कामंदकीय नीतिसार राज्यशास्त्र का एक संस्कृत ग्रंथ है। इसके रचयिता का नाम 'कामंदकि' अथवा 'कामंदक' है जिससे यह साधारणत: 'कामन्दकीय' नाम से प्रसिद्ध है। यह श्लोकों में रूप में है। इसकी भाषा अत्यन्त सरल है।

वास्तव में यह ग्रंथ कौटिल्य के अर्थशास्त्र के सारभूत सिद्धांतों (मुख्यतः राजनीति विद्या) का प्रतिपादन करता है। कामन्दक ने अपने ग्रन्थ में स्वीकार किया है कि उनका यह ग्रन्थ कौटिल्य के अर्थशास्त्र से प्रभावित है। वस्तुतः उन्होंने कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उद्घृत विचारों का परिवर्तित और संवर्धित रूप अपने ग्रन्थ नीतिसार में प्रयुक्त किया है।

नीतिसार के आरम्भ में ही विष्णुगुप्त चाणक्य की प्रशंशा की गयी है-

वंशे विशालवंश्यानाम् ऋषीणामिव भूयसाम्।

अप्रतिग्राहकाणां यो बभूव भुवि विश्रुतः ॥
जातवेदा इवार्चिष्मान् वेदान् वेदविदांवरः।
योधीतवान् सुचतुरः चतुरोऽप्येकवेदवत् ॥
यस्याभिचारवज्रेण वज्रज्वलनतेजसः। '
पपात मूलतः श्रीमान् सुपर्वा नन्दपर्वतः ॥
एकाकी मन्त्रशक्त्या यः शक्त्या शक्तिधरोपमः।
आजहार नृचन्द्राय चन्द्रगुप्ताय मेदिनीम्।।
नीतिशास्त्रामृतं धीमान् अर्थशास्त्रमहोदधेः।

समुद्दद्ध्रे नमस्तस्मै विष्णुगुप्ताय वेधसे ॥ इति ॥

कामन्दक प्राचीन भारतीय राजनीति के अन्यतम विचारक हैं जो कौटिल्य के कई वर्षों पश्चात् भारतीय राजनीतिक के पटल पर उद्भुत हुए और कौटिल्य के ही समान राजनीतिक सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया। ए०एन०डी० हक्सर, जो एक भारतीय रक्षा विशेषज्ञ हैं, ने ‘भारतीय रक्षा पत्रिका’ में ‘कौटिल्य की विदेश एवं रक्षानीति’ पर अनेक शोध पत्र प्रकाशित किए हैं। उनका मानना है कि कौटिल्य के पश्चात् 1000 वर्षों के कालखण्ड में 13 अन्य राजनीतिक ग्रन्थ अस्तित्व में आयें हैं जोकि वस्तुतः मूल रूप से कौटिल्यार्थशास्त्र से प्रभावित थे। प्राचीन भारतीय राजनीति के सन्दर्भ में इन ग्रन्थों एवं रचयिताओं (राजनीतिक विचारकों) का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है। इन ग्रन्थों में ‘कामन्दक’ का ‘नीतिसार’ अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

नीतिसार के रचनाकाल के विषय में कोई स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इसके कर्ता कामंदकि या कामंदक कब और कहाँ हुए, इसका भी कोई पक्का प्रमाण नहीं मिलता। इतना अवश्य ज्ञात होता है कि ईसा की सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध नाटककार भवभूति से पूर्व इस ग्रंथ का रचयिता हुआ था, क्योंकि भवभूति ने अपने नाटक 'मालतीमाधव' में नीतिप्रयोगनिपुणा एक परिव्राजिका का 'कामंदकी' नाम दिया है। संभवत: नीतिसारकर्ता 'कामंदक' नाम से रूढ़ हो गया है तथा नीतिसारनिष्णात व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होने लगा था।

कामंदक की प्राचीनता का एक और प्रमाण भी दृष्टिगोचर होता है। कामंदकीय नीतिसार की मुख्यतः पाँच टीकाएँ उपलब्ध होती हैं : उपाध्याय निरक्षेप, आत्मारामकृत, जयरामकृत, वरदराजकृत तथा शंकराचार्यकृत

विंटरनित्स के मतानुसार किसी कश्मीरी कवि ने इसकी रचना ईस्वी ७००-७५० के बीच की। डॉ॰ राजेन्द्रलाल मित्र का अनुमान है कि ईसा के जन्मकाल के लगभग बाली द्वीप जानेवाले आर्य इसे भारत से बाहर ले गए जहाँ इसका 'कवि भाषा' में अनुवाद हुआ। बाद में यह ग्रंथ जावा द्वीप में भी पहुँचा। छठी शताब्दी के कवि दण्डी ने अपने 'दशकुमारचरित' के प्रथम उच्छ्वास के अंत में 'कामंदकीय' का उल्लेख किया है।

डी.आर. भण्डाकर का मानना है कि ‘कामन्दक’ 300 ईस्वी काल के हैं। चार्ल्स डेंकमियर के अनुसार ये चौथी-पाँचवी शताब्दी के हैं। उनका मानना है कि कामन्दक चन्द्रगुप्त द्वितीय के मन्त्री (शिखर) रहे हैं अथवा राजनीति की सक्रिय भागीदारी से मुक्त हुए एक बुद्धिजीवी थे। उपिन्दर सिंह ने ‘नीतिसार’ को 500-700 ईस्वी सन् का माना है। कृष्णेन्दु ने इसका रचना काल 700-750 ईस्वी सन् माना।

