निंबार्क संप्रदाय
निम्बार्क सम्प्रदाय, वैष्णवों के चार सम्प्रदायों में अत्यन्त प्राचीन सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय को हंस सम्प्रदाय, कुमार सम्प्रदाय और सनकादि सम्प्रदाय भी कहते हैं। इस सम्प्रदाय का सिद्धान्त द्वैताद्वैतवाद कहलाता है। इसी को भेदाभेदवाद भी कहा जाता है। मथुरा में स्थित ध्रुव टीले पर निम्बार्क सम्प्रदाय का प्राचीन मन्दिर है।
स्थापक | |
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जगद्गुरु स्वामी निम्बार्काचार्य | |
महत्वपूर्ण आबादी वाले क्षेत्र | |
भारत व नेपाल | |
भाषाएँ | |
संस्कृत, हिन्दी व बृजभाषा |
वैष्णव चतुःसम्प्रदाय में श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय अत्यन्त प्राचीन अनादि वैदिक सत्सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय के आद्याचार्य श्रीसुदर्शनचक्रावतार जगद्गुरु श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य है । आपकी सम्प्रदाय परम्परा चौबीस अवतारों में श्रीहंसावतार से प्रारम्भ होती है। श्रीहंस भगवान् से जिस परम दिव्य पंचपदी विद्यात्मक श्रीगोपाल-मन्त्रराज का गूढतम उपदेश जिन महर्षिवर्य चतु: सनकादिकों को प्राप्त हुआ, उसी का दिव्योपदेश देवर्षिप्रवर श्रीनारदजी को मिला और वही उपदेश द्वापरान्त में महाराज परीक्षित के राज्यकाल में श्रीनारदजी से श्रीनिम्बार्क भगवान् को प्राप्त हुआ।
इतिहास
संपादित करेंनिखिलभुवनमोहन सर्वनियन्ता सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण की मंगलमयी पावन आज्ञा शिरोधार्य कर चक्रराज श्रीसुदर्शन ने ही इस धराधाम पर भारतवर्ष के दक्षिण में महर्षिवर्य श्री वरूण पवित्र आश्रम में माता जयन्तीदेवी के उदर से श्रीनियमानन्द के रूप में अवतार धारण किया।
अल्पवय में ही माता जयन्ती तथा पिता महर्षि वरूण के साथ उत्तर भारत में व्रजमण्डल स्थित गिरिराज गोवर्धन की सुरम्य उपत्यका तलहटी में निवास कर श्रुति-स्मृति-सूत्रादि विविध विद्याओं का सांगोपांग विधिवत अध्ययन किया । पितामह ब्रह्मा जी एक दिवाभोजी यति के रूप में सूर्यास्त के समय आपके आश्रम पर उपस्थित हुए । विविध शास्त्रीय चर्चाओं के अनन्तर जब श्रीनियमानन्द प्रभु ने यति से भगवत प्रसाद लेने का आग्रह किया तो यति ने सूर्यास्त का संकेत करते हुए अपने दिवभोजी होने का संकल्प स्मरण कराया । समागत अतिथि के अभुक्त ही चले जाने से शास्त्र आज्ञा की हानि होते देख श्रीनियमानन्द ने अपने सुदर्शन-चक्र स्वरुप के तेज को समीपस्थ निम्बवृक्ष पर स्थापित कर दिवभोजी यति को सूर्य रूप में दर्शन कराकर भगवदप्रसाद पवाया । यति ने ज्योंही आचमन किया तो भान हुआ की एक प्रहार