गोविन्द २
मान्यखेट में अपनी राजधानी बनाकर दक्षिणपथ पर शासन करनेवाले जिन राष्ट्रकूट राजाओं ने सर्वप्रथम अपने वंश की वास्तविक राजनीतिक प्रतिष्ठा स्थापित की, उनमें प्रमुख थे दंतिदुर्ग और कृष्ण प्रथम। परंतु उनके पूर्व उस राजकुल में अन्य अनेक सामंत राजा हो चुके थे। गोविंद प्रथम उन्हीं में से एक था। संभवत: राष्ट्रकूटों की किसी अन्य सामान्य शाखा में भी गोविंद नाम का कोई सरदार हो चुका था। इसका आधार है विभिन्न वंशावलियों में गोविंद नाम की क्रम से दो बार प्राप्ति। परंतु मुख्य शाखा का गोविंद (प्रथम) सामंत उपाधियों को धारण करता था, जो दूसरे गोविंद के बारे में नहीं कहा जा सकता। डॉ॰ अल्तेकर उसका संभावित काल ६९० ई. से ७१० ई. तक निश्चित करते हैं। कुछ राष्ट्रकूट अभिलेखों से उसके शैव होने की बात ज्ञात होती है।
गोविंद द्वितीय कृष्ण प्रथम का पुत्र था और ७७३-७७४ ई. में कभी राजगद्दी का उत्तराधिकारी हुआ। अपने पिता के शासनकाल में भी वह प्रशासन से संबद्ध रहा और उसके अंतिम दिनों में युवराज नियुक्त कर दिया गया था। युवराज की अवस्था में ही उसने वेंग के पूर्वी चालुक्य शासक विष्णुवर्धन चतुर्थ को एक लड़ाई में हराया था। वह अच्छा घुड़सवार और योग्य सैनिक था। राजा होकर उसने 'प्रभूतवर्ष' और 'विक्रमावलोक' की उपाधियाँ धारण कीं। परंतु शासक के रूप में वह बड़ा निकम्मा निकला और भोगविलास में अधिक रुचि रखने लगा। प्रशासन और वंश की प्रतिष्ठा के विस्तार की चिंता उसने छोड़ दी, यहाँ तक कि प्रशासन का सारा उत्तरदायित्व उसने अपने छोटे भाई ध्रुव के हाथों में छोड़ दिया। स्वाभाविक था कि ध्रुव इस परिस्थिति से लाभ उठाता। अपने बड़े भाई और राजा की आज्ञाओं को प्राप्त किए बिना भी वह स्वयं भूमि आदि का दान देने लगा और अनेक दानपत्र अपने नाम से उसने प्रचारित किए। ध्रुव की इन प्रवृत्तियों से गोविंद द्वितीय का उसके प्रति संदेह उत्पन्न हो जाय, यह कुछ अप्रत्याशित था और वह अपने पद से हटा दिया गया। दोनों भाइयों के बढ़ते हुए मनोमालिन्य का प्रभाव सांमतों में बढ़ती हुई स्वतंत्रता की भावना पर हुआ। ध्रुव ने इस परिस्थिति से लाभ उठाया और साम्राज्य तथा वंश की प्रतिष्ठा की रक्षा का बहाना बनाकर उसने खुला विद्रोह कर दिया। गोविंद द्वितीय ने कांची, गंगवाड़ी, वेंगी और मालवा के राजाओं से सहायता माँगी, परंतु उनकी सैनिक सहायता के होते हुए भी ध्रुव सफल रहा। गोविंद द्वितीय सैनिक संघ और ध्रुव की सेनाओं के बीच युद्ध कहाँ हुआ, यह निश्चित नहीं है, परंतु वह था निर्णायक और उसमें ध्रुव की विजय हुई। विजय के बद उसने अपने भाई का क्या किया, यह भी ज्ञात नहीं है, परंतु उसकी राजगद्दी तो उसने छीन ही ली और संभवत: ७८० ई. में उसपर स्वयं आसीन भी हो गया।