जापानी भाषा

पूर्व एशियाई भाषा
(जापानी से अनुप्रेषित)

जापानी भाषा (जापानी : 日本語 नीहोंगो) जापान देश की मुख्यभाषा और राजभाषा है। द्वितीय महायुद्ध से पहले कोरिया, ताइवान और साख़ालिन में भी जापानी बोली जाती थी। अब भी कोरिया और फार्मोसा में जापानी जाननेवालों की संख्या पर्याप्त है, परंतु धीरे -धीरे उनकी संख्या कम होती जा रही है। भाषाविद् इसे 'अश्लिष्ट-योगात्मक भाषा' मानते हैं। जापानी भाषा चीनी-तिब्बती भाषा-परिवार में नहीं आती। भाषाविद् इसे स्वयं के जापानी भाषा-परिवार में रखते हैं (कुछ इसे जापानी-कोरियाई भाषा-परिवार में मानते हैं)। ये दो लिपियों के मिश्रण में लिखी जाती हैं : कांजी लिपि (चीन की चित्र-लिपि) और काना (लिपि) (अक्षरी लिपि जो स्वयं चीनी लिपि पर आधारित है)। इस भाषा में आदर-सूचक शब्दों का एक बड़ा तंत्र है और बोलने में "पिच-सिस्टम" ज़रूरी होता है। इसमें कई शब्द चीनी भाषा से लिये गये हैं।

जापानी
日本語
नीहोंगो

"नीहोंगो" ("जापानी")
in जापानी लेखन पद्धति
उच्चारण /nihoɴɡo/: [ɲihoŋɡo], [ɲihoŋŋo]
बोलने का  स्थान जापान
समुदाय Japanese (Yamato)
मातृभाषी वक्ता 12,50,00,000 (2010)
भाषा परिवार
Japonic
  • जापानी
लिपि
राजभाषा मान्यता
मान्य अल्पसंख्यक भाषा

 पलाउ

नियंत्रक संस्था कोई संगठन नहीं
भाषा कोड
आइएसओ 639-1 ja
आइएसओ 639-2 jpn
आइएसओ 639-3 jpn
भाषावेधशाला 45-CAA-a

जापानी भाषा किस भाषा कुल में सम्मिलित है इस संबंध में अब तक कोई निश्चित मत स्थापित नहीं हो सका है। परंतु यह स्पष्ट है कि जापानी और कोरियाई भाषाओं में घनिष्ठ संबंध है और आजकल अनेक विद्वानों का मत है कि कोरियाई भाषा अलटाइक भाषाकुल में सम्मिलित की जानी चाहिए। जापानी भाषा में भी उच्चारण और व्याकरण संबंधी अनेक विशेषताएँ है जो अन्य अलटाइक भाषाओं के समान हैं परंतु ये विशेषताएँ जापानी भाषा को अलटाइक भाषाकुल में डालने के लिए काफ़ी नहीं हैं। हाइकु इसकी प्रमुख काव्य विधा है।

प्राचीन काल (8 वीं शताब्दी तक)

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जापानी भाषा कब से आरंभ होती है इस संबंध में प्रमाण न होने के कारण निश्चित रूप से कुछ बताया नहीं जा सकता। तीसरी शताब्दी में लिखी गई एक चीनी पुस्तक में जापान के कुछ स्थानों और लोगों के नाम मिलते हैं जिनसे अनुमान किया जा सकता है कि उस समय जापानी भाषा का विकास हो चुका था। 7 वीं-8वीं शताब्दी मे जापानी लोगों ने चीनी भाषा और लिपि सीखी और चीनी भाषा में इतिहास, भूगोल आदि लिखे गए। धीरे धीरे चीनी लिपि में जापानी भाषा लिखने का उपाय खोज निकाला गया। जापान में सबसे पुरानी कविताओं का संग्रह मानयोश्यू (लग. 778 ई.) इसी उपाय से लिखा गया था। चीनी भाषा के शब्द एकमात्रिक होते हैं। इस कारण उसके एक-एक लिपिचिह्न (शब्द) से जापानी भाषा का उच्चारण प्रकट करना अत्यंत सरल था। इस प्रकार की लिपियों को "मान्यो" लिपि कहते हैं। इन लिपियों के अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि उस समय की जापानी भाषा में आठ प्रकार के स्वर और शब्दों में स्वर अनुरूपता होती थी। अब भी कोकोरो (हृदय), अतामा (सिर) आदि शब्दों की भाँति एक ही स्वर से बने अनेक शब्द है।

