ब्रिटिश भारत में रियासतें

(देशी रियासत से अनुप्रेषित)

ब्रिटिश भारत में रियासतें (अंग्रेजी:Princely states) ब्रिटिश राज के दौरान अविभाजित भारत में स्वायत्त राज्य थे। इन्हें आम बोलचाल की भाषा में "रियासत", "रजवाड़े" या व्यापक अर्थ में देशी रियासत कहते थे। ये ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा सीधे शासित नहीं थे बल्कि भारतीय शासकों द्वारा शासित थे। परन्तु उन भारतीय शासकों पर परोक्ष रूप से ब्रिटिश शासन का ही नियन्त्रण रहता था।

15 अगस्त 1947 से पूर्व संयुक्त भारत का मानचित्र जिसमें देशी रियासतों के तत्कालीन नाम साफ दिख रहे हैं।

सन् 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ तब यहाँ 562 रियासतें थीं। इनमें से अधिकांश रियासतों ने ब्रिटिश सरकार से लोकसेवा प्रदान करने एवं कर (टैक्स) वसूलने का 'ठेका' ले लिया था। कुल 565 में से केवल 21 रियासतों में ही सरकार थी और मैसूर, हैदराबाद तथा कश्मीर नाम की सिर्फ़ 3 रियासतें ही क्षेत्रफल में बड़ी थीं। 15 अगस्त,1947 को ब्रितानियों से मुक्ति मिलने पर इन सभी रियासतों को विभाजित भारत (भारत अधिराज्य) और विभाजन के बाद बने मुल्क पाकिस्तान में मिला लिया गया।

15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता का अन्त हो जाने पर केन्द्रीय गृह मन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल के नीति कौशल के कारण हैदराबाद, कश्मीर तथा जूनागढ़ के अतिरिक्त सभी रियासतें शान्तिपूर्वक भारतीय संघ में मिल गयीं। 26 अक्टूबर को कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण हो जाने पर वहाँ के महाराजा हरी सिंह ने उसे भारतीय संघ में मिला दिया। पाकिस्तान में सम्मिलित होने की घोषणा से जूनागढ़ में विद्रोह हो गया जिसके कारण प्रजा के आवेदन पर राष्ट्रहित में उसे भारत में मिला लिया गया। वहाँ का नवाब पाकिस्तान भाग गया। 1948 में सैनिक कार्रवाई द्वारा हैदराबाद को भी भारत में मिला लिया गया।

परिचय तथा इतिहास

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सन 1919 में भारतीय उपमहाद्वीप की मानचित्र। ब्रितिश साशित क्षेत्र व स्वतन्त्र रियासतों के क्षेत्रों को दरशाया गया है।

मुगल तथा मराठा साम्राज्यों के पतन के परिणामस्वरूप भारतवर्ष बहुत से छोटे बड़े राज्यों में विभक्त हो गया। इनमें से सिन्ध, भावलपुर, दिल्ली, अवध, रुहेलखण्ड, बंगाल, कर्नाटक मैसूर, हैदराबाद, भोपाल, जूनागढ़ और सूरत में मुस्लिम शासक थे। पंजाब तथा सरहिन्द में अधिकांश सिक्खों के राज्य थे। आसाम, मनीपुर, कछार, त्रिपुरा, जयंतिया, तंजोर, कुर्ग, ट्रावनकोर, सतारा, कोल्हापुर, नागपुर, ग्वालियर, इंदौर, बड़ौदा तथा राजपूताना, बुंदेलखण्ड, बघेलखण्ड, छत्तीसगढ़, ओड़िसा, काठियावाड़, मध्य भारत और हिमांचल प्रदेश के राज्यों में हिन्दू शासक थे।

ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सम्बन्ध सर्वप्रथम व्यापार के उद्देश्य से सूरत, कर्नाटक, हैदराबाद, बंगाल आदि समुद्रतट पर स्थित राज्यों से हुए। तदन्तर फ्रांसीसियों के साथ संघर्ष के समय राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को प्रेरणा मिली। इसके फलस्वरूप साम्राज्य निर्माण का कार्य 1757 ईसवी से प्रारम्भ होकर 1856 तक चलता रहा। इस एक शताब्दी में देशी राज्यों के आपसी झगड़ों से लाभ उठाकर कम्पनी ने अपनी कूटनीतिक सैनिक शक्ति द्वारा सारे भारत पर सार्वभौम सत्ता स्थापित कर ली। अनेक राज्य उसके साम्राज्य में विलीन हो गये। अन्य सभी उसका संरक्षण प्राप्त करके कम्पनी के अधीन बन गये। यह अधीन राज्य 'रियासत' कहे जाने लगे। इनकी स्थिति उत्तरोत्तर असन्तोषजनक तथा डाँवाडोल होती गयी। रियासतों की शक्ति क्षीण होती गयी, उनकी सीमाएँ घटती गयीं और स्वतन्त्रता कम होती चली गयी।

1757 से 1856 तक की स्थिति

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1756 तक कर्नाटक और तंजावुर क्षेत्र ब्रिटिश कम्पनी के अधीन हो गय्। 1757 में बंगाल भी उसके प्रभाव क्षेत्र में आ गया। 1761 तक हैदराबाद के निज़ाम उसका मित्र बन गया। 1765 में बंगाल की स्वतन्त्रता समाप्त हो गयी। इसी वर्ष इलाहाबाद की सन्धि द्वारा दिल्ली के सम्राट् शाह आलम और अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ कम्पनी की मैत्री हो गयी तथा भारतय रियासतों के साथ उसके सम्बन्धों का वास्तविक सूत्रपात हुआ।

1765 से 1798 तक मराठा, अफगानों तथा मैसूर के सुल्तानों के भय के कारण आत्मरक्षा की भावना से प्रेरित होकर कम्पनी ने आरक्षण नीति द्वारा पड़ोसी राज्यों को अन्तरिम राज्य बनाया जिससे नव निर्मित ब्रिटिश राज्य शक्तिशाली मित्र राज्यों से घिर कर सुरक्षित बन गया। इस अवसरवादी नीति को अवध और हैदराबाद रियासत के साथ कार्यान्वित किया गया। इसके अनुसार दिखावे के लिये उनके साथ समानता का व्यवहार किया गया। परन्तु वास्तविकता यह थी कि इस प्रक्रिया में उन्हें अधीन बनाने, उनकी सैनिक शक्ति क्षीण करने तथा उसके सम्पन्न भागों पर अधिकार करने के किसी अवसर को कम्पनी ने अपने हाथ से बाहर न जाने दिया। रियासतों के प्रति जितनी नीतियाँ कम्पनी ने भविष्य में अपनायीं उनमें से अधिकांश अवध में पोषित हुईं। इस काल में कम्पनी ने मैसूर तथा मराठा राज्य में फूट डालकर हैदराबाद के सहयोग से उनके विरुद्ध युद्ध किये। अवध को रुहेलखण्ड हड़पने में सहायता देकर रामपुर का छोटा राज्य बना दिया। ट्रावनकोर और कुर्ग कम्पनी के संरक्षण में आ गये।

