अकशेरुकी भ्रूणविज्ञान
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जिन प्राणियों में रीढ़ नहीं होती उन्हें अकशेरुकी या अपृष्ठवंशी (invertebrate) कहते हैं। विज्ञान का वह विभाग अकशेरुकी भ्रूणविज्ञान (invertebrate embryology) कहलाता है जिसमें ऐसे प्राणियों में बच्चों के जन्म के आरंभ पर विचार होता है।
अपृष्ठवंशी प्राणियों को 15-16 श्रेणियों में बाँटा गया है, तथापि इनके भ्रूणविज्ञान से यही सिद्ध होता है कि यह विभाग केवल बाह्यिक है और प्राणियों में, विशेषकर भ्रूणों में, एक अंतर्निहित परस्पर संबंध है जिसके द्वारा विकासवाद की पुष्टि होती है। प्राणियों की विभन्नता उनके वातावरण और तदनुसार उनकी जीवनपद्धति के कारण होती है। इस सिद्धांत के अनुसार सभी प्राणियों को केवल दो विभागों में बाँटा जा सकता है। एक तो आद्यमुखी और दूसरा द्वितीयमुखी। इन दोनों शाखाओं को शरकृमिवर्ग संबंधित करता है। इससे यही सिद्ध होता है कि प्राणियों के विकास में आद्यमुखी पहले बने और उसके पश्चात् द्वितीयमुखी। द्वितीयमुखी से सभी पृष्ठवंशियों (वर्टेब्रेटा) का विकास हुआ।
परिचय
संपादित करेंअधिकतर प्राणियों में नर और मादा पृथक् होते हैं। नर शुक्राणु (स्पर्टैटोज़ोआ) सृजन करते हैं तथा मादा अंडे देती है। इन दोनों के संयोग से बच्चा पैदा होता है। परंतु निम्न श्रेणी के बहुत से प्राणी ऐसे भी होते हैं जिनमें नर और मादा में कोई प्रभेद नहीं होता और वे शुक्राणु अथवा अंडे नहीं देते। इनकी वृद्धि इनके सारे शरीर के द्विविभाजन (बाइनरी फिशन), या अंकुरण (बडिंग), या बीजाएण (स्पोर) निर्माण द्वारा होती है। इनसे कुछ अधिक उन्नत प्राणियों में दो ऐसे प्राणी थोड़े समय के लिए संयुक्त होते हैं और उसके पश्चात् पुन: विभाजन द्वारा वंश की वृद्धि करते हैं। इनसे भी अधिक उन्नत प्राणियों में देखा जाता है कि दो पृथक् प्राणी एक दूसरे से संपूर्ण रूप से संयुक्त हो जाते हैं और उनकी पृथक् सत्ता नहीं रह जाती। ऐसे संयोग के पश्चात् फिर विभाजन तथा खंडन द्वारा वंश की वृद्धि होती है। ऐसे प्राणी एककोशिन (प्रोटोज़ोआ) श्रेणी के हैं जिनका सारा शरीर केवल एक ही कोश (सेल) का बना होता है। पर इनमें कुछ ऐसे भी होते हैं जो उच्च श्रेणी के प्राणियों की भाँति शुक्राणु तथा अंड़ों का आकार ग्रहण कर लेते हैं और इन दोनों के संयोग के पश्चात् पुन: खंडन तथा विभाजन क्रिया प्रचलित होती है। एककोशिकीय (प्रोटोज़ोआ) के शरीर की, एक ही कोश होने के कारण, वृद्धि में केवल कोश के आयतन में वृद्धि होती है। परंतु नैककोशिन (मेटाज़ोआ) प्राणियों में शरीर की वृद्धि क्रमशील होती है। इस प्रारंभिक वर्धनशील अवस्था में ये भ्रूण कहलाते हैं और पूर्णता