उत्तर प्राचीन काल (9-12 वीं शताब्दी)

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चीन के साथ गमनागमन बंद हो जाने के कारण जापान की अपी संस्कृति का विकास हुआ। भाषा में स्वर अनुरूपता का लोप हो गया और स्वरों की संख्या केवल पाँच रह गई। चीनी लिपि-चिह्नों को सरल करके जापान की अपनी दो प्रकार की लिपियाँ "हिरागाना" और "काताकाना" बन गईं। हिरागाना चीनी लिपि को सरल करके बनाई गई। आरंभ में यह लिपि विशेषतया स्त्रियों में लोकप्रिय हुई। चीनी लिपि को न मिलाकर केवल उसी लिपि में भाषा लिखी जाती थी। काताकाना चीनी भाषा में लिखी पुस्तक को जापानी की भाँति पढ़ने की दृष्टि से बनाई गई। प्राय: चीनी लिपि चिह्न का एक भाग लेकर उसका निर्माण हुआ था। आरंभ से ही यह लिपि चीनी लिपियों के साथ मिलाकर लिखी जाती थी। इस समय चीन के माध्यम से जापान में संस्कृत भाषा और लिपि का अध्ययन भी आरंभ हो गया था। नई जापानी लिपियों की वर्णमाला संस्कृत की वर्णमाला के अनुकरण में बनाई गई। (9-10 वीं शताब्दी) इस समय का राजनीतिक केंद्र पश्चिमी जापान था। पूर्वी जापान के सैनिकों के आने से भाषा में विशेषकर उच्चारण में परिवर्तन आ गया।

मध्य काल (13-16 वीं शताब्दी)

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इस समय सेनापतियों की शक्ति बढ़ गई और कुछ समय तक तोक्यो के निकट कामाकुरा राजनीतिक केंद्र रहो। इस काल में अनेक लड़ाइयाँ होने के कारण प्राचीन भाषा की परंपरा टूटने लगी और उच्चारण तथा व्याकरण मे बड़ा परिवर्तन आ गया।

इस काल के अंतिम भाग में यूरोप के लोग लगे और ईसाई मत के प्रसार के उद्देश्य से उन्होंने जापानी भाषा का अध्ययन किया। उनके लिखे व्याकरण और शब्दकोश उपलब्ध हैं। उनकी लिखी अनेक पुस्तकों से उस समय की जापानी भाषा का हाल अच्छी भाँति जाना जाता है।

इसी समय छपाई का विकास हुआ और बौद्ध धर्म, कनफ़्यूचीवाद, में भी चिकित्सा शास्त्र आदि की पुस्तकें छापी गई। परंतु चीनी भाषा में लिखी पुस्तकें अधिक छापी गईं और जापानी में लिखी पुस्तकों की संख्या कम रही। इस काल तक प्राचीन भाषा का काल कह सकते हैं; परंतु इस समय के अंत में भाषा का रूप बदलकर आधुनिक भाषा का रूप धारण करने लगा।

पूर्व आधुनिक काल (17-19 वीं शताब्दी)

