अलायुध
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अलायुध महाभारत काल का एक राक्षस था जो उसी काल के एक अन्य राक्षस अलम्बुष के साथ चौदहवें दिन के युद्ध में घटोत्कच के हाथों मारा गया।
अलायुध कौरव पक्ष का एक योद्धा था। अलायुध राक्षस जाति का था और वह भीम का रिश्तेदार भी था पर वह भीम के हिडिम्बा से विवाह से नाखुश था। वह भीम के हाथों हिडिम्बा के भाई हिडिम्ब की मौत से आहत था। वह वकाशुर के मारे जाने का बदला लेना चाहता था। वह नस्ली भावना से पीड़ित था और भीम को अपनी जाति के अपमान से जोड़ कर देखता था। अपने किशोरावस्था से ही वह भीम से घृणा पाले बैठा था और किसी ना किसी दिन भीम से बदला लेने का स्वप्न देखता। वह भीम के पुत्र घटोत्कच को भी आधा विजातीय मान उससे बराबर घृणा करता पर साथ-साथ रहने के कारण वह उसे सीधे कुछ कह ना पाता। अनेक बार उसने घटोत्कच को अपने वंश का कलंक और अविश्वासी सिद्ध करने का प्रयास भी किया पर घटोत्कच के अच्छे व्यवहार, पराक्रम और हिडिम्बा के प्रभाव के कारण अलायुध की एक ना चली। उस कबीले में सामान्य तौर पर सभी लोग पांडवों और विशेष कर भीम के लिये श्रद्धा रखते पर अलायुध और उसके कुछ साथी भीम को अपने वंश के अपमान का प्रतीक मानते। युद्ध के पहले भीम ने घटोत्कच को आपने पक्ष से युद्ध हेतु निमंत्रण भेजा। घटोत्कच वहाँ अपने अन्य मित्रों और स्वजनो के साथ युद्ध करने पहुँचा। उसने अलायुध को भी साथ आने का आग्रह किया पर अलायुध के मन में तो कुछ और ही था। युद्ध के चौदहवें दिन युद्द रात्रि में भी जारी रहा तो घटोत्कच की शक्तियाँ अन्धकार के कारण एकदम बढ़ी और वह भीषण रूप से कौरवों का अन्त करने लगा। वह मायावी भी था और उसे रोक पाना कर्ण के लिये भी कठिन था। तभी युद्ध भूमि में अलायुध ने प्रवेश किया। उसने दुर्योधन को संपर्क कर कौरव पक्ष से युद्ध करने की अनुमति माँगी। उसका एकमात्र उद्देश्य था भीम का अन्त करना। दुर्योधन तो खुश हो गया पर कर्ण ने विरोध करते हुए ऐसे असुरों को अविश्वासी बताया और अपने दम पर भीम और अर्जुन के अन्त की बात की। घटोत्कच के पराक्रम और प्रलय से त्रस्त दुर्योधन ने कर्णकी एक ना सुनी और उसे घटोत्कच तक ही सीमित रहने को कह अलायुध का स्वागत किया। अलायुध ने संपूर्ण बल, छल और आवेश से भीेम पर आक्रमण किया। वह बदले की भावना से जलता हुआ और भयंकर हो उठा। लम्बे युद्ध के बाद भीम धीरे-धीरे शिथिल पड़ने लगा। एक ओर अलायुध का छल-भरा युद्ध और दूसरी ओर उसकी माया, भीम बचाव की मुद्रा में आने लगा। भगवान कृष्ण के चेहरे पर चिन्ता की लकीरें उभरने लगीं। तभी हुँकार करता घटोत्कच बीच में आ खडा हुआ। घटोत्कच ने अलायुध को समझाते हुए वापस जाने को कहा। उसने परिवार के लोगों का वास्ता दे कर कहा कि आपस में युद्ध करना मूर्खता है। उसने बचपन के साथ के दिनों का हवाला दे कर आपसी युद्ध टालना चाहा। पर अलायुध नकारात्मक विष से भरा था। उसने जहर उगलते हुए अपने पूर्वजों की भीम के हाथों पराजय की बात की और भीम के साथ- साथ घटोत्कच का भी वध करके अपने वंश के अपमान का बदला लेने की घोषणा की। विवश हो कर घटोत्कच अलायुध से लड़ पड़ा। उसने अलायुध को अनेक मौके दिये और बार-बार उसे समझाता रहा पर अलायुध भीषण और भीषण होता गया। उसने घटोत्कच की सदाशयता को उसकी कमजोरी से ज्यादा कुछ नहीं समझा। आखिर भगवान कृष्ण ने घटोत्कच को समझाया - हे पुत्र घटोत्कच ! अभी तुम पर वार कर रहा अलायुध तुम्हारा स्वजन नहीं है ना ही दया का पात्र है। युद्ध में शत्रु को अनेक बार अवसर देने वाले अपने विनाश का कारण स्वयँ बनते हैं अतः प्रथम अवसर पर ही शत्रु का अन्त करना ही समझदारी है। घटोत्कच ने अगले ही पल अलायुध को गिरा कर उसका वध कर दिया।