अक्षवेदांश : अक्षवेदांश एक वर्ग कुंडली है। इस वर्ग कुण्डली को पंच-चत्वार्यांश भी कहते हैं। जन्म कुंडली के अतिरिक्त इस कुण्डली के द्वारा किसी व्यक्ति के चरित्र के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
अक्षांश : भूगोल ध्रुवों द्वारा दो भागों में विभक्त माना गया है- एक उत्तरी ध्रुव और दूसरी दक्षिणी ध्रुव। ध्रुव से ९० अंश की दूरी पर निरक्ष देश स्थित माना गया है। मानचित्र में प्रायः तिरछी रेखाओं द्वारा अक्षांश का संज्ञापन करते हुए उत्तर तथा दक्षिण स्थान का प्रदर्शन किया हुआ रहता है। इसका उपयोग दो स्थानों के दक्षिणोत्तर अन्तरांश को जानने के लिए किया जाता है। निरक्ष देश पर से गई हुई रेखावृत्त विषुवत् वृत्त कहलाती है, जिससे भूगोल उत्तर अक्षांश और दक्षिण अक्षांश सम्बन्धी देशों में बँटा हुआ माना जाता है।
अयनांश : पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करने के साथ-साथ अपनी धुरी पर भी लट्टू की तरह घूमती है, जिसके फलस्वरूप इसकी धुरी के केन्द्र बिंदु एक जगह स्थिर नहीं रहते हैं, अपितु एक प्रकार का वृत्त बनाते हैं। यह प्रतिवर्ष लगभग ५० विकला से अधिक के हिसाब से पूर्व स्थान से खिसकते हैं और ३६० अंश की पूर्ण परिक्रमा २५,८०० वर्षों में पूरी करते हैं। सायन और निरायण का देशांतरीय अन्तर अयनांश कहलाता है। स्थायी मेष के प्रथम बिन्दु और चलायमान मेष के प्रथम बिन्दु की कोणीय दूरी अयनांश कहलाती है। इसमें अंतर आता रहता है।
अस्त : जब कोई ग्रह सूर्य के बहुत निकट होता है तो उसके कारकत्व में सूर्य की ऊर्जा के कारण कमी आ जाती है और वह सूर्य के अधीन होकर कार्य करता है इसी को ग्रहों का अस्त होना कहते हैं। सूर्य के बहुत करीब एक ग्रह की स्थिति, अक्सर ग्रह द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए महत्व को कमजोर करती है।
आयुर्वेद : आयु अर्थात जीवन और वेद अर्थात ज्ञान। प्राचीन भारतीय संस्कृति के अनुरूप चिकित्सा कि जो पद्धति अपनाई जाती है उसे आयुर्वेद के नाम से जाना जाता हैं। इसमें किसी भी प्राणी को वात, पित्त और कफ तीन प्रकार की प्रकृति वाले रोग होते हैं और उनका निदान किया जाता है।
इष्टकाल : सूर्योदय से जन्मकाल तक के घट्यादि काल को इष्टकाल कहा जाता है।
उच्चत्व : किसी भी ग्रह का एक विशेष राशि में विशेष अंशों पर स्थित होना जिसमें उसका प्रभाव अपनी पूर्ण क्षमता पर हो, उच्चत्व कहलाता है। इस स्थिति में उस ग्रह की शक्ति बहुत अधिक हो जाती है और वह अच्छे फल देता है। अक्सर उच्च ग्रह की दशा अवधि में व्यक्ति को अनेक सुखों और राजयोगों की प्राप्ति होती है।
उपचय भाव : कुंडली के तीसरे, छठे, दसवें और ग्यारहवें भाव को उपचय भाव कहा जाता है। यह भाव जीवन में तरक्की को दर्शाते हैं और इन भावों में ग्रहों की उपस्थिति जीवन में आगे बढ़ने की ओर इशारा करती है। इन सब में ग्यारहवां भाव सबसे अधिक शक्तिशाली माना जाता है।
कफ : जब शरीर में पृथ्वी तत्व और जल तत्व मिलकर असंतुलित हो जाते हैं तो उससे कफ का जन्म होता है। यह इन दोनों का बिगड़ा हुआ स्वरूप है। जैसे शरीर में खाँसी, जुकाम, बलगम आदि का होना कफ प्रकृति का दोष माना जाता है।