प्राप्त करने के पूर्व उनमें बहुत परिवर्तन होता है। भ्रूण भी प्रारंभिक अवस्था में एक ही कोश का होता है, यद्यपि यह दो विभिन्न कोशों, शुक्राणु तथा अंडे, की संयुक्तावस्था है, जिसे युग्मज (ज़ाइगोट) कहते हैं। यह युग्मज क्रमश: भेदन (क्लीवेज) द्वारा बहुकोशी बनता है, परंतु एककोशिनों से इसकी भिझता इसी में है कि विभाजित कोश पूथक् नहीं हो जाते।
इन नए कोशों की प्रगति ओर निरूपण दो भिझ पद्धतियों पर होते हैं। कुछ प्राणियों में इन नए कोशों का भविष्य बहुत ही प्रारंभिक काल में निर्धारित हो जाता है, जिससे यह निश्चित हो जाता है कि वे किन किन अंगों की सृष्टि करेंगे। इस पद्धति को विशेषित विभिन्नता अथवा कुट्टिमचित्र (मोज़ेइक) विकास कहते हैं। ऐसे एक विभाजनशील अंडे को दो समान भागों में विभक्त करने पर प्रत्येक खंड उस प्राणी की केवल अर्धांग ही बना सकता है। दूसरी पद्धति में अंगों का निर्धारण प्रथमवस्था में नहीं होता और ऐसे अंडों का दो भागों में विभाजन करने से यद्यपि वे आयतन में छोटे हो जाते हैं, तथपि प्रत्येक भाग संपूर्ण प्राणी को बनाता है। ऐसी विभाजन प्रणाली को अनिश्यित (इंडिटर्मिनेट) अथवा विनियामक (रेगुलेटिव) भेदन कहते हैं। परंतु कुछ अवधि के पश्चात् इनमें भी कोशों का भविष्य प्रथम पद्धति की भाँति निर्धारित हो जाता है और उस समय अंडों का विभाजन करने पर प्राणी पूर्णांग नहीं बनता।
साधारणतया अंडों के अंदर खाद्यपदार्थ पीतक (योक) के रूप में संचित रहता है। वर्धनशील भ्रूण की पुष्टि पीतक से होती रहती है। अंडे के भीतर पीतक का वितरण मुख्यत: तीन प्रकार का होता है। प्रथम में पीतक की मात्रा बहुत कम होती है ओर वह सारे अंडे में समान रूप से विस्तृत रहता है। ऐसे अंडे को अपीती (ऐलेसिथैल, आइसो-लेसिथैल अथवा होमोलेसिथैल) कहते हैं। दूसरे प्रकार में पीतक की मात्रा बहुत अधिक होती है ओर वह अंडे के निम्नभाग में एकत्र रहता है। ऐसे अंडे को एकत:पीती (टेलोलेसिथेल) कहते हैं। तीसरे प्रकार में पीतक अंडे के मध्य भाग में स्थित रहता है। ऐसे अंडे को केंद्रपाती (सेंट्रोलेसिथैल) कहते हैं।
पीतक की मात्रा तथा उसकी स्थिति के अनुसार अंडे का विभाजन भिन्न--भिन्न प्रकार का होता है। पीतक विभाजन क्रिया में बाधक होता है। अपीती अंडे संपूर्ण रूप से विभजित होते हैं। ऐसी विभाजन प्रणाली को पूर्णभेदन (होलोब्लैस्टिक क्लीवेज) कहते हैं। परंतु एकत: पीती अंडों में पीतक के नीचे की ओर एकत्र होने के कारण अंडे का ऊपरी भाग शुद्ध तथा सक्रिय रहता है और विभाजन क्रिया केवल ऊपरी भाग में आबद्ध रहती है। नीचे का भाग प्रारंभिक काल में विभाजित नहीं होता। ऐसी आंशिक विभाजन प्रणाली को अपूर्ण भेदन (मेरोब्लैस्टिक अथवा