1799 से 1805 तक लॉर्ड वेलेज़ली की अग्रगामी नीति के फलस्वरूप सूरत, कर्नाटक तथा तंजोर के राज्यों का अन्त हो गया। अवध, हैदराबाद, बड़ौदा, पूना और मैसूर सहायक सन्धियों द्वारा कम्पनी के शिकंजे में बुरी तरह जकड़ लिये गये। अब वे केवल अर्ध स्वतन्त्र राज्य भर रह गये थे इसके अतिरिक्त उनकी और कुछ भी हैसियत न थी। उनकी बाह्य नीति पर भी ब्रिटिश शासन का नियन्त्रण हो गया। सैनिक शक्ति घटा दी गयी। राज्यों में उन्हीं के खर्च पर सहायक सेना रखी गयी जिसके बल पर आन्तरिक आक्रमणों तथा विद्रोहों से उनकी रक्षा की गयी। राजाओं की गतिविधियों पर दृष्टि रखने तथा ब्रिटिश हितों की सुरक्षा एवं वृद्धि के लिये उनकी राजधानियों में ब्रिटिश प्रतिनिधि रहने लगे। राज्यों से ब्रिटिश विरोधी सभी विदेशी हटा दिये गये। अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों का फैसला ब्रिटिश कम्पनी करने लगी। ये अपमानजनक सन्धियाँ देशी राज्यों के लिये आत्मविनाश तथा ब्रिटिश साम्राज्य के लिये विकास श्रृंखला की महत्वपूर्ण कड़ियों के समान थीं। युद्ध में परास्त होकर नागपुर और ग्वालियर भी उसी जाल में फँस गये। भरतपुर ने ब्रिटिश आक्रमणों को विफल बनाने के पश्चात् सन्धि कर ली। इसी समय से रियासतों के शासक अनुत्तरदायी होने लगे तथा उनके आन्तरिक शासन में अनेक बहानों से ब्रिटिश रेजीडेण्ट हस्तक्षेप करने लगे।

1805 से 1813 तक ब्रिटिश कम्पनी ने देशी राज्यों के प्रति हस्तक्षेप न करने की नीति अपनायी। इस कारण ट्रावनकोर तथा सरहिन्द के राज्य उसके अधीन हो गये। सतलज पंजाब की सीमा बना दी गयी। सिन्ध और पंजाब कम्पनी के मित्र बन गये।

1817-1818 में कई राज्य लार्ड हेस्टिंग्ज़ की आक्रामक नीति के शिकार बने। मराठा संघ को नष्ट करके सतारा का छोटा सा राज्य बना दिया गया। राजपूताना, मध्य भारत तथा बुन्देलखण्ड के सभी राज्य सतत मित्रता तथा सुरक्षा की सन्धियों द्वारा कम्पनी के करदाता राज्य बन गये। ग्वालियर, नागपुर तथा इन्दौर पर पहले से अधिक अपमानजनक सन्धियाँ लाद दी गयीं। भोपाल ने प्रतिरक्षात्मक सन्धि द्वारा अंग्रेजों की अधीनता मान ली। अमीर खाँ, ग़फूर खाँ तथा करीम खाँ को क्रमश: टोंक, जावरा तथा गणेशपुर की रियासतें दी गयीं। नतीजा यह हुआ कि ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता सारे हिन्दुस्तान में फैल गयी।

1857 की सशस्त्र क्रान्ति

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लार्ड एमहर्स्ट के शासनकाल में कछार, जयंतिया और त्रिपुरा ब्रिटिश संरक्षण में आ गये। मनीपुर स्वतन्त्र मित्र राज्य बन गया। भरतपुर की शक्ति नष्ट कर दी गयी। लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने कुर्ग, मैसूर तथा जयंतिया को कुशासन के बहाने तथा कछार को उत्तराधिकारी न होने के कारण हड़प लिया। लॉर्ड ऑकलैंड ने मांडवी, कोलावा, जालौन तथा कर्नूल रियासतों पर अधिकार कर लिया। लॉर्ड एलनबरा ने सिन्ध जीत लिया तथा ग्वालियर की सैनिक शक्ति नष्ट कर दी। र्लार्ड हार्डिंग्ज ने पंजाब की शक्ति संकुचित कर दी तथा जम्मू और कश्मीर के राज्य का निर्माण किया। लॉर्ड डलहौज़ी के समय रियासतों पर विशेष प्रकोप आया। उसने नागपुर, सतारा, झाँसी, सम्भलपुर, उदयपुर, जैतपुर, वघात तथा करौली के शासकों को पुत्र गोद लेने के अधिकार से वंचित करके उनके राज्यों को हड़प लिया; हैदराबाद से बरार ले लिया; तथा कुशासन का आरोप लगाकर, अवध को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। इन आपत्तिजनक नीतियों के कारण रियासतों में असन्तोष फैल गया जो 1857 की सशस्त्र क्रान्ति का कारण बना। क्रान्ति के समय स्वार्थ से प्रेरित होकर अधिकांश देशी शासक कम्पनी के प्रति स्वामिभक्त बने रहे।