कारक : ज्योतिष के अंतर्गत किसी व्यक्ति के जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अलग अलग सूचना देने वाले ग्रह अथवा भाव होते हैं। कोई ग्रह अथवा भाव विशेष किसी विशेष क्षेत्र के बारे में सूचित करता है तो वह उस का कारक ग्रह अथवा कारक भाव कहलाता है। जैसे सूर्य ग्रह पिता का कारक माना जाता है और नवम तथा दशम भाव भी पिता के बारे में बताता है। अर्थात सूर्य ग्रह और नवम तथा दशम भाव पिता का कारक होता है।
कुंडली : कुंडली राशियों, ग्रहों तथा नक्षत्रों का एक ऐसा नक्शा है जो किसी जातक के जन्म के समय आकाश मंडल में राशियों ग्रहों तथा नक्षत्रों की स्थिति को दर्शाता है। इसी के आधार पर किसी भी जातक के भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्य काल के बारे में जाना जा सकता है।
कृष्ण पक्ष : वैदिक ज्योतिष के अनुसार ढलते हुए चंद्रमा की कलाओं के दिनों को कृष्ण पक्ष कहा जाता है अर्थात पूर्णिमा से लेकर अमावस्या तक के समय खंड को कृष्ण पक्ष कहा जाता है।
केतु : केतु चंद्रमा का दक्षिणी बिंदु है और वैदिक ज्योतिष के अनुसार एक छाया ग्रह माना जाता है। यह राहु का धड़ भी माना जाता है और व्यक्ति के जीवन में मोक्ष का कारक ग्रह केतु ही माना जाता है।
केंद्र भाव : कुंडली के पहले, चौथे, सातवें और दसवें भाव को केंद्र भाव माना जाता है। यह कुंडली के सबसे शक्तिशाली भाव होते हैं और इनका प्रभाव लग्न को प्रभावित करता है। इन भावों में ग्रहों की उपस्थिति जातक को मजबूत बनाती है। इन भावों में दशम भाव सबसे अधिक शक्तिशाली माना जाता है।
कोण या त्रिकोण : कोण का तात्पर्य होता है कुंडली के केंद्र भाव अर्थात कुंडली के पहले, चौथे, सातवें और दसवें भाव को केंद्र भाव माना जाता है। यह कुंडली के सबसे शक्तिशाली भाव होते हैं और इनका प्रभाव लग्न को प्रभावित करता है। इन भावों में ग्रहों की उपस्थिति जातक को मजबूत बनाती है। इन भावों में दशम भाव सबसे अधिक शक्तिशाली माना जाता है। दूसरी ओर कुंडली के पांचवें और नोवें भाव को त्रिकोण भाव कहा जाता है। इनके अतिरिक्त लग्न को भी त्रिकोण भाव माना जाता है। पूरी कुंडली में अकेला लग्न ही ऐसा भाव होता है जिसे केंद्र तथा त्रिकोण दोनों माना जाता है। त्रिकोण भाव कुंडली के अच्छे भावों में जाने जाते हैं। इन दोनों में नवम भाव अधिक शक्तिशाली माना जाता है।
क्रांतिवृत्त : इसे राशि-मंडल भी कहते हैं। आकाश गोल में अपनी गति से चलने का जो सूर्य का मार्ग है, उसी को क्रांतिवृत्त कहा जाता है।
खवेदांश : खवेदांश एक वर्ग कुंडली है। इस वर्ग कुण्डली को चत्वार्यांश भी कहते हैं। इसके द्वारा किसी व्यक्ति के शुभ या अशुभ फलों का विश्लेषण किया जाता है।
गोचर : ग्रहों का एक राशि से निकलकर दूसरी राशि में जाना गोचर कहलाता है। क्योंकि ग्रह गतिशील हैं इसलिए वह एक राशि से दूसरी राशि में संचरण करते हैं और इस प्रकार मानव जीवन को अपने गोचर के दौरान प्रभावित करते हैं।
ग्रह : ग्रह ऐसे आकाशीय पिंड है जो हमारे जीवन को अपनी ऊर्जा से प्रभावित करते हैं। वैदिक ज्योतिष में ग्रह देवताओं से संबंध रखते हैं जो हमारे जीवन में सुख और दुख प्रदान करने का कार्य करते हैं।
ग्रहस्पष्ट : जन्म या प्रश्न के समय ग्रहों की आकाशीय वास्तविक स्थिति, जो राशि, अंश, कला, विकला अदि के रूप में साधन करनी होती है।
घटी : घटी, दण्ड, घड़ी, नाड़ी आदि तुल्यार्थ बोधक शब्द हैं। एक अहोरात्र में ६० घड़ी माना गया है। अतः १ घंटे में २.३० घटी/पल होता है। ६० विपल का एक पल, ६० पल की एक घड़ी, ६० घड़ी का एक अहोरात्र होता है।