नीतिसार विशुद्ध रूप से राजनीति पर आधारित ग्रन्थ है। इसमें 1192 पद्य है जो कि 32 प्रकरणों में निबद्ध हैं। ये अधिकरण 20 सर्गों (अध्यायों) में वर्गीकृत किए गए हैं। इनमें इन्द्रियविजय, विद्या, वर्णाश्रम, दण्डव्यवस्था, सप्तप्रकृति, स्वामी और सेवकों के कर्त्तव्य, कण्टकशोधन, राजपुत्ररक्षा, द्वादशमण्डल, षाड्गुण्य, मन्त्रण, दूत, गुप्तचर,प्रकृति व्यसन, व्यूहरचना, विजययात्रा, स्कन्धावार, उपाय विकल्प, सेना और उसके भेद, सेनापति आदि तत्त्वों का विस्तृत विवेचन किया गया है।

प्रथम सर्ग राजा के इंन्द्रियनियंत्रण सम्बन्धी विचार
द्वितीय सर्ग शास्त्रविभाग, वर्णाश्रमव्यवस्था व दंडमाहात्म्य
तृतीय सर्ग राजा के सदाचार के नियम
चौथा सर्ग राज्य के सात अंगों का विवेचन
पाँचवाँ सर्ग राजा और राजसेवकों के परस्पर सम्बन्ध
छठा सर्ग राज्य द्वारा दुष्टों का नियन्त्रण, धर्म व अधर्म की व्याख्या
सातवाँ सर्ग राजपुत्र व अन्य के पास संकट से रक्षा करने की दक्षता का वर्णन
आठवें से ग्यारहवाँ सर्ग विदेश नीति; शत्रुराज्य, मित्रराज्य और उदासीन राज्य ; संधि, विग्रह, युद्ध ;
साम, दाम, दंड व भेद - चार उपायों का अवलंब कब और कैसे करना चाहिए
बारहवाँ सर्ग नीति के विविध प्रकार
तेरहवाँ सर्ग दूत की योजना ; गुप्तचरों के विविध प्रकार ; ; राजा के अनेक कर्तव्य
चौदहवाँ सर्ग उत्साह और आरम्भ (प्रयत्न) की प्रशंसा ; राज्य के विविध अवयव
पन्द्रहवाँ सर्ग सात प्रकार के राजदोष
सोलहवाँ सर्ग दूसरे देशों पर आक्रमण और आक्रमणपद्धति
सत्रहवाँ सर्ग शत्रु के राज्य में सैन्यसंचालन करना और शिबिर निर्माण ; निमित्तज्ञानप्रकरणम्
अट्ठारहवाँ सर्ग शत्रु के साथ साम, दाम, इत्यादि चार या सात उपायों का प्रयोग करने की विधि
उन्नीसवाँ सर्ग सेना के बलाबल का विचार ; सेनापति के गुण
बीसवाँ सर्ग गजदल, अश्वदल, रथदल व पैदल की रचना व नियुक्ति

कौटिल्य का अर्थशास्त्र तथा कामन्दकीय नीतिसार

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कौटिल्य ने राजा और राज्य विस्तार के लिये युद्धों को आवश्यक बताया है। चाणक्य का मानना था कि अगर राजा को युद्धों के लिये सक्षम रहना है तो उसे निरन्तर शिकार आदि करके खुद को प्रशिक्षित रखना होगा वहीं नीतिसार में राजा के शिकार तक करने को भी अनावश्यक बताया गया है, वह जीवमात्र को जीने और सह-अस्तित्व की बात करती है। नीतिसार कूटनीति, मंत्रणा और इसी तरह के अहिंसक तरीकों को अपनाने को प्राथमिकता देती है।

कौटिल्य विजय के लिये साम, दाम, दंड और भेद की नीति को श्रेष्ठ बताते हैं। वे माया, उपेक्षा और इंद्रजाल में भरोसा रखते हैं। वहीं नीतिसार मंत्रणा शक्ति, प्रभु शक्ति और उत्साह शक्ति की बात करती है। इसमें राजा के लिये राज्यविस्तार की कोई कामना नहीं है जबकि अर्थशास्त्र राज्य विस्तार और राष्ट्र की एकजुटता के लिये हर प्रकार की नीति का समर्थन करता है।

नीतिसार में युद्धों के खिलाफ काफी तर्क हैं और बार-बार कहा गया है कि समझदार शासक को हमेशा युद्धों को टालने का ही प्रयास करना चाहिए।

अन्तर्राज्यीय नीतियों के अन्तर्गत कौटिल्य चार उपायों का वर्णन करते हैं। कामन्दक ने चार उपायों के स्थान पर सात उपायों का विधान किया है। इसी प्रकार अनेक राजमण्डलों का निर्माण, शत्रु के सन्धि के विभिन्न भेदों का अपेक्षाकृत विस्तृत वर्णन किया है।

कुछ श्लोक

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इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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