डिस्कॉयडल क्लीवेज) कहते हैं। जहाँ पीतक अंडे के केंद्रस्थल में रहता है वहाँ विभाजन क्रिया केवल परिधि पर आवद्ध रहती है। ऐसी विभाजन प्रणाली को उपरिष्ठभेदन (सुपरफ़िशियल क्लीवेज) कहते हैं। अधिकतर अंडों में सक्रिय ऊपरी भाग और अपेक्षाकृत निष्क्रिय निम्न भाग पहले से ही प्रत्यक्ष हो जाता है- ऊपरी भाग को प्राणि ध्रुव (ऐनिमल पोल) कहते हैं और नीचे के भाग को वेजिटेटिव अथवा वेजिटल पोल कहते हैं।
अंडों का विभाजन विभिन्न प्रकार की सममितियों के अनुसार विभिझ होता है। द्विपार्श्व सममिति में प्रथम विभाजन रेखा खरबूजे की धारी की तरह (मेरिडोनियल) होती है, जिसके फलस्वरूप दो कोश बनते हैं। इन्हीं दोनों कोशों से शरीर के दक्षिण और वाम पार्श्व की सृष्टि होती हैं। दोनों पार्श्वो में समान रूप से विभाजन होता रहता है। त्रिज्य सममिति की विशेषता यह है कि विभाजन रेखाएँ सदा एक दूसरे को ऊर्ध्वाधर रेखाओं द्वारा काटती हैं और अक्ष के चारों ओर समान रूप से कोशों की वृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त एक तीसरी रीति भी होती है जिसमें विभाजन रेखा वक्र होती है और क्रम से एक बार दाहिनी ओर को और दूसरी बार बाईं ओर को झुकी रहती है। ऐसी प्रणाली को कुंतल भेदन (स्पाइरल क्लीवेज) कहते हैं, पर इनका अंतिम परिणाम द्विपार्श्व सममिति होती है। द्वयर सममिति में प्रथम विभाजन द्विपार्श्व होता है, पर इसके पश्चात् दोनों पार्श्वो में त्रिज्य सममिति की प्रथा प्रचलित होती है।
विभाजन क्रिया तीव्र गति से होती है--कोशों की संख्या बढ़ती जाती है, पर आयतन में वे छोटे होते जाते हैं। अंत में बहुकोशवाला एक गोलाकार भ्रूण बनता है जिसको एकभित्तिका (ब्लैस्चुला) कहा जाता है। नए कोश सब इस गोले की परिधि पर होते हैं और बीच में लसिका (लिंफ) से भरा एक विवर रहता है। इस विवर को एकभिक्तिका गुहा (ब्लैस्टोसील) कहते हैं।
ऐसी खोखली एकभिक्तिका को गुहीय एकभिक्तिका (सीलोब्लैस्चुला) कहते हैं। इसकी बाहरी दीवार में केवल एक ही कोश की गहराई होती है। एकत: पीती अंडों में नीचे की ओर पीतक के संचय के कारण एकभिक्तिका गुहा ऊपर की ओर बनती है। विभाजन केवल अंडे के ऊपर ही, जहाँ पीतक की मात्रा अत्यधिक होती है। आबद्ध रहता है और एकभिक्तिका गुहा बहुत ही संक्षिप्त रूप में बनती है। इस प्रकार की एकभिक्तिका को बिंबकाभिक्तिका (डिस्कोब्लैस्चुला) कहते हैं। जिन अंडों में पीतक मध्यस्थल में रहता है उनमें विभाजन केवल परिधि में होता है। ऐसी एकभिक्तिका को पर्यैकभिक्तिका (पेरिब्लैस्चुला अथवा सुपरफिशियल ब्लैस्चुला) कहते हैं। कुछ प्राणियों में एकभिक्तिका ठोस होती है और गोलाई के भीतर भी कोश भरे रहते हैं। ऐसी स्थिति में एकभिक्तिका को सांद्रैकभिक्तिका भित्तिका (स्टिरिओब्लैस्चुआ) अथ्वा तूत (मोरूला) कहते हैं।