घर : जन्मकुंडली में जीवन के सभी आयामों को 12 भागों में बांटा जाता है और इन 12 भागों में उपस्थित ग्रह-नक्षत्रों और राशियों के द्वारा व्यक्ति के भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्य काल के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इन भावों को ही कुंडली में भाव अथवा घर कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, भचक्र का 12 वां भाग जो पूर्वी क्षितिज पर उदय घर बनाने वाला पहला भाव अर्थात पहला घर कहलाता है और इसी क्रम में अगला भाग दूसरा घर, तीसरा घर और इसी प्रकार 12 घर होते हैं।
चतुर्थांश : चतुर्थांश एक वर्ग कुंडली है जिसकी सहायता से व्यक्ति की चल-अचल सम्पत्ति तथा भाग्य का अनुमान लगाया जा सकता है।
चतुर्विशांश कुण्डली : ये एक वर्ग कुंडली है। किसी व्यक्ति की जन्म-कुंडली के अतिरिक्त इस वर्ग कुण्डली का अध्ययन शिक्षा, दीक्षा, विद्या तथा ज्ञान के बारे में जानने के लिए किया जाता है।
चर : गुणों के आधार पर राशियों के वर्गीकरण में प्रथम स्थान पर चर राशियां आती हैं। ये राशियां उद्यमशील राशियां कहलाती हैं और क्योंकि इनमें संग्रहण करने की क्षमता अधिक होती है और यह चलायमान राशियां होती हैं। मेष, कर्क, तुला तथा मकर राशि चर राशि कहलाती हैं।
चरान्तर साधन : जन्म स्थान और पंचांग स्थान के चरों का अंतर चरान्तर होता है। अतः दोनों स्थानों का चर साधन करना पड़ता है। जन्म स्थान का चर अधिक होने पर चरान्तर घन अन्यथा ऋण जानना चाहिए अथवा घन या ऋण चरान्तर का निर्णय इस प्रकार करना चाहिए-जन्म स्थान के अक्षांश से पंचांग स्थान का अक्षांश कम हो तथा उत्तराक्रान्ति हो, तो घन चरान्तर, इसी तरह जन्मस्थान के अक्षांश से पंचांग स्थान का अक्षांश अधिक और दक्षिणक्रान्ति हो, तो भी घन चरान्तर जानना चाहिए बाकि अन्य स्थितियों में चरान्तर ऋण होगा।
जन्म समय : यह जातक के जन्म का समय होता है। इसे घण्टा-मिनट में व्यवहार किया जाता है।
जैमिनी : जैमिनी एक महान ऋषि हुए जिन्होंने ज्योतिष के विषय में अनेक महत्वपूर्ण सूत्र दिए हैं। उनके द्वारा प्रदत्त सूत्रों के द्वारा भी ज्योतिष ज्ञान प्राप्त होता है और उन्हें जैमिनी सूत्र के नाम से जाना जाता है।
ज्योतिष : एक ऐसा ज्ञान जो जीवन में ज्ञान का प्रकाश देता है। अर्थात एक ऐसा विज्ञान जिसमें खगोलीय पिंडों और उनकी गणनाओं द्वारा किसी भी व्यक्ति के भूत, वर्तमान और भविष्य के बारे में जाना जा सकता है, ज्योतिष कहलाता है।
ज्योतिषी : एक दैवज्ञ जिसे विशेष अंतर ज्ञान प्राप्त होता है और वह अपनी गणनाओं द्वारा ज्योतिष की सहायता से काल-गणना कर व्यक्ति को उसके बारे में बताता है।
त्रिक भाव : जन्म कुंडली के छठे, आठवें और बारहवें भाव को बुरा भाव माना जाता है। संस्कृत में इन तीनों घरों को दुस्थान या त्रिक के रूप में जाना जाता है जो दर्शाते हैं कि वे दुःख या पीड़ा से जुड़े भाव हैं।इनमें मुख्य रूप से छठा भाव बीमारी, आठवां भाव मृत्यु और 12 भाव हानि को दर्शाता है।
त्रिकोण भाव : कुंडली के पांचवें और नौवें भाव को त्रिकोण भाव कहा जाता है। इनके अतिरिक्त लग्न को भी त्रिकोण भाव माना जाता है। पूरी कुंडली में अकेला लग्न ही ऐसा भाव होता है जिसे केंद्र तथा त्रिकोण दोनों माना जाता है। त्रिकोण भाव कुंडली के अच्छे भावों में जाने जाते हैं। इन दोनों में नवम भाव अधिक शक्तिशाली माना जाता है।