क्रान्ति के पश्चात् भारत में 562 रियासतें थीं जिनके अन्तर्गत 46 प्रतिशत भूमि थी। इनके प्रति अधीनस्थ सहयोग की नीति अपनायी गयी तथा ये साम्राज्य के मजबूत स्तम्भ समझे जाने लगे। इनके शासकों को पुत्र गोद लेने का अधिकार दिया गया। राज्य-संयोजन नीति को त्यागकर रियासतों को चिरस्थायित्व प्रदान किया गया तथा साम्राज्य की सुरक्षा एवं गठन हेतु उनका सहयोग प्राप्त किया गया। 1859 में गढ़वाल के राजा के मृत्योपरान्त उसके औरस पुत्र को उत्तराधिकारी मानकर तथा 1881 में मैसूर रियासत के पुनःस्थापन द्वारा नई नीति का पुष्टीकरण हुआ। क्रमश: विभिन्न सन्धियों का महत्व जाता रहा और उनके आधार पर सभी रियासतों के साथ एक सी नीति अपनाने की प्रथा चल पड़ी। उनमें छोटे बड़े का भेदभाव सलामियों की संख्या के आधार पर किया गया।

महारानी विक्टोरिया की अधीनता में

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वर्ष 1895 का एक समूह फोटो जिसमें ११ वर्षीय कृष्णराज वोडेयार चतुर्थ (मैसूर के राजा) तथा उनके भाई-बहन सम्मिलित हैं।

1876 में देशी शासकों ने महारानी विक्टोरिया को भारत की सम्राज्ञी मानकर उसकी आधीनता स्वीकार कर ली। तदन्तर ब्रिटिश शासन की ओर से उन्हें उपाधियाँ दी जाने लगीं। प्रेस, रेल, तार तथा डाक द्वारा वे ब्रिटिश सरकार के निकट आते गये। चुंगी, व्यापार, आवपाशी, मुद्रा, दुर्भिक्ष तथा यातायात सम्बन्धी उनकी नीतियाँ ब्रिटिश भारत की नीतियों से प्रभावित होने लगी। उनकी कोई अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति ही न रही। कुशासन, अत्याचार, राजद्रोह तथा उत्तराधिकार सम्बन्धी झगड़ों को लेकर रियासतों में ब्रिटिश सरकार का हस्तक्षेप बढ़ गया। इस नीति के निम्नलिखित कुछ उदाहरण ही पर्याप्त हैं -

(1) 1865 में झाबुआ के राजा पर 10000 दण्ड लगाना;

(2) 1867 में ग्वालियर की सैनिक शक्ति में कमी;

(3) उसी वर्ष टोंक के नवाब का पदच्युत होना तथा उसके उत्तराधिकारी की सलामी की संख्या घटाना;

(4) 1870 में अलवर के राजा को शासन से वंचित करना;

(5) मल्हारराव गायकवाड़ को बन्दी बनाना और 1875 में उसे पदच्युत करना;

(6) 1889 में कश्मीर के महाराजा प्रताप सिंह को गद्दी से हटाना;

(7) 1890 में मनीपुर के राजा को अपदस्थ करना तथा युवराज और सेनापति को फाँसी देना; और

(8) 1892 में कलात के शासक को पदच्युत करना।

बीसवीं सदी के प्रारम्भ से स्वाधीनता प्राप्ति तक

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नरेन्द्रमण्डल (चेम्बर ऑफ प्रिंसेज़ ; १९४१)