छिद्रिष्ठों (स्पंजाऐं) में एकभिक्तिका अवस्था में मुखद्वार बनता है, इस कारण ऐसी एकभिक्तिका को मुखैकभिक्तिका (स्टोमोब्लैस्चुला) कहते हैं। अन्य श्रेणी के प्राणियों में ऐसा नहीं होता।
जब तक एक पर्तवाली एकभिक्तिका क्रमश: दो पर्तवाली बनती है तब तक भ्रूण को स्यूतिभ्रूण कहते हैं। दूसरी पर्त कई विभिझ पद्धतियों से बनती है। सबसे सरल प्रणाली अपीती अंडों में होती है। इसमें एकभिक्तिका का निम्न भाग, वर्ध्ध्रीाव, क्रमश: एकभिक्तिका गुहा के अंदर प्रवेश करता है। और अंत में भीतरी पर्त बाहरी पर्त से मिल जाती है। एकभिक्तिका गुहा का अस्तित्व नहीं रह जाता और उसके स्थान में एक दूसरा विवर बनता है जो अब दो पर्तो से ढका रहता है। इस विवर में नीचे की ओर एक छिद्र होने के कारण यह खुला रहता है। इस छिद्र को आद्यंत्रमुख (ब्लैस्टोपोर) कहते हैं। स्यूतिभ्रूण बनने की इस प्रणाली को अंतर्गमन (इनवैजिनेशन) अथवा एंबोली की प्रथा कहते हैं। बाहरी पर्त को बहि:स्तर (एक्टोडर्म अथवा एपिब्लास्ट) और भीतरी पर्त को अंत:स्तर (एंडोडर्म अथवा हाइपोब्लास्ट) कहते हैं। अंत:स्तर से इन प्राणियों की पाचकनाल (ऐलिमेंटरी कैनाल) तथा उससे उत्पन्न सभी अंगों का विकास होता है। इस कारण अंत:स्तर से वेष्टित विवर को आद्यंत्र (आरकेंटरॉन) कहते हैं। अधिकतर अपृष्ठवंशी प्राणियों में आद्यंत्रमुख उनके अग्रभाग का निर्देशक होता है और उससे या उसके निकट उनका मुखद्वार बनता है। ऐसे प्राणियों को आद्यमुखी (प्रोटोस्टोमियन) कहते हैं। इसके विपरीत सभी पृष्टवंशी (वर्टिब्रेट्स) और कुछ अपृष्टवंशी प्राणियों में आद्यंत्रमुख प्राणी के पश्चाद्भाग का निर्देशक होता है जहाँ मलद्वार बनता है। ऐसे विपरीतपंथी प्राणियों को द्वितीयमुखी (डयूटेरो-स्टोमियन) कहते हैं।
जिन अंडों में पीतक अधिक मात्रा में रहता है और एकभिक्तिका गुहा बहुत संक्षिप्त होती है, उनमें ऊपर के कोश तीव्र गति से विभाजित होते रहते है और क्रमश: बढ़ते हुए नीचे के पीतक से भरे स्थान के ऊपर प्रसारित होते हैं। इस तरह नीचे की ओर दो पर्ते बनती हैं। इस प्रणाली को अद्यावृद्धि (एपिबोली) कहते हैं। बिंबैकभिक्तिका में पीतक अत्यधिक होने के कारण नए कोश केवल ऊपरी भाग में बनते हैं और उनमें से कुछ कोश अलग होकर पहली पर्त के नीचे आ जाते हैं। ऐसी प्रणाली को पृथक्स्तरण (डिलैमिनेशन) कहते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ प्राणियों में ऊपरी पर्त प्रसारित न होकर भीतर की ओर मुड़ जाती है और संक्षिप्त एकभिक्तिका गुहा के नीचे दूसरी पर्त बनाती है। इस प्रथा को अंतर्वलन (इनवोल्यूशन) कहते हैं।
