ द डैम्ड . ब्रैम स्टोकर की ड्रेकुला 1992 की असाधारण रीमेक थी जो तब की सर्वोच्च आमदनी वाली पिशाच फिल्म थी।[144] पैशाचिक पटकथाओं में अभिरुचि की इस वृद्धि के फलस्वरुप पिशाच के चरित्र को कई फिल्मों में पेश किया गया जैसे की अंडरवर्ल्ड और वैन हेल्सिंग, रूसी नाईट वॉच एवं TV लघु श्रृंखला (मिनिसीरिज) लघु रूपांतर सलेम'स लॉट, दोनों ही 2004 से. ब्लड टाइज़ की श्रृंखला (सीरिज) का प्रीमिअर लाइफटाइम टेलीविज़न पर 2007 में हुआ जिसमें हेनरी फित्जरॉय के चरित्र को इंग्लैंड के हेनरी VIII के पिशाच में बदल गए नाजायज़ बेटे के रूप में आधुनिक टोरंटो में भूतपूर्व टोरंटो की महिला जासूस के साथ पेश किया गया। 2008 की HBO की ट्रू ब्लड शीर्षक की श्रृंखला (सीरिज) ने पिशाच की विषय-वस्तु को दक्षिणी रूप में पेश किया।[141] पिशाच की विषय-वस्तु की निरंतर लोकप्रियता का श्रेय दो प्रमुख कारकों के संयोजन को दिया जाता है: कामुकता का प्रतिनिधित्व और मृत्यु का चिरस्थायी भय.[145]

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