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इस प्रकार में सम्राट् के स्थान पर तोकुगावा परिवार के लोग राज्य करने लगे, तोक्यो राजधानी हो गया तथा जागीरदारी पद्धति दृढ़ हो गई। आरंभ में ओसाका सांस्कृतिक केंद्र था परंतु 18 वीं शताब्दी के अंतिम भाग से "एदो" (आजकल का तोक्यो) सांस्कृतिक केंद्र बना। साहित्य अधिकतर एदो की बोली में ही लिखा जाने लगा। देश जागीरों में विभाजित होने के कारण और लोगों के जागीरों के बाहर आने जाने का अवसर बहुत कम होने के कारण इस काल में अनेक बोलियों का विकास हुआ। उच्चारण आधुनिक भाषा की भाँति हो गया और व्याकरण में क्रिया के रूपपरिवर्तन के नियमों का सरल होना प्रारंभ हुआ। आरंभ में एदो में भिन्न भिन्न बोलियाँ बोलनेवाले इकट्ठे हुए थे परंतु धीरे धीरे एदो नगर की अपनी बोली का विकास हुआ। यह और भी विकसित होकर आजकल की सर्वमान्य भाषा बन गई है। इस समय प्राचीन जापानी भाषा तथा साहित्य का अध्ययन बहुत अधिक किया जाने लगा। इस समय से हिराकाना में चीनी लिपियों को अधिक मिलाकर लिखने की पद्धति पसंद की जाने लगी।

आधुनिक काल (20 वीं शताब्दी)

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इस काल में सम्राट् स्वयं राज्य करने लगे ओर तोक्यो राजधानी बना। यहाँ की बोली सर्वमान्य भाषा मानी जाने लगी। यूरोप के साथ संपर्क स्थापित हुआ तथा यूरोप के अनेक शब्द चीनी लिपि में अनुदित होकर जनसाधारण में प्रचलित होने लगे। चीनी लिपियों के अत्यधिक प्रयोग में आ जाने के कारण एक ही उच्चारणवाले अनेक शब्द बन गए। यूरोप के साहित्य के अनुवाद से भाषा में नई शैलियों का विकास हुआ। 1887 से बोलचाल की भाषा में साहित्य शीघ्रता के साथ लोकप्रिय होता गया। ज्ञान विज्ञान की पुस्तकें अब तक की लेखन शैली में ऊपर से नीचे की ओर लिखी जाने के बदले बाईं से दाईं ओर लिखी जाने लगीं। यह प्रवृत्ति आजकल और भी बढ़ रही है और द्वितीय महायुद्ध के बाद सरकारी आज्ञापत्र भी बाईं से दाईं ओर लिखे जाते हैं।

अब पत्रपत्रिका, रेडियो, टेलिविजन आदि साधनों से सर्वसामान्य भाषा का प्रचार अत्यंत तीव्रगति से बढ़ रहा है और देश के कोने कोने में तोक्यो की बोली समझी तथा बोली जाने लगी।

मेजि काल के आरंभ में अधिक प्रयोग में आई चीनी लिपियों को कम करना, चीनी लिपि को लघु रूप में लिखना, हिराकाना और काताकाना के प्रयोग में एकरूपता से आना, रोमन लिपि प्रयोग का अध्ययन करना आदि आदि उपायों से भाषा को यथासंभव सरल बनाने के लिये प्रयत्न किया जा रहा है। 1946 में जब जापान का नया संविधान हिराकाना और चीनी लिपियों को मिलाकर लिखा गया था उस समय से प्राय: समस्त पत्रपत्रिकाओं में भी यही उपाय अपनाया जा रहा है। विदेशी शब्दों के उच्चारण की नकल करते समय काताकाना का प्रयोग होता है। कुछ लोग टाइपराइटर के लिये काताकाना का प्रयोग करते हैं परंतु यह अब तक लोकप्रिय नहीं हो सका है।

जापानी समाज में भारतीय समाज जैसी विशेषताओं के होने तथा भाषा के बहुत पुरानी होने के कारण जापानी भाषा में अनेक बोलियाँ हैं। जिन में मुख्य क्यूश्यू है। पश्चिमी जापान तथा पूर्वी जापान की बोलियो में, विशेषकर उनके उच्चारण में स्पष्ट अंतर है। मेजि काल से शिक्षा के प्रचार के कारण हर क्षेत्र में सर्वमान्य भाषा तोक्यो की बोली, समझी जाती है। क्षेत्रीय बोलियों के अतिरिक्त पेशे, स्त्री पुरुष, उच्च वर्ग निम्न वर्ग आदि के भेद से भिन्न भिन्न बोलियाँ बोली जाती हैं। ऊपर के हर प्रकार के भेदों के साथ साथ प्रत्येक जापानी को सुनानेवाले के बड़े छोटे के भेदों के साथ साथ प्रत्येक जापानी को सुननेवाले के बड़े छोटे के भेद से तीन प्रकार की शैली में बोलना पड़ता है। अपने से छोटे या बराबर के लोगों से बोलते समय दा (है) प्रकार का वाक्य, कुछ बड़े से बोलते समय देसु प्रकार का तथा बहुत आदर से बातें करते समय गोजाइमासु (है) प्रकार का वाक्य बनाना पड़ता है। लिखित भाषा में भी अरू (साधारण) और अरिमासु (आदर - सूचक) दोनों शैलियाँ हैं।