बहुकोशविशिष्ट निम्न श्रेणी के प्राणियों में, जैसे छिद्रिण (पोरिफ़ेरा), आंतरगुही (सिलेंटरेटा) ओर कंकतिवर्ग (टिनाफ़ोरा) में केवल दो ही पर्त बनते हैं। इस कारण इनको द्विस्तरिप्राणी (डिप्लोब्लास्टिक) कहते हैं। इन्हीं दो पर्तो से इनका सारा शरीर और उसके विभिन्न अंग बनते हैं। इनमें विशेषता यह होती है कि शरीर का बाहरी आवरण तथा भीतरी पाचक-नाल एक दूसरे के केवल एक कोशविहीन तंतु द्वारा संलग्न रहते हैं जिसे मध्यश्लेष (मेसोग्लीका) कहते हैं। इन तीन श्रेणी के प्राणियों के अतिरिक्त बहुकोशविशिष्ट सभी प्राणियों में एक तीसरा पर्त बनता है जो बहि:स्तर (एपिब्लास्ट) तथा अध:स्तर (हाइपोब्लास्ट) के बीच में स्थित रहता है। इसको मध्यस्तर (मेसोडर्म अथवा मेसोब्लास्ट) कहते हैं, एवं ऐसे प्राणियों को त्रिस्तरी (ट्रिप्लोब्लैस्टिक) कहते हैं। इस मध्यस्तर का प्रवर्तन या तो बहि:स्तर तथा अंत:स्तर दोनों संस्थाओं से होता है, अथवा केवल अंत:स्तर से होता है। प्रथम अवस्था में इस मध्यस्तर को बहिर्मध्यस्तर (एक्टोमेसोडर्म) और द्वितीय अवस्था में अंतर्मध्यस्तर (एंडोमेसोडर्म) कहते हैं। ऐसा द्विजातीय मध्यस्तर केवल आद्यमुखी श्रेणी के प्राणियों में होता है। द्वितीयमुखी प्राणियों में केवल अंत:मध्यस्तर होता है। अपृष्ठवंशी प्राणियों में केवल शरकृमिवर्ग (किटोग्नाथा) और शलयचर्म (इकाइनोडर्म) द्वितीयमुखी होते हैं और शेष सब आद्यमुखी होते हैं। त्रिस्तरी प्राणियों की विशेषता यह है कि मध्यस्तर से बाहरी आवरण और पाचकनाल के बीच एक लसिका से भरा विवर बनता है, जिसको देहगुहा (सिलोम अथवा बाडी कैबिटी) कहते हैं। इस देहगुहा की बाहरी और भीतरी दीवारें मध्यस्तर की पर्तों से ही ढकी होती हैं। इसके अतिरिक्त मध्यस्तर से मांसपेशी (मसल), अस्थि, रक्त, प्रजननतंत्र तथा उत्सर्गी अंग बनते हैं।
कुछ त्रिस्तरी जीव ऐसे भी हैं जिनमें देहगुहा नहीं रहती और उसके स्थान पर एक विशेष तंतु भरा रहता है जिसे मूलोति (पारेंकिमा) कहते हैं। इस कारण त्रिस्तरी को फिर दो भागों में बाँटा जाता है---एक तो सदेहगुहा (सीलोमाटा), जिनमें देहगुहा वर्तमान रहती है और दूसरी अदेहगुहा, जिनमें देहगुहा की जगह केवल मूलोति रहता है।
मध्यस्तर की एक और विशेषता होती है जिसके कारण अधिकतर त्रिस्तरी जीवों में शरीर का बहुखंडों में विभाजन होता है, अथवा केवल भीतर के अंगों में ही देखा जाता है।
