उष्णदेशीय आयुर्विज्ञान
उष्णदेशीय आयुर्विज्ञान उष्ण देशों के उन विशेष रोगों की चिकित्सा का विज्ञान है, जो अन्य देशों में नहीं होते। ये व्याधियाँ इन देशों में विशेष रूप से ऐसे कारणों पर निर्भर हैं जो इनके प्रसरण में सहायक हैं अथवा वे रोग हैं जो स्वच्छता के अभाव, शिक्षा के निम्न स्तर तथा लोगों की निम्न आर्थिक अवस्था से संबद्ध हैं। इस प्रकार के रोगों में पोषक तत्वों की कमी के कारण उत्पन्न रोग तथा कुछ संक्रामक रोग हैं। यद्यपि कुछ द्वैषिता (मैलिग्नैन्सी) तथा चिरकालिक व्ह्रिसन (क्रॉनिक डिजेनरेशन) वाले रोग इसके अंतर्गत आते हैं, तथापि जनस्वास्थ्य की दृष्टि से उनका स्थान गौण है।
उष्णदेशीय आयुर्विज्ञान उन व्याधियों पर विशेष ध्यान देता है जो समशीतोष्ण किंतु अधिक उन्नत देशों में आभ्यंतरिक (दबी हुई) रहती हैं; परंतु यक्ष्मा (तपेदिक), उपदंश आदि व्याधियों पर, जो विश्व में समान रूप से फैली हुई हैं, विशेष ध्यान नहीं देता, यद्यपि ये ही रोग इन देशों में होनेवाली अधिकांश मृत्युओं का कारण होते हैं।
पूर्वोक्त उष्णदेशीय व्याधियों की कसौटी कामचलाऊ ही है क्योंकि कुछ व्याधियाँ, जो अब उष्ण देशों के लिए आभ्यंतरिक हैं, पहले यहीं उग्र रूप में पाई जाती थीं। उदाहरण के लिए जुड़ी (मलेरिया) को लीजिए। यह १९वीं शताब्दी में उत्तरी संयुक्त राज्य अमरीका में पाया जाता था और अब वहाँ के लिए आभ्यंतरिक व्याधि है। उष्णदेशीय आयुर्विज्ञान में इसे महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
प्रगति
संपादित करेंउष्णदेशीय आयुर्विज्ञान का विकास अधिकतर इन देशों में विदेशियों के आ बसने तथा वाणिज्य के साथ हुआ है। प्रारंभ में इन देशों में जानेवाले यात्रियों तथा यहाँ पर नियुक्त अधिकारियों की स्वास्थ्यसुरक्षा के निमित्त नियुक्त किए गए प्रबंधकों को ही यहाँ के निवासियों के स्वास्थ्य की देखभाल भी सौंप दी गई। १८७५ से १९२५ ई. तक का काल उष्ण जलवायुवाले देशों के कई रोगों के कारणों तथा प्रसार के विशद अध्ययन के लिए अपूर्व है।
१८९७ ई. में रोवाल रॉस नामक वैज्ञानिक ने जुड़ी के अंडकोशा (ऊसाइट) का ऐनाफलाइन जाति की स्त्री मच्छर में उपस्थिति का पता लगाया। उसके १७ वर्ष बाद अल्फंसी-लायरन नामक वैज्ञानिक ने इसी रोग के परोपजीवियों की उपस्थिति मानव रुधिर में पाई। शताब्दी के अंत में इन तथ्यों के साथ-साथ इसी प्रकार की अन्य खोजें भी हुई, जिनसे कालज्वर (काला आज़ार), अ्फ्रीकी निद्रारोग, तनुसूत्र आदि रोगों के कारणों का पता लगाया गया।
वैक्सीन तथा रोगाणुनाशी (ऐंटीबायटिक) ओषधियों के आविष्कार ने इस प्रकार के रोगों के प्रसरण को अवरुद्ध कर दिया है।
विशालतर पैमाने पर इन देशों की व्याधियों के प्रभावों को क्षीण करने तथा इनके प्रसार की रोकथाम करने के लिए सभी देशों के संयुक्त प्रयासों के साथ-साथ उन वैज्ञानिकों के प्रयत्नों की भी आवश्यकता है जो विज्ञान की नवीनतम खोजों के अनुसार महत्तम सफलतादायक हैं।
द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् संगठित विश्व स्वास्थ्य संस्था (वर्ल्ड हाइजीन ऑरगैनाइज़ेशन) इस ओर कार्यरत है। अपनी सर्वप्रथम बैठक में ही इस संस्था ने मलेरिया के उन्मूलन के लिए एक अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम स्वीकृत किया था।
उष्णदेशीय निवासियों की स्वास्थ्यसुरक्षा की देखभाल के साथ साथ उनके शिक्षा तथा आर्थिक स्तर के ऊपर उठानेवाले कार्यक्रमों की भी आवश्यकता है।
बाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- The American Society of Tropical Medicine and Hygiene
- Anton Breinl Centre for Public Health and Tropical Medicine - Australia
- Asia-Pacific Institute of Tropical Medicine and Infectious Diseases[मृत कड़ियाँ]
- The Australasian College of Tropical Medicine
- The Bangkok School of Tropical Medicine
- Faculty of Tropical Medicine, Mahidol University, Bangkok, Thailand
- Calcutta School of Tropical Medicine-India
- Institute of Tropical Medicine - Serbia
- Institute of Tropical Medicine - Belgium
- Royal Tropical Institute - The Netherlands
- Tulane School of Public Health and Tropical Medicine
- Doctors without borders
- Doctors of the World
- Tropical Disease and Medications Conditions
- Medair