स्वर : आ इ उ ए (ह्रस्व) ओ (ह्रस्व)

व्यंजन : सदा स्वर के साथ होकर उच्चरित होने के कारण केवल व्यंजन प्रकट करनेवाली लिपि नहीं है। व्यंजन स्वर वाली लिपि निम्नलिखित है :

का कि कु के को क्या क्यु क्यो

गा गि गु गे गो ग्या ग्यु ग्यो

सा शि सु से सो शा शु शो

ज़ा जि ज़ु ज़े ज़ो ज़्या ज़्यु ज़्यो

ता चि त्सु ते तो चा चु चो

दा दे दो

ना ञि नु ने नो ञा ञु ञो

हा हि फ़ु हे हो ह्या ह्यु ह्यो

मा मि मु मे मो म्या म्यु म्यो

(1) सघोष के लिये विशेष लिपि चिह्न नही हैं। अघोष लिपि चिह्न पर ही दो नुकते लगाए जाते हैं।

(2) जब जापानी लिपि बनी, क्या क्यु क्यो जैसे उच्चारण नहीं थे। ये बाद मे चीनी भाषा के प्रभाव से अपनाए गए हैं। इसलिये ये मूल लिपि के बाद छोटे अक्षर लगाकर प्रकट किए जाते हैं। ऊपर लिखित उच्चारण के अतिरिक्त दो और हैं :

(अ) न् या म् के लिये

(आ) जब पक्का, अच्छा जैसा शब्द हो क् च् क् च् को भी एक मात्रा समझते हैं। इस मात्रा की प्रकट करने के लिये छोटे अक्षर त्सु लिखते हैं।

स्वराघात :

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जापानी शब्द संगीतात्मक स्वराघात के हैं। स्वराघात के प्रकार बहुत कम हैं। चार मात्रावाले शब्दों में निम्नलिखित केवल चार प्रकार के भेद हैं।

जापानी भाषा में एक ही उच्चारण और विभिन्न अर्थवाले अनेक शब्द हैं। स्वराघात में भी उन शब्दों में भेद बताने की शक्ति नहीं है। कमि (कागज़) और कमि (बाल) के उच्चारण, स्वाराघात में कोई अंतर नहीं है। हम केवल उनकी चीनी लिपि को देखने से ही दोनों का भेद जान सकते हैं। परन्तु यह स्वराघात वाक्य में शब्दसमूह को अच्छी भाँति बताता है।

निवानो सकुरो मो मिन्ना चित्ते शिमत्ता

वाताशि वा निहोन्गो नो (मैं जापानी भाषा का) बेन्क्यो ओ (अध्ययन) शिते (कर) ओरिमासु (रहा हूँ)

इस प्रकार एक वाक्य में शब्दों का स्थान संयोग से हिंदी से बहुत मिलता है। परंतु जापानी भाषा के संयोगात्मक न होकर योगात्मक होने के कारण कुछ विशेषताएँ ध्यान देने योग्य हैं।

संज्ञा में विभक्तियों का प्रयोग नहीं होता। वाक्य में संज्ञा का संबंध बताने के लिये सहायक शब्द या सहायक क्रियाएँ लगाई जाती हैं। ऊपर के वाक्य में "मैं" को प्रकट करने के लिये "वाताकुशि" में कोई रूपपरिवर्तन नहीं हुआ है। कर्ता कारक को व्यक्त करने के लिये सहायक शब्द "व" लगाया है। संज्ञा में लिंगभेद नहीं है, परंतु मनुष्य, जानवर आदि चेतन और अचेतन वस्तुओं में कुछ भेद है। संज्ञा के रूप में कोई भेद नहीं होता परंतु बाद में आनेवाली क्रिया में, एकवचन बहुवचन के रूप में भेद आ जाते हैं।

