अधिरथ

अधिरथ की पत्नी राधा कृष्ण जीको क्या कहती थी

ये महाभारत में वर्णित माता कुंती के विवाह पूर्व भगवान सूर्य से उत्पन्न पुत्र कर्ण को पालने वाले पिता थे। अधिरथ अंग वंश में उत्पन्न सत्कर्मा के पुत्र थे। इनकी पत्नी का नाम राधा था। कर्ण के जन्म ग्रहण करते ही कुन्ती ने उन्हें एक मंजूषा में रखकर गंगा में प्रवाहित कर दिया। यह पेटी अधिरथ और राधा को गंगा में जल-क्रीडा करते समय मिली। दम्पती निस्सन्तान थे, अत: कर्ण का पुत्र की भाँति भरण-पोषण किया। कर्ण को पाल-पोसकर इन्होंने ही बड़ा किया था। महाभारत वनपर्व के कुण्डलाहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 309 में अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति का वर्णन हुआ है[1]- अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा द्वारा देवपुत्र को ग्रहण करना वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इसी समय राजा धृतराष्ट्र का मित्र अधिरथ सूत अपनी स्त्री के साथ गंगा के तट पर गये। राजन! उसकी परम सौभाग्यवती पत्नी इस भूतल पर अनुपम सुन्दरी थी। उसका नाम था राधा। उसके कोई पुत्र नहीं हुआ था। राधा पुत्र प्राप्ति के लिये विशेष यत्न करती रहती थी। दैवयोग से उसी ने गंगा जी के जल में बहती हुई उस पिटारी को देखा। पिटारी के ऊपर उसकी रक्षा के लिये लता लपेट दी गयी थी और सिन्दूर का लेप लगा होने से उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। गंगा की तरगों के थपेड़े खाकर वह पिटारी तट के समीप आ लगी। भामिनी राधा ने कौतूहलवश उस पिटारी को सेवकों से पकड़वा मँगाया और अधिरथ सूत को इसकी सूचना दी। अधिरथ ने उस पिटारी को पानी से बाहर निकालकर जब यन्त्रों (औजारो) द्वारा उसे खोला, तब उसके भीतर एक बालक को देखा। वह बालक प्रातःकालीन सूर्य के समान तेजस्वी था। उसने अपने अंगों में स्वर्णमय कवच धारण कर रखा था। उसका मुख कानों में पड़े हुए दो उज्ज्वल कुण्डलों से प्रकाशित हो रहा था। उसे देखकर पत्नी सहित सूत के नेत्रकमल आश्चर्य एवं प्रसन्नता के खिल उठे। उसने बालक को गोद में लेकर अपनी पत्नी से कहा- ‘भीरु! भाविनी! जब से मैं पैदा हुआ हूँ, तब से आज ही मैंने ऐसा अद्भुत बालक देखा है। मैं समझता हूँ, यह कोई देव बालक ही हमें भाग्यवश प्रापत हुआ है। ‘मुझ पुत्रहीन को अवश्य ही देवताओं ने दया करके यह पुत्र प्रदान किया है।’ राजन! ऐसा कहकर अधिरथ ने वह पुत्र राधा को दे दिया। राधा ने भी कमल के भीतरी भाग के समान कान्मिान, शोभाशाली तथा दिव्यरूपधारी उस देवबालक को विघिपूर्वक ग्रहण किया। निश्चय ही दैव की प्रेरणा से राधा के स्तनों से दूध भी झरने लगा।

राधा द्वारा कर्ण का पालन उसने विधिपूर्वक उस बालक का पालन-पोषण किया और वह धीरे-धीरे सबल होकर दिनोंदिन बढ़ते लगा। तभी से उस सूत-दम्पति के और भी अनेक औरस-पुत्र उत्पन्न हुए। तदनन्तर वसु (सुवर्ण) मय कवच धारण किये तथा सोने के ही कुण्डल पहने हुए उस बालक को देखकर ब्राह्मणों ने उसका नाम ‘वसुषेण’ रक्खा। इस प्रकार वह अमित पराक्रमी एवं सामर्थ्यशाली बालक सूतपुत्र बन गया। लोक में ‘वसुषेण’ और ‘वृष’ इन दो नामों से उसकी प्रसिद्धि हुई।

व्यवसाय एवं जाति से ये सूत या सारथि थे व हस्तिनापुर नरेश महाराज धृतराष्ट्र के यहाँ कार्यरत थे।