रात्रि व्यतीत हो चुकी हैं । इस महान विस्मयकारिणी घटना को देखकर ब्रह्माजी ने वास्तविक रूप में प्रकट होकर श्रीनियमानन्द को स्वयं द्वारा परीक्षा लिया जाना बतलाकर निम्ब वृक्ष पर अर्क (सूर्य) के दर्शन कराने के कारण श्रीनिम्बार्क नाम से सम्बोधित किया। और भविष्य में इसी नाम से विख्यात होने की घोषणा की, तबसे श्रीनियमानन्द प्रभु का नाम श्रीनिम्बार्क प्रसिद्द हुआ ।
आपने प्रस्थानत्रयी पर भाष्य रचना कर स्वाभाविक द्वैताद्वैत नामक सिद्धान्त का प्रतिष्ठापन किया। वृन्दावननिकुंजविहारी युगलकिशोर भगवान् श्रीराधाकृष्ण की श्रुति-पुराणादि शास्त्रसम्मत रसमयी मधुर युगल उपासना का आपने सूत्रपात कर इसका प्रचुर प्रसार किया। कपालवेध स़िद्धान्तानुसार विद्धा एकादाशी त्याज्य एवं शुद्धा एकादाशी ही ग्रा है, व्रतोपवास के सन्दर्भ में यही आपश्री का अभिमत सुप्रसिद्ध है। सम्प्रदाय के आद्य-प्रवर्तक आप ही लोक-विश्रुत हैं। आपका प्रमुख केन्द्र व्रज में श्रीगोवर्धन के समीप निम्बग्राम ही रहा है। जिसका संरक्षण परम्परा से अखिल भारतीय श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ, निम्बार्कतीर्थ के अधीनस्थ है। श्रीनिम्बार्क भगवान् के पट्टाष्य पांचजन्य शंखावतार श्री श्रीनिवासाचार्यजी महाराज ने श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य कृत वेदान्त पारिजातसौरभाख्य ब्रसूत्र भाष्य पर वेदान्त कौस्तुभ भाष्य की बृहद् रचना की। श्रीनिम्बार्क भगवान् द्वारा विरचित वेदान्त कामधेनु दालोकी पर आचार्यवर्य श्री पुर्षोत्तामाचार्य जी महाराज ने वेदान्तरत्नमंजूषा नामक वृहद भाष्य को रचा, जो परम मननीय है। पूर्वाचार्य परम्परा में जगद्विजयी श्रीकोवकामीरिभट्टाचार्यजी महाराज ने वेदान्त कौस्तुभ भाष्य पर प्रभावृा नामक विस्तृत व्याख्या का प्रणयन किया। श्रीमद्भगवद्गीता पर भी आप द्वारा रचित तत्व-प्रकाशिका नामक व्याख्या भी पठनीय है। इसी प्रकार आपका क्रमदीपिका तन्त्र ग्रन्थ अति प्रसिद्ध है। आपने मथुरा के विश्राम घाट पर तान्त्रिक यवन काजी द्वारा लगाये गये यन्त्र को अपने यन्त्र से विफल कर हिन्दू संस्कृति एवं वैदिक सनातन वैष्णव धर्म की रक्षा की। आपके परम प्रख्यात प्रमुख शिष्य रसिकाचार्य श्री श्रीभट्टाचार्यजी महाराज ने व्रजभाषा में सर्वप्रथम श्रीयुगलातक की रचना कर व्रजभाषा का उत्कर्ष बढाया। आपकी यह सुप्रसिद्ध रचना व्रजभाषा की आदिवाणी नाम से लोक विख्यात है। आपके ही परम पट्टाष्य जगद्गुरु निम्बार्काचार्य पीठाधीवर रसिकराजराजेवर श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजी महाराज ने व्रजभाषा में ही श्रीमहावाणी की रचना कर जिस दिव्य निकुंज युगल मधुर रस को प्रवाहित