आदर अथवा नम्रता प्रकट करने के लिये संज्ञा में उपसर्ग "ओ" लगाया जाता है।

जैसे : तेगामि ........ पत्र

ओतेगामि ....... आपका पत्र

पुरुषवाचक सर्वनाम

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आदरास्पद से, बराबरवाले से, छोटे दर्जे के लोगों से अथवा नम्रता से कहने के लिये भिन्न भिन्न शब्द हैं। इन शब्दों का समुचित प्रयोग करना बहुत कठिन है जैसे मैं के लिये। वाताकुशि हृ विशेषकर स्त्रियाँ कहती हैं। पुरुष भी बड़ों के सामने नम्रता प्रकट करने के लिये इस शब्द का प्रयोग करते हैं।

वाताशि (कुछ बड़ों के सामने)

वशि, बोकु, ओरे, (बराबर अथवा छोटे से)

अताई : छोटी लड़कियाँ

क्रिया में रूपपरिवर्तन होता है। एक शब्द दो या अधिक मात्राओं का होता है1

क्रिया में एक विशेषता मिएरु (दिखाई देना) किकोएरु (सुनाई देना) जैसे शब्द हैं जो केवल अचेतन वस्तुओं के संबंध में प्रयुक्त किए जाते हैं। हिंदी की भाँति संज्ञा में सुरु (करना) लगाकर क्रियाएँ बनाई जाती हैं जैसे-

शिप्पत्सु सुरु (प्रस्थान करना) परंतु इस प्रकार की क्रियाओं के संबंध में एक विशेषता यह है कि जब ऐसी क्रिया वाक्य के अंत में आती है, कभी कभी "सुरु" (करना) लगाकर वाक्य पूर्ण किया जाता है। जैसे रोकुजि किशो। शिचिजि शिप्पत्सु। (छ: बजे उठता हूँ। सात बजे प्रस्थान करता हूँ)।

कुरोई (काला), अकइ (लाल), जैसे इकरांत ओर शिजुकाना (शांत), गेन्किना (स्वास्थ्य), जैसे नकारांत दो प्रकार के शब्द हैं। विशेषणों में भी क्रिया की भाँति रूपपरिवर्तन होता है।

मनुष्य, जानव आदि जीव जंतु और अचेतन वस्तुओं के गिनने की रीति भिन्न भिन्न है :

  • पुरुषों को गिनने के लिये- हतोरि, फुतारि, सान्निन
  • जानवरों के लिये - इप्पिकि, निहिकि, सन्विकि
  • साधारण अचेतन वस्तु - हितोत्सु, फुतात्सु, मित्सु
  • कागज आदि पतली चीजें - इचिमइ, निमइ, सन्मई
  • कलम आदि लंबी चीजें - इपपोन्, निहोन्, सन्बोन्

सहायक शब्द

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सहायक शब्द में रूप परिवर्तन नहीं होता। शब्दों के रूप बहुत छोटे होते हैं हृ अधिकतर एक मात्रावाले। तीन मात्राओं से अधिक लंबे शब्द बहुत कम हैं। ये शब्द हिंदी के संबंधबोधक तथा समुच्चयबोधक शब्द की विभक्ति और क्रियाविशेषण का काम करते हैं।

संबंधबोधक ग ओ नि नो दे पाँ शब्द हैं :

राम ग युकि मसु।


तेगमि ओ योमु

(राम) (जाता) (है)


(पत्र को) (पढ़ता है)

रोकु जि नि ओरिरु


(6 बजे को) (उठता हूँ)


समुच्च्यबोधक कर, (त्त्ठ्ठद्धठ्ठ) ग (ढ़ठ्ठ) केरेदोमो, शि, चार शब्द हैं।

आसा वा हायाइ शि, योरु व ओसोइ शि,

(प्रात:काल को) (सवेरे) (भी) (राम को देर में भी) तइहेन्दा

तकलीफ है (... बहुत सबेरे जाते भी हो और रात को बहुत देर में वापस आते भी हो, बहुत ही तकलीफ होगी)