आद्यमुखी और द्वितीयमुखी में देहगुहा का प्रवर्तन भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है। आद्यमुखी में बहिर्मध्यस्तर से भ्रूण को मांसपेशी तथा योजी ऊती (कनेक्टिव टिशूज) बनते हैं। अंतर्मध्यस्तर के कोश भ्रूण के पीछे की ओर रहते हैं। इन कोशों से शरीर के अंदर प्रथमत: कोशों का एक ठोस समूह होता है जो बाद में दो पर्तो में विभाजित हो जाता है। बीच का विवर देहगुहा बनता है। इस प्रकार से बनी देहगुहा को विपाहगुहा (स्किजाएसील) कहते हैं। द्वितीयमुखी में अंतर्मध्यस्तर पहले से ही आद्यंत्र (आरकेंटरॉन) की ऊपरी दीवार के दोनों पार्श्वों में संनिहित रहता है। क्रमश: यह आद्यंत्र से अलग होकर देहगुहा का विवर बनता है। इस प्रकार से बनी देहगुहा को आंत्रगुहा (एंटरोसील) कहते हैं।
भिन्न-भिन्न अंगों का विकास क्रमश: बहिस्तर, अंतस्तर तथा मध्यस्तर तीनों पर्तों से होता है। भ्रूणावस्था में यद्यपि अंगों का विकास होता है, तथापि ये क्रियाशील नहीं होते। संचित पीतक की अधिकता अथवा पुष्टि का अन्य प्रबंध रहने पर भ्रूण वर्धित अवस्था में जन्म लेता है और अपना जीवननिर्वाह स्वाधीन रूप से कर सकता है। परंतु पीतक की मात्रा कम होने पर बहुधा भ्रूण अल्पविकसित अवस्था में ही जन्म लेकर स्वावलंबी हो जाता है। इस समय इसका शरीर पूर्ण विकसित अवस्था में भिझ रूप का होता है जिसे डिंभ (लार्वा) कहते हैं। डिंभ दो प्रकार से पूर्णता प्राप्त करते हैं। एक में तो वे क्रमश: बढ़ते हुए पूर्ण रूप ग्रहण करते हैं। दूसरी प्रथा में डिंभ कुछ अवधि के पश्चात् प्राय: स्थिर या निष्क्रिय हो जाते हैं, अथवा आहार बंद कर देते हैं। इस अंतरिम काल में वे शंखी (प्यूपा) कहलाते हैं और इनके शरीर के भीतर द्रुत गति से परिवर्तन होता है, जिसके पश्चात् वे प्रौढ़ रूप के हो जाते हैं। ऐसे द्रुत परिवर्तन को रूपांतरण (मेटॉमॉफॉसिस) अथवा अप्रत्यक्ष विकास (इंडिरेक्ट डेवेलपमेंट) कहते हैं।
जल में अंडा देनेवाले सभी जीवों के शरीर पर, एकभित्तिका (ब्लैस्चुला) और स्यूतिभ्रूण (गैस्ट्रूला) अवस्था में जीवद्रव्य (प्रोटोप्लाज्म) की बनी बाल की तरह रोमिकाएँ (सिलिया) होती हैं, जिनके द्वारा वे जल में प्रगति करते हैं।
छिद्रिण (पॉरिफ़ेरा) प्राणियों का मुखद्वार एकभित्तिका अवस्था में बनता है। इनके एकभित्तिका के अग्रभाग के भीतर जीवद्रव्य की बनी कक्षाएँ फ़्लैलेजाए--चाबुक जैसे अंग जाए जीव को तैरकर चलने में सहायता देते हैं) होती हैं। स्यूतिभ्रूण बनने के समय यह भाग उलटकर मुखद्वार से बाहर हो जाता है। इसके पश्चात् एकभित्तिका अग्रभाग द्वारा किसी वस्तु से संलग्न हो जाती है। उस समय विपरीत अंश के कोश बढ़ते हुए अग्रभाग के ऊपर प्रसारित होकर दो पर्तें बनाते हैं जिनको द्विधाभित्ति (ऐंफिब्लैस्चुला) कहते हैं। द्विधाभित्ति क्रमश: पूर्ण रूप जारण कर लेती है।