त्रिंशांश : त्रिंशांश एक वर्ग कुंडली है जो आपकी जन्म कुंडली के अतिरिक्त आपके जीवन में आने वाले अरिष्ट को बताता है। इसकी सहायता से आप अपने जीवन में आने वाली स्वास्थ्य समस्याओं, दुर्भाग्य की अवधि और कष्टों को जान सकते हैं।
दशमांश : दशमांश लग्न कुंडली से अलग एक वर्ग कुंडली है जो किसी भी जातक की नौकरी, उसके द्वारा आजीविका हेतु किए जाने वाले कार्य तथा उसके द्वारा अपनाए जाने वाले व्यवसाय के बारे में सूक्ष्म जानकारी प्रदान करने में सहायता करती है।
दशा : क्या दशा ग्रह का वह विशेष समय चक्र होता है जिसमें कोई ग्रह अपना विशेष प्रभाव दिखाता है। यह एक निश्चित समय के लिए होता है और इससे जीवन में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार के बदलाव आते हैं। ग्रहों का यह प्रभाव कुंडली में उनकी स्थिति पर निर्भर करता है।
दुःस्थान : जन्म कुंडली के छठे, आठवें और बारहवें भाव को बुरा भाव अर्थात दुःस्थान माना जाता है। संस्कृत में इन तीनों घरों को दुस्थान या त्रिक के रूप में जाना जाता है जो दर्शाते हैं कि वे दुःख या पीड़ा से जुड़े भाव हैं। इनमें मुख्य रूप से छठा भाव बीमारी, आठवां भाव मृत्यु और 12 भाव हानि को दर्शाता है।
दृष्टि : दृष्टि किसी ग्रह की वह क्षमता होती है जिसको कोई ग्रह अपनी ऊर्जा से प्रभावित करता है। जिस भाव में ग्रह स्थित होता है उसको छोड़कर अन्य भावों पर पड़ने वाले ग्रह के प्रभाव को दृष्टि कहते हैं। ग्रह की दृष्टि अच्छा और बुरा दोनों तरह का प्रभाव दे सकती है।
दोष : मानव शरीर में तीन मुख्य दोष वात, पित्त और कफ पाए जाते हैं। यह दोष हमारे शरीर में उपस्थित पंचमहाभूतों अर्थात अग्नि, पृथ्वी, वायु, जल और आकाश तत्व के असंतुलन से उत्पन्न होते हैं।
द्रेष्काण : द्रेष्काण एक वर्ग कुंडली है जो भाई बहनों के लिए देखी जाती है। जिस प्रकार जन्म कुंडली में तृतीय भाव से भाई-बहनों के संबंध में जानकारी प्राप्त की जाती है उसी प्रकार द्रेष्काण वर्ग कुंडली से जन्मकुंडली के तीसरे भाव, भाई बहनों तथा व्यक्ति के साहस, पराक्रम, कम्युनिकेशन स्किल्स और अपनी महत्वकांक्षाओं को पूर्ण करने हेतु किए जाने वाले प्रयासों को बताता है। इसी के द्वारा हमारी हॉबी के बारे में भी जाना जाता है।
द्वादशांश : द्वादशांश एक वर्ग कुंडली है जो आपके माता-पिता, आपकी पैतृक विरासत और आपके पिछले जीवन में किए गए कर्मों के संबंध में बताता है। जन्मकुंडली के अध्ययन के साथ-साथ द्वादशांश कुंडली का अध्ययन भी इन सभी विषयों के लिए किया जाता है।
द्विस्वभाव : गुणों के आधार पर राशियों के वर्गीकरण में तीसरे स्थान पर द्विस्वभाव राशि आती हैं। यह राशियां परिवर्तनशील और संग्रहण क्षमता भी रखती हैं और दूसरी ओर कुछ स्थानों पर प्रतिरोधी भी होती हैं अर्थात इन में चर और स्थिर दोनों राशियों के गुण विद्यमान होते हैं। मिथुन, कन्या, धनु तथा मीन राशि द्विस्वभाव राशियां कहलाती हैं।
धर्म : किसी व्यक्ति के जीवन में उसका उद्देश्य और उसके कर्तव्य ही धर्म कहलाते हैं।
नक्षत्र : वैदिक ज्योतिष में चमचमाते तारों को नक्षत्र भी कहा जाता है। भचक्र का मान 360 अंश होता है और १२ राशियों में विभाजित होने पर प्रत्येक राशि 30 अंश की होती है। कुल नक्षत्र 27 माने गए हैं जिनको विभाजित करने पर प्रत्येक नक्षत्र का मान 13 अंश 20 मिनट होता है और प्रत्येक प्रारंभिक बिंदु 0 डिग्री मेष पर होता है, जो नक्षत्रों में सबसे पहले नक्षत्र अश्विनी की शुरुआत को बताता है।