किया, वह व्रज-वृन्दावन के रसिकजनों का सर्व शिरोमणि देदीप्यमान कण्ठहार के रूप में अतिशय सुशोभित है। आपश्री ने जम्बू में बलि ली जाने वाली देवी को वैष्णवी दीक्षा देकर उसे प्राणियों की बलि से मुक्त कर सात्विक वैष्णवी रूप प्रदान किया। आपने श्रीनिम्बार्क भगवान् कृत वेदान्त कामधेनु दालोकी पर सिद्धान्त रत्नांजलि नाम से दिव्य विस्तृत व्याख्या की रचना कर वैष्णवजनों पर अनुपम कृपा की है। श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजी महाराज के द्वादश प्रमुख शिष्यों में पट्टाष्य श्रीपरशुरामदेवाचार्यजी महाराज ने राजस्थान में पुष्कर क्षेत्र में अखिल भारतीय श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ की संस्थापना की, जो सम्पूर्ण भारत में एकमात्र सर्वमान्य आचार्यपीठ है।
आचार्य पीठ परम्परा में अब तक 48 आचार्य हुये है। जो निम्नप्रकार से है:-
आचार्यश्री नाम | माह | पक्ष | तिथि | |
1 | श्री हंस भगवान् | कार्तिक | शुक्ल | नवमी |
2 | श्री सनकादिक भगवान् | कार्तिक | शुक्ल | नवमी |
3 | श्री नारद भगवान् | मार्गशीर्ष | शुक्ल | द्वादशी |
4 | श्री निम्बार्काचार्य जी | कार्तिक | शुक्ल | पूर्णिमा |
5 | श्री श्रीनिवासाचार्य जी | माघ | शुक्ल | पञ्चमी |
6 | श्री विश्वाचार्य जी | फाल्गुन | शुक्ल | चतुर्थी |
7 | श्री पुरुषोत्तमाचार्यजी | चैत्र | शुक्ल | षष्ठी |
8 | श्री विलासाचार्य जी | वैशाख | शुक्ल | अष्टमी |
9 | श्री स्वरूपाचार्य जी | ज्येष्ठ | शुक्ल | सप्तमी |
10 | श्री माधवाचार्य जी | आषाढ़ | शुक्ल | दशमी |
11 | श्री बलभद्राचार्य जी | श्रावण | शुक्ल | तृतीया |
12 | श्री पद्माचार्य जी | भाद्रपद | शुक्ल | द्वादशी |
13 | श्री श्यामाचार्य जी | आश्विन | शुक्ल | त्रयोदशी |
14 | श्री गोपालाचार्य जी | भाद्रपद | शुक्ल | एकादशी |
15 | श्री कृपाचार्य जी | मार्गशीर्ष | शुक्ल | पूर्णिमा |
16 | श्री देवाचार्य जी | माघ | शुक्ल | पञ्चमी |
17 | श्री सुन्दर भट्टाचार्य जी | मार्गशीर्ष | शुक्ल | द्वितीया |
18 | श्री पद्मनाभ भट्टाचार्य जी | वैशाख | कृष्ण | तृतीया |
19 | श्री उपेन्द्र भट्टाचार्य जी | चैत्र | कृष्ण | तृतीया |
20 | श्री रामचन्द्र भट्टाचार्य जी | वैशाख | कृष्ण | पञ्चमी |
21 | श्री वामन भट्टाचार्य जी | ज्येष्ठ | कृष्ण | षष्ठी |
22 | श्री कृष्ण भट्टाचार्य जी | आषाढ़ | कृष्ण | नवमी |
23 | श्री पद्माकर भट्टाचार्य जी | आषाढ़ | कृष्ण | अष्टमी |
24 | श्री श्रवण भट्टाचार्य जी | कार्तिक | कृष्ण | नवमी |
25 | श्री भूरि भट्टाचार्य जी | आश्विन | कृष्ण | दशमी |
26 | श्री माधव भट्टाचार्य जी | कार्तिक | कृष्ण | एकादशी |