शब्दसमूह

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स्वतंत्र शब्द और परतंत्र शब्द (सहायक क्रिया, सहायक शब्द) में विभाजित होते हैं। परतंत्र शब्द अधिकतर एक से चार मात्राओं के होते है परंतु दो तीन परतंत्र शब्द एक साथ भी लगाए जा सकते है।

स्वतंत्र शब्दों में चार मात्रावाले अधिक हैं और मूल भाग चीनी लिपि में तथा रूप परिवर्तन करनेवाले भाग हिराकाना में लिखे जाते हैं। चीनी लिपियों को अधिक लगाकर बहुत बड़े, बड़े, कभी कभी 10-15 मात्राओं के शब्द भी बनाए जा सकते हैं। परंतु तीन चार मात्राओं के शब्द अधिक पसंद किए जाने के कारण चीनी लिपियों के किसी किसी हिस्से को काटकर लघु शब्द बनाना पसंद किया जाता है, जैसे"निहोन् क्योशोकुइन् कुमिअइ" के स्थान पर "निक्क्योसो" इस प्रकार के अनेक शब्द बनाए जाने के कारण एक ही उच्चारण के एवं अनेक अर्थ प्रकट करनेवाले शब्द बहुत मिलते हैं।

चीनी शब्द और अन्य विदेशी शब्द

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चीनी शब्द अथवा चीनी लिपियों को जोड़कर जापान में बने शब्द जापानी भाषा में अत्यंत महत्व का स्थान रखते हैं। आजकल के समाचारपत्रों में प्रयुक्त शब्दों में से कोई 10 प्रतिशत ऐसे शब्द हैं। चीनी लिपियों में लिखे शब्दों को पढ़ने में एक बड़ी कठिनाई यह है कि एक एक लिपि के लिये तीन भिन्न उच्चारण हैं। कारण यह है कि चीन में "कान" राजकुल, "गो" राजकुल और "तो" राजकुल के शासनकालों में चीनी लिपियों के उच्चारण भिन्न थे और इन तीनों कालों में चीनी भाषा का प्रभाव जापानी भाषा पर पड़ता रहा। इस प्रकार चीनी उच्चारण के अनुसार पढ़ने के लिये तीन भेद हैं। इसके अतिरिक्त जब ये लिपियाँ जापान के अपने मूल शब्दों के लिये प्रयुक्त की जाती हैं ये चीनी लिपियाँ अपने अपने अर्थ के अनुसार जापानी उच्चारण में पढ़ी जाती हैं। इस प्रकार कभी कभी एक चीनी लिपि सात आठ प्रकार से पढ़ी जाती है।

मेजि काल में जब जापान में विदेशियों का प्रभाव पड़ने लगा, क्लब, बकेट, ब्लैंकेट, रोमैंटिक, टोबाको जैसे शब्द या तो उनके उच्चारण को लेकर या उनके अर्थो को लेकर चीनी लिपि में लिखे जाने लगे। परंतु आजकल ऐसे शब्द अधिकतर काताकाना में लिखे जाने लगे हैं। आधुनिक जापानी भाषा में कुल शब्दों के पाँच प्रति शत ऐसे विदेशी शब्द हैं। इन विदेशी शब्दों में उद्योग-व्यवसाय के यंत्रों के नाम, कपड़े आदि रहन-सहन संबंधी शब्द और खेल कूद के शब्द अधिक हैं। इनमें अँग्रेजी और आजकल अमरीकी शब्द सबसे अधिक हैं। चिकित्सा, तत्वज्ञान, पहाड़ों की चढ़ाई के संबंध में जर्मनी से, कला के संबंध में फ्रांसीसी से, संगीत के संबंध में इतालीद से अधिक शब्द लिए गए हैं।

चीनी भाषा को मिलाकर विदेशी शब्दों में रूपपरिवर्तन नहीं होते। जब क्रिया बनानी होती है, ऐसे शब्दों के बाद सुरु (करना) लगाया जाता है, जैसे साइन सुरु (साइन करना, संकेत करना)।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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