1899 में लॉर्ड कर्जन ने रियासतों को साम्राज्य का अविभाज्य अंग घोषित किया तथा कड़े शब्दों में शासकों को उनके कर्तव्यों की ओर ध्यान दिलाया। इससे कुछ शासक शंकित भी हुए। उनकी स्थिति समृद्ध सामन्तों के तुल्य हो गयी। 1906 में तीव्र राष्ट्रवाद के वेग की रोकने में रियासतों के सहयोग के लिये लॉर्ड मिण्टो ने उनके प्रति मित्रतापूर्ण सहयोग की नीति अपनायी तथा साम्राज्य सेवार्थ सेना की संख्या में वृद्धि करने के लिये आदेश दिया। इसके एवज़ में प्रथम विश्वयुद्ध में रियासतों ने ब्रिटिश सरकार को महत्वपूर्ण सहायता दीया। बीकानेर, जोधपुर, किशनगढ़, पटियाला आदि के शासकों ने रणक्षेत्र में अपना युद्धकौशल दिखाया।

1919 के अधिनियमानुसार 1921 में नरेशमण्डल (या नरेन्द्रमण्डल) बना जिसमें रियासतों के शासकों को अपने सामान्य हितों पर वार्तालाप करने तथा ब्रिटिश सरकार को परामर्श देने का अधिकार मिला। 1926 में लार्ड रीडिंग ने ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता पर बल देते हुए देशी शासकों को ब्रिटिश सरकार के प्रति उत्तरदायी घोषित किया जिससे वे अप्रसन्न भी हुए। इसलिए 1929 में बटलर कमेटी रिपोर्ट में सार्वभौम सत्ता की सीमाएँ निश्चित कर दी गयीं। 1930 में नरेशमण्डल के प्रतिनिधि गोलमेज सम्मलेन में सम्मिलित हुए। 1935 के संवैधानिक अधिनियम में रियासतों को भारतीय संघ में सम्मिलित करने की अनुचित व्यवस्था रखी गयी परन्तु वह कार्यान्वित न हो सकी। रियासतों में अनवरत रूप से निरंकुश शासन चलता रहा। केवल मैसूर, ट्रावणकोर, बडोदा, जयपुर आदि कुछ रियासतों में ही प्रजा परिषद के आन्दोलन से कुछ प्रतिनिधि शासन संस्थाएँ बनीं। मगर अधिकांश रियासतें प्रगतिहीन एवं अविकसित स्थिति में ही रहीं। द्वितीय विश्वयुद्ध में भी इन रियासतों ने इंग्लैण्ड को यथाशक्ति सहायता दी।

15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता का अन्त हो जाने पर केन्द्रीय गृह मन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल के नीति कौशल के कारण हैदराबाद, कश्मीर तथा जूनागढ़ के अतिरिक्त सभी रियासतें शान्तिपूर्वक भारतीय संघ में मिल गयीं। 26 अक्टूबर को कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण हो जाने पर वहाँ के महाराजा हरी सिंह ने उसे भारतीय संघ में मिला दिया। पाकिस्तान में सम्मिलित होने की घोषणा से जूनागढ़ में विद्रोह हो गया जिसके कारण प्रजा के आवेदन पर राष्ट्रहित में उसे भारत में मिला लिया गया। वहाँ का नवाब पाकिस्तान भाग गया। 1948 में पुलिस कार्रवाई द्वारा हैदराबाद भी भारत में मिल गया। इस प्रकार रियासतों का अन्त हुआ और पूरे देश में लोकतन्त्रात्मक शासन चालू हुआ। इसके एवज़ में रियासतों के शासकों व नवाबों को भारत सरकार की ओर से उनकी क्षतिपूर्ति हेतु निजी कोष (प्रिवी पर्स) दिया गया।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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  • Exclusively on Indian princely states and domains at Queensland University
  • Indian Princely states and their History and detailed Genealogy - Royalark
  • Sir Roper Lethbridge (1893). The Golden Book of India: A Genealogical and Biographical Dictionary of the Ruling Princes, Chiefs, Nobles, and Other Personages, Titled or Decorated, of the Indian Empire (Full text). Macmillan And Co., New York. मूल से 26 जून 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 4 अप्रैल 2012.
  • Exhaustive lists of rulers and heads of government, and some biographies.