27 | श्री श्याम भट्टाचार्य जी | चैत्र | कृष्ण | द्वादशी |
28 | श्री गोपाल भट्टाचार्य जी | पौष | कृष्ण | एकादशी |
29 | श्री बलभद्र भट्टाचार्य जी | माघ | कृष्ण | चतुर्दशी |
30 | श्री गोपी नाथ भट्टाचार्य जी | श्रावण | शुक्ल | सप्तमी |
31 | श्री केशव भट्टाचार्य जी | चैत्र | शुक्ल | प्रतिपदा |
32 | श्री गांगल भट्टाचार्य जी | चैत्र | कृष्ण | द्वितीया |
33 | श्री केशव काशमीरी भट्टाचार्य | ज्येष्ठ | शुक्ल | चतुर्थी |
34 | श्री श्रीभट्ट देवाचार्य जी | आश्विन | शुक्ल | द्वितीया |
35 | श्री हरिव्यास देवाचार्यजी | कार्तिक | कृष्ण | द्वादशी |
36 | श्री परशुराम देवाचार्य जी | भाद्रपद | कृष्ण | पञ्चमी |
37 | श्री हरिवंश देवाचार्य जी | मार्गशीर्ष | कृष्ण | सप्तमी |
38 | श्री नारायण देवाचार्य जी | पौष | शुक्ल | नवमी |
39 | श्री वृन्दावन देवाचार्य जी | भाद्रपद | कृष्ण | त्रयोदशी |
40 | श्री गोविन्द देवाचार्य जी | कार्तिक | कृष्ण | पञ्चमी |
41 | श्री गोविन्द शरण देवाचार्य जी | कार्तिक | कृष्ण | अष्टमी |
42 | श्री सर्वेश्वर शरण देवाचार्य जी | पौष | कृष्ण | षष्ठी |
43 | श्री निम्बार्क शरण देवाचार्य जी | ज्येष्ठ | शुक्ल | षष्ठी |
44 | श्री ब्रजराज शरण देवाचार्य जी | ज्येष्ठ | शुक्ल | पञ्चमी |
45 | श्री गोपीश्वर शरण देवाचार्य जी | माघ | कृष्ण | दशमी |
46 | श्री घनश्याम शरण देवाचार्य जी | आश्विन | कृष्ण | षष्ठी |
47 | श्री बालकृष्ण शरण देवाचार्य जी | चैत्र | कृष्ण | द्वादशी |
48 | श्री राधासर्वेश्वर शरण देवाचार्य जी | ज्येष्ठ | शुक्ल | द्वितीया |
श्रीसर्वेश्वर प्रभु
संपादित करेंश्रीसर्वेश्वर प्रभु सृष्टि के सबसे सूक्ष्म शालिग्राम श्री नारद एवम सनकादिक मुनियों द्वारा श्रीनिम्बार्क भगवान को प्राप्त हुए जो आज भी निम्बार्कतीर्थ में विराजमान हैं। सूक्ष्म दक्षिणावर्ती चक्राङ्कित शालिग्राम अर्चा विग्रह श्रीसर्वेश्वर प्रभु भगवान् श्रीनिम्बार्काचार्यजी के पश्चात् उत्तरोत्तरवर्ती सभी पूर्वाचार्यों द्वादश आचार्यों तथा अष्टादश भट्टाचार्यों द्वारा संसेवित होते रहे। कालान्तर में श्रीसर्वेश्वर प्रभु की यह सेवा जगदगुरु श्रीनिम्बार्काचार्य श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजी महाराज को संप्राप्त हुई । पश्चात् विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजी महाराज की आज्ञा पाकर “श्रीसर्वेश्वर प्रभु” की सेवा को लेकर जगद्गुरु श्रीनिम्बार्काचार्य श्रीपरशुरामदेवाचार्यजी महाराज ने पुष्कर क्षेत्र के पावन प्रदेश में आकर भगवद्विमुख प्राणियों को सद्धर्म में लगाते हुए वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार किया और