डॉ॰ नगेन्द्र
डॉ॰ नगेन्द्र (जन्म: 9 मार्च 1915 अलीगढ़, मृत्यु: 27 अक्टूबर 1999 नई दिल्ली) हिन्दी के प्रमुख आधुनिक आलोचकों में थे। वे एक सुलझे हुए विचारक और गहरे विश्लेषक थे।
डॉ॰ नगेन्द्र | |
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जन्म |
9 मार्च 1915 अतरौली |
मौत |
27 अक्टूबर 1999 नई दिल्ली |
नागरिकता | भारत, भारतीय अधिराज्य |
पेशा | लेखक |
प्रसिद्धि का कारण | रस सिद्धांत |
पुरस्कार | साहित्य अकादमी पुरस्कार[1] |
अपनी सूझ-बूझ तथा पकड़ के कारण वे गहराई में पैठकर केवल विश्लेषण ही नहीं करते, बल्कि नयी उद्भावनाओं से अपने विवेचन को विचारोत्तेजक भी बना देते थे। उलझन उनमें कहीं नहीं थी। 'साधारणीकरण' सम्बन्धी उनकी उद्भावनाओं से लोग असहमत भले ही रहे हों, पर उसके कारण लोगों को उस सम्बन्ध में नये ढंग से विचार अवश्य करना पड़ा है। डॉ॰ नगेन्द्र सोरों को तुलसीदास की जन्मभूमि मानने के पक्षकार थे। 'भारतीय काव्य-शास्त्र' (1955ई.) की विद्वत्तापूर्ण भूमिका प्रस्तुत करके उन्होंने हिन्दी में एक बड़े अभाव की पूर्ति की। उन्होंने 'पाश्चात्य काव्यशास्त्र : सिद्धांत और वाद' नामक आलोचनात्मक कृति में अपनी सूक्ष्म विवेचन-क्षमता का परिचय भी दिया। अरस्तू के काव्यशास्त्र की भूमिका-अंश उनका सूक्ष्म पकड़, बारीक विश्लेषण और अध्यवसाय का परिचायक है। बीच-बीच में भारतीय काव्य-शास्त्र से तुलना करके उन्होंने उसे और भी उपयोगी बना दिया है। उन्होंने हिंदी मिथक को भी परिभाषित किया है।[2] <jpg="image154">
जन्म और शिक्षा
संपादित करेंउनका जन्म मार्च, 1915 ई. में अतरौली (अलीगढ़) में हुआ था। उन्होंने अंग्रेज़ी और हिन्दी में एम.ए. करने के बाद हिंदी में डी.लिट. की उपाधि भी ली।
कार्यक्षेत्र
संपादित करेंडा नगेंद्र का साहित्यिक जीवन कवि के रूप में आरंभ होता है। सन 1937 ई. में उनका पहला काव्य संग्रह 'वनबाला' प्रकाशित हुआ। इसमें विद्यार्थीकाल की गीति-कविताएँ संग्रहीत हैं। एम.ए. करने के बाद वे दस वर्ष तक दिल्ली के कामर्स कॉलेज में अंग्रेज़ी के अध्यापक रहे। पाँच वर्ष तक 'आल इंडिया रेडियो' में भी कार्य किया। बाद में वे दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अध्यक्ष पद से निवृत्त होकर वहीं रहने लगे थे।
27 अक्टूबर 1999 को नई दिल्ली में उनका निधन हुआ।
समालोचना
संपादित करेंडा नगेंद्र की शैली तर्कपूर्ण, विश्लेषणात्मक तथा प्रत्यायक है। यह सब होते हुए भी उसमें सर्वत्र एक प्रकार की अनुभूत्यात्मक सरसता मिलती है। वे अपने निबंधों और प्रबंधों को जब तक अपनी अनुभूति का अंग नहीं बना लेते तब तक उन्हें अभिव्यक्ति नहीं देते। अतः उनकी समीक्षाओं में विशेषरूप से निबंधों में भी सर्जना का समावेश रहता है।
'साहित्य-संदेश' में प्रकाशित उनके लेखों ने उनकी ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। उनकी तीन आलोचनात्मक कृतियाँ प्रकाशित हुईं - 'सुमित्रानंदन पंत'(1938ई.), 'साकेत- एक अध्ययन'(1939ई.) और 'आधुनिक हिंदी नाटक'(1940ई.)। पहली पुस्तक का पाठकों और आलोचकों के बीच खूब स्वागत हुआ। वे अंग्रेज़ी के श्रेष्ठ आलोचकों की कृतियों से प्रभावित थे और उन कृतियों की तरह ही वे उच्चस्तरीय समीक्षा-पुस्तक प्रस्तुत करना चाहते थे। 'साकेत-एक अध्ययन' पर इस मनोवृत्ति का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।