नवांश : नवांश जन्म कुंडली के ही सामान महत्वपूर्ण है और ये एक वर्ग कुंडली है। इसके आधार पर दीर्घ-कालीन संबंधों और विवाह आदि के बारे में सूक्ष्म जानकारी प्राप्त की जाती है। नवांश ये भी बताता है कि जो अच्छी और बुरी घटनाएँ जन्म कुंडली में दिखाई देती हैं वो कम होंगी या अधिक यानि की बुरी घटना ज्यादा बुरी होगी या कम और इसी प्रकार कोई अच्छा काम आसानी से हो जाएगा या उसमें कोई अड़चन आएगी। नवांश एक तरह से बीज है। ज्योतिषी नवांश को आत्मा की कुंडली मानता है तो जन्म कुंडली को सांसारिक जीवन की।
नीचत्व : किसी भी ग्रह का एक विशेष राशि में विशेष अंशों पर स्थित होना, जहा उसकी शक्ति बहुत कमजोर हो जाती हैं, उस ग्रह का नीचत्व कहलाता है। इस स्थिति में उस ग्रह की शक्ति बहुत कमजोर हो जाती है और वह अच्छे फल देने में लगभग असमर्थ हो जाता है। कई बार नीच ग्रह बुरे फल भी देता है।
पक्ष-बल : चंद्रमा की कलाओं अर्थात उसकी शक्ति के बदलते हुए क्रम को पक्ष बल कहा जाता है। यह प्रवास के दौरान पहले बढ़ता है और फिर घट जाता है। यदि चंद्रमा की दूरी सूर्य से 90 अंश से कम है तो ऐसी स्थिति में चंद्रमा कमजोर माना जाता है और यदि चंद्रमा की दूरी सूर्य से 120 अंश से अधिक है तो ऐसे में चंद्रमा पक्ष बली माना जाता है।
पञ्चाङ्ग : पंचांग एक ऐसी सारणी या किताब है जो ज्योतिषीय गणनाओं और आकाश में ग्रहों तथा नक्षत्रों की स्थिति के बारे में जानकारी देती है। किसी विशेष कार्य को करने हेतु विशेष मुहूर्त के बारे में जानना भी पंचांग की सहायता से ही संभव होता है। पंचांग के नामानुसार इसके 5 अंग होते हैं: नक्षत्र, तिथि, वार, योग और करण।
पित्त : जब शरीर में अग्नि तत्व असंतुलित हो जाता है या उसकी अधिकता हो जाती है तो पित्त प्रकृति का दोष उत्पन्न होता है। जैसे शरीर में बुखार होना अथवा लाल चकत्ते पड़ जाना पित्त सम्बन्धी विकार हैं।
पृष्ठोदय : राशि ऐसी राशियां जिनका उदय पीठ की ओर से यानि की अपने पृष्ठ की ओर से होता है, पृष्ठोदय राशियां कहलाती हैं। मेष, वृषभ, कर्क, धनु और मकर पृष्ठोदय राशियाँ हैं। इनका प्रभाव देर से प्राप्त होता है।
भभोग : यह नक्षत्र के सम्पूर्ण स्पष्ट भोग काल का नाम है।
भयात : यह नक्षत्र का वह समय है जो नक्षत्र के प्रारम्भ काल से जातक के जन्म काल तक व्यतीत होता है।
भाव : वैदिक ज्योतिष के अनुसार कुंडली में उपस्थित विभिन्न घरों को भाव कहा जाता है। प्रत्येक कुंडली में 12 भाव होते हैं जो जीवन के विभिन्न आयामों को प्रदर्शित करते हैं। ये भाव हैं- क्रम से तनु, धन, सहज, सुख, सुत, रिपु, जाया, मृत्यु, धर्म, कर्म, आय और व्यय। उन भावों के स्वामी ग्रहों, उन भावों में स्थित ग्रहों और उन भावों से सम्बन्ध स्थापित करने वाले ग्रहों का असर किसी व्यक्ति के जीवन के विभिन्न आयामों पर पड़ता है। इसी कारण प्रत्येक व्यक्ति का जीवन अलग-अलग प्रकृति का होता है। किसी भी भाव का मान 30 डिग्री तक होता है। जब किसी व्यक्ति का जन्म होता है तो उसके जन्म के समय विशेष परिस्थिति में किसी भाव का मान शून्य से लेकर 30 डिग्री के बीच कुछ भी हो सकता है। क्योंकि जब कोई लग्न उदय होता है तो वह लगभग 2 घंटे तक स्थित रहता है। ऐसे में कुंडली के भाव के मध्य बिंदु को भाव मध्य कहा जाता है।