श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ की स्थापना की। अतः परम्परागत नियमानुसार “श्रीसर्वेश्वरप्रभु” श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ में ही विराजते हैं और जगद्गुरु श्रीनिम्बार्काचार्यपीठाधीश्वर ही इस विश्वव्यापी बृहद् निम्बार्क सम्प्रदाय के एकमात्र आचार्य कहलाते हैं । “श्रीसर्वेश्वर प्रभु” इन्हीं आचार्यश्री के परमाराध्य ठाकुर हैं । श्रीनिम्बार्काचार्य पद पर आरूढ़ होने की प्रमुख अहर्ता शास्त्रज्ञ होना तथा नैष्ठिक ब्रह्मचर्य पूर्वक अपरस में श्रीसर्वेश्वर प्रभु की नित्य सेवा करना अनुलंघ्नीय मर्यादा हैं जिसका अस्वस्थ होने अथवा अत्यंत वृद्धावस्था के इतर कथमपि व्यतिक्रम नहीं हो सकता। आचार्य “श्रीसर्वेश्वर प्रभु” की अर्चा स्वयं न करें कही प्रवास में पधारें तो श्रीसर्वेश्वर प्रभु उनके कंठ में न विराजे ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति की तो कल्पना ही परम्परा मार्ग में नही की जा सकती “श्रीसर्वेश्वर प्रभु” की यह प्रतिमा प्रातः स्मरणीय विद्यातपोनिष्ठ पूर्वाचार्यों द्वारा संसेवित तथा अति प्राचीन होने से अपना विशिष्ट महत्त्व रखती है । इस प्रकार “श्रीसर्वेश्वर प्रभु” श्रीनिम्बार्क भगवान् के एक परमोपास्य श्रीविग्रह हैं और इनकी महिमा बड़ी ही महान् तथा विलक्षण है ।
परम्परा
संपादित करेंइस सम्प्रदाय की परम्परा श्रीहंस भगवान से प्रारम्भ होती है। श्रीहंस भगवान ने प्रकट होकर सनकादि महर्षियों की जिज्ञासा पूर्ति कर उन्हें श्रीगोपाल मन्त्रराज का गूढतम उपदेश तथा अपने निज स्वरुप सूक्ष्म दक्षिणावर्ती चक्राङ्कित शालिग्राम अर्चा विग्रह प्रदान किये जो 'श्रीसर्वेश्वर' के नाम से व्यवहृत हैं। इसी मन्त्र का उपदेश तथा श्रीसर्वेश्वर प्रभु की सेवा श्री सनकादिकों ने नारद को प्रदान की । श्रीकृष्ण की आज्ञा शिरोधार्य कर सुदर्शन ने द्वापर के अन्त में इस धराधाम पर भारतवर्ष के दक्षिण में श्रीअरूण ऋषि के पवित्र आश्रम में माता जयन्तीदेवी के उदर से श्रीनियमानन्द के रूप में अवतार धारण किया ।
अल्पवय में ही माता जयन्ती तथा पिता महर्षि वरूण के साथ उत्तर भारत में व्रजमण्डल स्थित गोवर्धन पर्वत की सुरम्य उपत्यका में निवास कर श्रुति-स्मृति-सूत्रादि विविध विद्याओं का सांगोपांग अध्ययन किया। ब्रह्मा जी एक दिवाभोजी यति के रूप में सूर्यास्त के समय आपके आश्रम पर उपस्थित हुए। विविध शास्त्रीय चर्चाओं के अनन्तर जब श्रीनियमानन्द ने यति से भगवत प्रसाद लेने का आग्रह किया तो यति ने सूर्यास्त का संकेत करते हुए अपने दिवभोजी (दिन में ही भोजन करने वाला) होने का संकल्प स्मरण कराया। समागत अतिथि के बिना खाए ही चले जाने से