अक्षय वट
पुराणों में वर्णन आता है कि कल्पांत या प्रलय में जब समस्त पृथ्वी जल में डूब जाती है उस समय भी वट का एक वृक्ष बच जाता है। अक्षय वट कहलाने वाले इस वृक्ष के एक पत्ते पर ईश्वर बालरूप में विद्यमान रहकर सृष्टि के अनादि रहस्य का अवलोकन करते हैं। अक्षय वट के संदर्भ कालिदास के रघुवंश तथा चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के यात्रा विवरणों में मिलते हैं। भारतवर्ष में क्रमशः चार पौराणिक पवित्र वटवृक्ष हैं--- गृद्धवट- सोरों 'शूकरक्षेत्र', अक्षयवट- प्रयाग, सिद्धवट- उज्जैन और वंशीवट- वृन्दावन।
अक्षयवट पूजा का धार्मिक महत्व और पौराणिक कथाएं I[1]
प्रयाग
संपादित करेंअक्षय वट प्रयाग में त्रिवेणी के तट पर आज भी अवस्थित कहा जाता है।
हिन्दुओं के अलावा जैन और बौद्ध भी इसे पवित्र मानते हैं। कहा जाता है बुद्ध ने कैलाश पर्वत के निकट प्रयाग के अक्षय वट का एक बीज बोया था।[2] जैनों का मानना है कि उनके तीर्थंकर ऋषभदेव ने अक्षय वट के नीचे तपस्या की थी। प्रयाग में इस स्थान को ऋषभदेव तपस्थली (या तपोवन) के नाम से जाना जाता है।
अन्य स्थान
संपादित करेंवाराणसी और गया में भी ऐसे वट वृक्ष हैं जिन्हें अक्षय वट मान कर पूजा जाता है। कुरुक्षेत्र के निकट ज्योतिसर नामक स्थान पर भी एक वटवृक्ष है जिसके बारे में ऐसा माना जाता है कि यह भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए गीता के उपदेश का साक्षी है। सोरों 'शूकरक्षेत्र' में वाराहपौराणिक पवित्र गृद्धवट है, जहाँ पृथ्वी-वाराह सम्वाद हुआ था।
सूत्र
संपादित करें- ↑ "अक्षयवट पूजा का धार्मिक महत्व और पौराणिक कथाएं ".
- ↑ "Akshaya Vata--The Eternal Banyan Tree". मूल से 2 नवंबर 2005 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 जून 2020.