भुक्ति : किसी ग्रह की महादशा खंडों में विभाजित होती है इन्हीं को भुक्ति अर्थात अंतर्दशा कहा जाता है। इनका क्रम भी महादशा की तरह निश्चित होता है और पहली महादशा में पहली भुक्ति उसी तरह की होती है जिस ग्रह की महादशा है। जैसे केतु की महादशा में केतु की भुक्ति पहले आएगी उसके बाद शुक्र की भक्ति उसके बाद सूर्य की भुक्ति और इसी प्रकार आगे।
मंत्र : शब्दों और ध्वनियों का एक ऐसा अनुक्रम जिस में कंपन पैदा होता है और उस कंपन द्वारा ग्रहों की ऊर्जा शक्ति को परिवर्धित किया जाता है, मंत्र कहलाता है। मंत्रों में असीम शक्ति होती है और इनके द्वारा असंभव माने जाने वाले कार्य भी संभव हो जाते हैं।
मध्यम मान : स्पष्ट मानों का माध्य अर्थात् औसत मान को कहा जाता है। जैसे तिथि का औसत भोगमान ६० घड़ी, वैसे ही नक्षत्र, योग आदि का भी तुल्य ही औसत भोग मान होता है।
मानक समय : सम्प्रति यूरोप महादेशीय ग्रीनविच नाम के स्थान से गुजरती भूमध्य रेखा से पूर्व ८२/३० अंश-कला रेखांश के स्थानिक समय को सम्पूर्ण भारत के लिए मानक समय (स्टैण्डर्ड टाईम) माना गया है।
मारक : मारक का शाब्दिक अर्थ होता है मारने वाला। वैदिक ज्योतिष में मारक से तात्पर्य उस ग्रह से है जो आपकी कुंडली में मृत्यु तुल्य कष्ट देने में सक्षम है। कुंडली में दूसरा तथा सातवां भाव मारक स्थान कहलाता है और इन भावों के स्वामी को मारक ग्रह कहा जाता है।
मूल-त्रिकोण : मूल त्रिकोण किसी ग्रह विशेष के लिए एक विशेष राशि और अंश होते हैं जिस पर स्थित होकर कोई ग्रह अपनी स्व-राशि से अधिक शक्तिशाली माना जाता है लेकिन अपनी परम उच्चावस्था से कम। मूल-त्रिकोण किसी ग्रह की मज़बूती को बताता है।
यंत्र : जिस प्रकार किसी कठिन कार्य को सुगमता से करने के लिए हम किसी मशीन का सहारा लेते हैं ऐसे ही वैदिक ज्योतिष में यंत्र को माना जाता है। ये एक ज्यामितीय आकृति होती है, जिसमें किसी विशेष दैवीय ऊर्जा का समावेश होता है। यंत्र हमारी बुरी शक्तियों से सुरक्षा करता है और हमें मज़बूती प्रदान करता है। साथ ही यह हमारे भाग्य, स्वास्थ्य, शिक्षा, ज्ञान, प्रेम, रिश्ते एवं आर्थिक पक्ष को भी मजबूत बनाता है।
युति : जब किसी कुंडली में दो या दो से अधिक ग्रह एक ही भाव में स्थित होकर अपनी ऊर्जा प्रदान करते हैं तो इस स्थिति को ग्रहों की युति कहा जाता है। ग्रहों की युति में अलग-अलग प्रभाव होते हैं और ये युति में शामिल ग्रहों की प्रकृति पर निर्भर करता है।
योग कारक : जब कोई ग्रह किसी कुंडली में केंद्र तथा त्रिकोण दोनों भावों का स्वामी हो तो ऐसा ग्रह योग कारक ग्रह कहलाता है। उसके प्रभाव से व्यक्ति को जीवन में ऊंचाइयां प्राप्त होती हैं।
योग : ज्योतिष में योग का मतलब संयोजन होता है। ये एक ऐसी स्थिति है जिसमें कोई एक या एक से अधिक ग्रह अपनी विशेष स्थिति के द्वारा ऐसी ऊर्जा उत्पन्न करते हैं जिससे व्यक्ति को जीवन में अच्छे परिणामों की प्राप्ति होती है।
राज योग : राज योग कुंडली में उपस्थित ग्रहों द्वारा निर्मित ऐसी स्थिति को कहा जाता है जो किसी व्यक्ति के जीवन में यश, सौभाग्य, मान-सम्मान, धन तथा उन्नति प्रदान करती हैं। किसी राशि विशेष में ग्रहों का स्थित होना अतः कुंडली की विभिन्न भावों का आपसी सम्बन्ध राज योग का निर्माण करता है।