'आधुनिक हिंदी नाटक' में उनके आलोचक स्वरूप ने एक नया मोड़ लिया और वे फ्रायडीय मनोविज्ञान के क्षेत्र में आ गए। उन्होंने फ्रायड के मनोविश्लेषण शास्त्र के आधार पर नाटक और नाटककारों की आलोचनाएँ लिखीं। बाद में क्रोचे आदि के अध्ययन के फलस्वरूप उनका झुकाव सैद्धांतिक आलोचना की ओर हुआ। 'रीति-काव्य की भूमिका' तथा 'देव और उनकी कविता' (1949 ई. - शोध ग्रंथ) के भूमिका भाग में भारतीय काव्य-शास्त्र पर विचार किया गया है, जिसमें उनके मनोविश्लेषण-शास्त्र के अध्ययन से काफ़ी सहायता मिली है।
नगेंद्र मूलतः रसवादी आलोचक हैं, रस सिद्धांत में उनकी गहरी आस्था है। फ्रायड के मनोविश्लेषण-शास्त्र को उन्होंने एक उपकरण के रूप में ग्रहण किया है, जो रस सिद्धांत के विश्लेषण में पोषक की सिद्ध हुआ है। हिंदी की आलोचना पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल का गहरा प्रभाव पड़ा है और सच पूछिए तो आज की हिंदी- आलोचना शुक्ल जी के सिद्धांतों का अगला कदम ही है। नगेंद्र पर भी शुक्ल जी का प्रभाव पड़ा। उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि रस-सिद्धांतों की ओर उनके झुकाव के मूल में शुक्ल जी का ही प्रभाव है। नगेंद्र जी काव्य में रस-सिद्धांत को अंतिम मानते हैं। इसके बाहर न तो वे काव्य की गति मानते है और न सार्थकता।
पौरस्त्य आचार्यों में वे भट्टनायक और अभिनवगुप्त से विशेष प्रभावित हैं और पाश्चात्य आलोचकों में क्रोचे और आई.ए. रिचर्डस से। उन्होंने भारतीय तथा पाश्चात्य काव्य-शास्त्र दोनों का गहरा आलोकन किया है। दोनों के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर उनका कहना है कि सैद्धांतिक आलोचना के क्षेत्र में भारतीय-काव्य शास्त्र पश्चिमी काव्य-शास्त्र से कहीं आगे बढ़ा हुआ है।
भारतीय और पाश्चात्य आचार्यों ने काव्य-बोध के संबंध में अलग-अलग पद्धतियाँ अपनाई हैं। भारतीय आचार्यों ने काव्य-चर्चा करते समय सह्रदय को विवेचन का केंद्रीय विषय माना है तो पाश्चात्य आचार्यों ने कवि को केंद्रीय विषय मानकर सृजन-प्रक्रिया की व्याख्या की है। ये दोनों दृष्टियाँ एक दूसरे की पूरक हैं, अपने आप में प्रत्येक एकांगी ही रह जाती हैं। नगेंद्र ने इन दोनों पद्धतियों के समन्वय का प्रयास किया है।[3]
प्रमुख कृतियाँ
संपादित करेंआपकी अन्य मौलिक रचनाओं में 'विचार और विवेचन' (1944), 'विचार और अनुभूति' (1949), 'आधुनिक हिंदी कविता की मुख्य प्रवृत्तियाँ (1951), 'विचार और विश्लेषण'(1955), 'अरस्तू का काव्यशास्त्र' (1957), 'अनुसंधान और आलोचना' (1961), 'रस-सिद्धांत (1964), 'आलोचक की आस्था' (1966), 'आस्था के चरण' (1969), 'नयी समीक्षाः नये संदर्भ (1970), 'समस्या और समाधान' (1971) प्रमुख हैं।
निबंध संग्रह:विचार और अनुभूति(1949ई०),आधुनिक हिन्दी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ(1951ई०),विचार विश्लेषण (1955ई०),विचार और विवेचन(1959ई०), अनुसन्धान और आलोचना(1961ई०),आस्था के चरण(1968ई०)आलोचक की आस्था(1966ई०) ।
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ http://sahitya-akademi.gov.in/awards/akademi%20samman_suchi.jsp#KASHMIRI. अभिगमन तिथि 7 मार्च 2019. गायब अथवा खाली
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(मदद) - ↑ "साहित्य विचार". ताप्तिलोक. मूल (पीएचपी) से 27 सितंबर 2007 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 20 जुलाई 2007.
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में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद) - ↑ वर्मा, धीरेन्द्र (१९८५). हिन्दी साहित्य कोश भाग-२. वाराणसी, भारत: ज्ञानमंडल लिमिटेड, वाराणसी, उ.प्र. पृ॰ २८२-२८३. पाठ "editor: " की उपेक्षा की गयी (मदद);
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(मदद)