शास्त्र आज्ञा की हानि होते देख श्रीनियमानन्द ने अपने सुदर्शन-चक्र स्वरुप के तेज को समीपस्थ निम्बवृक्ष पर स्थापित कर दिवभोजी यति को सूर्य रूप में दर्शन कराकर भगवदप्रसाद पवाया। यति ने ज्योंही आचमन किया तो भान हुआ की एक प्रहर रात्रि व्यतीत हो चुकी है। इस महान विस्मयकारिणी घटना को देखकर ब्रह्माजी ने वास्तविक रूप में प्रकट होकर श्रीनियमानन्द को स्वयं द्वारा परीक्षा लिया जाना बतलाकर निम्ब वृक्ष पर अर्क (सूर्य) के दर्शन कराने के कारण 'श्रीनिम्बार्क' नाम से सम्बोधित किया और भविष्य में इसी नाम से विख्यात होने की घोषणा की। तब से श्रीनियमानन्द प्रभु का नाम श्रीनिम्बार्क प्रसिद्ध हुआ । इसी आश्रम में आपको नारदजी से वैष्णवी दीक्षा में वही पंचपदी विद्यात्मक श्रीगोपालमन्त्रराज का पावन उपदेश तथा श्रीसर्वेश्वर प्रभु की अनुपम सेवा प्राप्त हुई। नारद जी ने श्रीनिम्बार्क को राधाकृष्ण की युगल उपासना एवं स्वाभाविक द्वैताद्वैत सिद्धान्त का परिज्ञान कराया और स्वयं-पाकिता एवं अखण्ड नैष्ठिक ब्रह्मचर्य व्रतादि नियमों का विधिपूर्वक उपदेश किया। यही मन्त्रोपदेश-सिद्धान्त, श्रीसर्वेश्वर प्रभु की सेवा तथा स्वयं-पकिता का नियम और नैष्ठिक ब्रह्मचर्य के पालन पूर्वक आचार्य परम्परा अब तक चली आ रही है ।
निम्बार्काचार्य ने प्रस्थानत्रयी पर भाष्य रचना कर स्वाभाविक द्वैताद्वैत नामक सिद्धान्त का प्रतिष्ठापन किया । राधाकृष्ण की श्रुति-पुराणादि शास्त्रसम्मत रसमयी मधुर युगल उपासना का आपने सूत्रपात कर इसका प्रचुर प्रसार किया । कपालवेध स़िद्धान्तानुसार विद्या एकादाशी त्याज्य एवं शुद्धा एकादाशी ही ग्राह्य है, भगवद्जयन्ती आदि व्रतोपवास के सन्दर्भ में यही आपका अभिमत सुप्रसिद्ध है । सम्प्रदाय के आद्य-प्रवर्तक आप ही लोक विश्रुत हैं । आपका प्रमुख केन्द्र व्रज में श्रीगोवर्धन के समीप निम्बग्राम रहा है ।
श्रीनिम्बार्क के पट्टशिष्य पाञ्चजन्य शंखावतार श्री श्रीनिवासाचार्यजी ने श्री निम्बार्काचार्य कृत वेदान्तपारिजातसौरभ नाम से प्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र भाष्य पर वेदान्तकौस्तुभभाष्य की वृहद् रचना की । श्रीनिम्बार्क भगवान् द्वारा विरचित वेदान्तकामधेनु दशश्लोकी पर आचार्य श्री पुर्षोत्तामाचार्य जी ने वेदान्तरत्नमंजूषा नामक वृहद भाष्य को रचा जो परम मननीय है ।
सोलहवें आचार्य श्रीदेवाचार्यजी से इस सम्प्रदाय में दो शाखाए चलती है – एक श्रीसुन्दरभट्टाचार्यजी की, जिन्होंने आचार्यपद अलंकृत किया और दूसरी श्रीव्रजभूषणदेवजी की जिनकी परम्परा में गीतगोविन्दकार श्रीजयदेव जी तथा महान रसिकाचार्य स्वामी श्रीहरिदास जी महाराज प्रकट हुए।
