तपस्वी जैन श्रमणों को जैन ग्रंथों में क्षपणक, क्षपण, क्षमण अथवा खबण कहा गया है। क्षपणक अर्थात कर्मों का क्षय करने वाला।[1]

महाभारत में नग्न जैन मूर्ति को क्षपणक कहा है। चाणक्यशतक में उल्लेख है कि जिस देश में नग्न क्षपणक रहते हो वहाँ धोबी का क्या काम ? (नग्नक्षपणके देशे रजक किं करिष्यति ?) राजा विक्रमादित्य की सभा में क्षपणक को एक रत्न बताया गया है। यह संकेत सिद्धसेन दिवाकर की ओर जान पड़ता है। मुद्राराक्षस नाटक में जीवसिद्धि क्षपणक को अर्हतों का अनुयायी बताया गया है। यह चाणक्य का अंतरंग मित्र था और ज्योतिषशास्त्र के अनुसार शुभ-अशुभ नक्षत्रों का बखान करता था। बौद्ध भिक्षु को 'भई क्षपणक' कहा गया है। संस्कृत के आर्वाचीन कोशकारों ने मागध अथवा स्तुतिपाठक के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग किया है। महाभारत मे एक कथा आती है उसमे उत्तंक नामक ब्राह्मण अपने गुरु के प्रति बताये हुए कार्य के लिए जा रहे थे तभी नागराज तक्षक उनके कार्य मे विघ्न लाने हेतू एक क्षपणक( जो बीच मे दृश्य बीच मे अदृश्य होता था) का रूप लेकर आये थे

  1. श्री मोहनदेव पन्त. श्रीमद्-बाणभट्ट-प्रणीतं हर्षचरितम् (संस्कृत में). मोतीलाल बनारसीदास. पृ॰ २९६. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120826168. मूल से 19 अप्रैल 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 18 अप्रैल 2014.