राशि : राशि का शाब्दिक अर्थ है समूह। वैदिक ज्योतिष में नक्षत्रों के समूह को राशि कहते हैं। हमारे आकाश-मण्डल में असंख्य तारे मौजूद हैं और इन्हें तारकीय समूहों में विभाजित कर लिया गया। फिर उनके आकार साम्य के अनुसार उनका नामकरण कर लिया गया। ज्योतिष में ग्रह और राशियां एक दूसरे से सम्बंधित हैं। कुल 27 नक्षत्र हैं और 12 राशियाँ होती हैं। एक राशि सवा दो नक्षत्र से मिलकर बनती है।
राहु : राहु चंद्रमा का उत्तरी बिंदु है और वैदिक ज्योतिष के अनुसार एक छाया ग्रह माना जाता है। इसका केवल सिर होता है और इसके धड़ को केतु माना जाता है। ये एक रहस्यमयी और क्रांतिकारी ग्रह है। ये हमारे वर्तमान जीवन में आने वाली चुनौतियों की ओर इंगित करता है और उनका सामना करने के लिए प्रेरित करता है।
रेखांश : ग्रीनविच नामक स्थान को सम्प्रति भूमध्य माना गया है और भूमध्य रेखा पर जो स्थान जिस अंश-कला पर स्थित होता है, सम्पूर्ण विश्व के उस-उस स्थान का उसे रेखांश कहा जाता है। इस प्रकार ग्रीनविच को भूमध्य के 0 अंश पर स्थित मानकर उससे पूर्व और पश्चिम में स्थित स्थानों का रेखांश सर्वेक्षण द्वारा नियत कर मानचित्र में विधिवत् दर्शाया गया रहता है।
लग्न-स्पष्ट : लग्न के जितने राशि, अंश, कला, विकला आदि पर जन्म हो, उसे लग्न स्पष्ट कहते हैं।
लग्न : इसे जन्म लग्न भी कहते हैं। यह कुंडली का पहला भाव होता है। जन्म के समय पूर्व क्षितिज में जो राशि प्रथम उदित होती है उसे लग्न कहा जाता है। लग्न आपके संपूर्ण व्यक्तित्व को प्रदर्शित करता है और इसी के आधार पर आपके व्यक्तित्व और आचार-विचार का आकलन किया जाता है।
लाहिड़ी : अयनांश लाहिड़ी अयनांश सबसे अधिक प्रयोग किया जाने वाला अयनांश है। इसको चैत्रपक्षीय अयनांश भी कहते हैं। भारतवर्ष में लाहिड़ी अयनांश का प्रयोग लम्बे समय से किया जाता रहा है और ये विश्वसनीय भी माना जाता है।
वक्रत्व : वक्री का अर्थ है टेढ़ा। ज्योतिष में वक्री का मतलब है टेढ़ा या उल्टा चलने वाला। यह एक प्राकृतिक दृश्यमान घटना है जो पृथ्वी के संबंध में ग्रहों की विभिन्न गति के कारण होती है। जब कोई तेज गति वाला ग्रह धीमी गति वाले ग्रह को पीछे छोड़ता है तो धीमा ग्रह पीछे जाता हुआ या उल्टा चलता हुआ प्रतीत होता है। इसी को वक्रत्व कहते हैं। वक्री ग्रह को चेष्टा बल प्राप्त होता है और वह अधिक शक्तिशाली हो जाता है।
वर्ग कुण्डली : ज्योतिष में जन्म कुंडली द्वारा व्यक्ति के जीवन की समस्त जानकारी प्राप्त होती है। लेकिन कुछ विशेष विषयों पर सुख में जानकारी प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष मापदंडों के साथ अन्य कुंडलियां भी बनाई जाती हैं जो जन्म कुंडली के समान ही किसी विषय विशेष के लिए महत्वपूर्ण योगदान देती हैं उन्हें वर्ग कुंडली कहा जाता है। जैसे यदि किसी व्यक्ति के जीवनसाथी के बारे में जानना हो तो जन्म कुंडली के साथ साथ उसकी नवमांश कुंडली का विश्लेषण किया जाता है। यहां नवमांश कुंडली एक वर्ग कुंडली है।
वात : जब शरीर में वायु तत्व असंतुलित हो जाता है तो वात प्रकृति गड़बड़ हो जाती है। जैसे कि शरीर में गैस या एसिडिटी का होना वात प्रकृति का रोग है।
विशाँश : विशाँश एक वर्ग कुंडली है। जन्म-कुंडली के अतिरिक्त इस वर्ग कुण्डली के अध्ययन से जातक कितना धार्मिक होगा, इस बात का आंकलन किया जाता है।