पूर्वाचार्य परम्परा में जगद्विजयी श्रीकेशवकाशमीरीभट्टाचार्यजी महाराज ने वेदान्त-कौस्तुभ-भाष्य पर कौस्तुभ-प्रभा नामक विस्तृत व्याख्या का प्रणयन किया । श्रीमद्भगवद्गीता पर भी आप द्वारा रचित तत्व-प्रकाशिका नामक व्याख्या भी पठनीय है । इसी प्रकार आपका क्रमदीपिका तन्त्र ग्रन्थ अति प्रसिद्ध है। आपने मथुरा के विश्राम घाट पर तान्त्रिक यवन काजी द्वारा लगाये गये यन्त्र को अपने तंत्र-बल से विफल कर हिन्दू संस्कृति एवं वैदिक सनातन वैष्णव धर्म की रक्षा की। आपके परम प्रख्यात प्रमुख शिष्य रसिकाचार्य श्री श्रीभट्टदेवाचार्य जी महाराज ने व्रजभाषा में सर्वप्रथम श्रीयुगलशतक की रचना कर व्रजभाषा का उत्कर्ष बढाया। आपकी यह सुप्रसिद्ध रचना 'व्रजभाषा की आदिवाणी' नाम से लोक विख्यात है। आपके ही पट्टशिष्य श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजी महाराज ने व्रजभाषा में ही श्रीमहावाणी की रचना कर जिस दिव्य निकुंज युगल मधुर रस को प्रवाहित किया वह व्रज-वृन्दावन के रसिकजनों का सर्व शिरोमणि देदीप्यमान कण्ठहार के रूप में अतिशय सुशोभित है । आपश्री ने जम्बू में जीव बलि लेने वाली देवी को वैष्णवी दीक्षा देकर उसे प्राणियों की बलि से मुक्त कर सात्विक वैष्णवी रूप प्रदान किया। आपने श्रीनिम्बार्क भगवान् कृत वेदान्त-कामधेनु-दशश्लोकि पर सिद्धान्तरत्नाञ्जलि नाम से दिव्य विस्तृत व्याख्या की।
श्रीहरिव्यासदवाचार्यजी महाराज के द्वादश प्रमुख शिष्य हुए जिनके नाम से बारह द्वारा-गादी स्थापित हुई जिनमें से श्रीपरशुरामदेवाचार्य जी महाराज को उत्तरधिकार में श्रीसर्वेश्वर प्रभु की सेवा प्राप्त होने से प्राचीन परम्परानुसार श्रीनिम्बार्काचार्य पद प्राप्त हुआ तथा अन्य ग्यारह शिष्य द्वाराचार्य कहलाये। इन द्वादश द्वाराचार्यों तथा स्वामी श्रीहरिदास जी की शिष्य परम्परा से विशाल श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय का संगठन हैं ।
सम्पूर्ण भारतवर्ष में निम्बार्क सम्प्रदाय के अनेकों मठ-मन्दिर-आश्रम एवं विभिन्न संस्थाएं हैं जो विरक्त अथवा गृहस्थ परम्परा से परिचालित हो अपने अपने स्थानों के सभी व्यवहारों में सम्पूर्ण रूपेण स्वतंत्र हैं। ये सभी स्थान तथा इनकी शिष्य परम्परा के सभी विरक्त/गृहस्थ निम्बार्कीय वैष्णव एक मत से अपना एकमात्र आचार्य श्रीहरिव्यासदेवाचार्य जी के पट्टशिष्य स्वामी श्रीपरशुरामदेवाचार्य जी की गद्दी पर विराजमान होने वाले उत्तराधिकारी को ही मानते हैं। क्योंकि परम्परागत रूप से श्रीसर्वेश्वर प्रभु की सेवा इसी पीठ में विद्यमान हैं तथा श्रीसर्वेश्वर प्रभु जिन्हे परम्परागत परम्परा से प्राप्त होतें हैं वही जगद्गुरु श्रीनिम्बार्क पीठाधीश्वर कहलाते हैं।