विंशोत्तरी : महर्षि पाराशर ने अपने महान ग्रन्थ बृहत् पाराशर होराशास्त्र में 30 से अधिक दशाओं का वर्णन किया है। विंशोत्तरी दशा उनमें सबसे अधिक उपयोग की जाने वाली दशा है। इसको उडू दशा भी कहा जाता है। इसमें मानव जीवन को 120 वर्षों का मानकर ग्रहों के प्रभाव को जाना जाता है।
शीर्षोदय : राशि ऐसी राशियां जिनका उदय सामने की ओर से यानि कि अपने शीर्ष की ओर से होता है, शीर्षोदय राशियां कहलाती हैं। मिथुन, कन्या, सिंह, तुला, वृश्चिक और कुंभ शीर्षोदय राशियां मानी जाती हैं। इनका प्रभाव जल्दी प्राप्त होता है।
शुक्ल पक्ष : वैदिक ज्योतिष के अनुसार बढ़ते हुए चंद्रमा की कलाओं के दिनों को शुक्ल पक्ष कहा जाता है अर्थात अमावस्या से लेकर पूर्णिमा तक के समय खंड को शुक्ल पक्ष कहा जाता है।
षड्वर्ग : षड्वर्ग का अर्थ है छह वर्ग कुंडलियां। किसी भी व्यक्ति के जीवन के बारे में जानने के लिए जन्म कुंडली के साथ -साथ होरा, द्रेष्काण, नवांश, द्वादशांश और त्रिंशांश वर्ग कुंडलियों का अध्ययन किया जाता है। इन्ही छह वर्ग कुंडलियों को षड्वर्ग कहते हैं।
षष्टियांश : षष्टियांश एक महत्वपूर्ण वर्ग कुंडली है। इस वर्ग कुंडली का उपयोग किसी व्यक्ति के जीवन में होने वाली शुभ तथा अशुभ घटनाओं को जानने के लिए किया जाता है।
षोडशाँश कुण्डली : यह एक वर्ग कुंडली है जिसके द्वारा वाहन सुख के बारे में जाना जा सकता है। जन्म-कुंडली के अतिरिक्त इस वर्ग कुंडली की सहायता से वाहन से संबंधित कष्ट, दुर्घटना तथा मृत्यु का आंकलन किया जाता है।
सप्तमांश : कुण्डली सप्तमांश एक वर्ग कुंडली है जिसके द्वारा संतान का अध्ययन किया जाता है। ये जन्म-कुंडली के पंचम भाव का सूक्ष्म अध्ययन करने के लिए उपयोग की जाती है।
सप्तविशाँश कुण्डली : सप्तविशाँश एक वर्ग कुंडली है। वैदिक ज्योतिष में इस वर्ग कुंडली का उपयोग किसी व्यक्ति के दैहिक बल और योग्यता देखने के लिए किया जाता है।
सावन दिन या वार : सूर्योदय से अन्यतम सूर्योदय तक के काल को सावन दिन या वार कहा जाता है, जिसे ही लोग रवि, सोम अदि सात वारों के नाम से जानते हैं।
सूर्योदय : यह समय हर स्थान के लिए भिन्न होता है अतः इसे हम पंचांग से जान सकते हैं जहाँ यह स्थानीय, मानक अथवा दोनों का ही उपलब्ध रहता है।
स्थानिक समय : जब जिस स्थान के खमध्य में सूर्य, भ्रमण वश पहुँचता है, वह उस स्थान का दिनार्द्ध होता है। जिसे दिन-मध्य भी कहा जाता है। दिन-मध्य से पूर्व सूर्योदय तथा बाद में सूर्यास्त होता है। दिन मध्य या दिनार्द्ध का दो गुणा दिनमान और दिनमान का पाँचवाँ भाग स्थानिक सूर्यास्त घण्टा-मिनट होता है।सूर्यास्त काल को १२ में से निकाल देने पर सूर्योदय घण्टा-मिनट हो जाता है। इस प्रकार प्रत्येक पंचांग में इन्हे (दिनमान, सूर्योदय व सूर्यास्त को लिखने की परम्परा है।) यह प्रत्येक स्थान का भिन्न होता है। इसलिए ऐसे समय को स्थानिक समय (Local Time) कहा जाता है।
स्थिर : गुणों के आधार पर राशियों के वर्गीकरण में दूसरे स्थान पर स्थिर राशि आती हैं। ये राशियां दृढ़ तथा बदलावों के लिए प्रतिरोधी क्षमता रखती हैं और आसानी से स्वयं में बदलाव नहीं करना चाहती। वृषभ, सिंह, वृश्चिक तथा कुंभ राशियां स्थिर राशियां कहलाती हैं।
होरा : होरा एक वर्ग कुंडली है जो आपकी जन्म कुंडली के दूसरे भाव अर्थात आप के धन के बारे में बताती है। इसकी सहायता से आप अपने जीवन में प्राप्त किए गए धन के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।