आंतरगुहियों (सिलेंटरेटा) में एकभित्तिका की दीवार से कोश अलग होकर एकभित्तिका गुहा के भीतर भर जाते हैं। एकभित्तिका अब ठोस रूप धारण करती है। इस स्थिति में इनको चिपिटक (प्लैनुला) डिंभ कहते हैं। भीतर के कोश से क्रमश: दूसरी पर्त बनती है और उसके बीच विवर बनता है। श्रेणियों की विभझता के अनुसार इनमें कई प्रकार के डिंभ होते हैं। जलीयकवर्ग (हाइड्रोजाएआ) में डिंभ एक छोटे बेलन की तरह होता है जिसके मुख को वेष्टित करते हुए उँगलियों की तरह कई अंग होते हैं जिनको स्पर्शिका (टेंटेकल्स) कहते हैं। इस रूप के डिंभ को पुरूपाद (पॉलीपैड) डिंभ कहते हैं। यह डिंभ क्रमश: पूर्ण रूप ग्रहण करता है। छत्रिक वर्ग (सिफ़ोज़ोआ) में भी पुरूपाद डिंभ बनाती हैं, जिसको हाइड्रोट्यूबा अथवा चषमुख (सिफ़िस्टोमा) कहते हैं।
पर यह डिंभ पुन: खंडित होकर षोडशार (एफ़िरा) नामक डिंभ बनाता है जिससे पूर्ण रूप छत्रिक बनता है। पुष्पजीववर्ग (ऐंथोजाएआ) की श्रेणी में भी पुरूपाद डिंभ बनता है। परूपाद डिंभ और चषमुख दोनों प्रारंभिक अवस्था में रश्मिका (ऐक्टिनुला) कहलाते हैं।
पृथुकृमि (प्लैटिहेल्मेंथीज, फ्लैवर्म्स) सर्वप्रथम त्रिस्तरी प्राणी हैं। इनमें पहले देहगुहा एकभित्तिका (सीलोब्लैस्टुला) बनती है। इस श्रेणी में विद्धत्र (ट्रेमाटोडा) और अनांत्र (सेस्टोडा---बिना आँतवाले कीड़े) के पराश्रयी होने के कारण, इनका जीवन इतिहास परिवर्तनों से भरा होता है। परंतु पर्णचिपिट वर्ग (टर्बेलेरिआ) स्वाधीन जीव हैं, इस कारण इनके जीवन में विशेष परिवर्तन नहीं होते। स्यूतिभ्रूण बनने के बाद इनके डिंभ के शरीर से आठ उभड़े हुए रोमिकायुक्त पिंडक (सिलिएटेउ लोब्स) बनते हैं। इस डिंभ को मुलर का डिंभ कहते हैं।
विखंडकृमि (नेमेरटिमि) श्रेणी के प्राणियों के डिंभ टोपी की आकृति के होने के कारण उन्हें टोपीडिंभ (पिलिडियम) कहते हैं। इनमें विशेषता यह है कि डिंभ में मलद्वार का आरंभ यहाँ होता है। टोपीडिंभ का आकार वलयिन (ऐनेलिडा) श्रेणी के पक्षवलय डिंभ (ट्रोपीडिंभ लार्वा) से मिलता है। अधिक उननतिशील प्राणियों का विकास यहाँ से होता है।
वलयिन (ऐनेलिडा) श्रेणी के जीवों में डिंभ मुख्यत: पक्ष्मवलय होता है। इसकी विशेषता यह है कि मुखद्वारा के आगे सारे शरीर को वेष्टित करती हुई एक रोमिकायुक्त पट्टी होती है जिसको पूर्वपक्ष्मवलय (प्रोटोट्रॉक) कहते हैं। यह रोमिकायुक्त पट्टी कुद प्राणियों में एक से अधिक भी होती है।
चूर्णप्रावार (मोलस्का) श्रेणी के प्राणियों में डिंभ साधारणत: पक्ष्मवलय के आकर का होता है। परंतु क्रमश: इसके आकर में परिवर्तन होता है और इसके पश्चात् वह पटिकाडिंभ (वीलिजर) कहलाता है। इसमें विशेषता यह होती है कि पूर्वपक्ष्मवलय वर्धित होकर दो अथवा दो से अधिक ऐसे पिंडक बनाते हैं जो रोमिकायुक्त होते हैं। इन पिंडकों को पटिका (वीलम) और डिंभ को पिटकाडिंभ कहते हैं। इसके अतिरिक्त पटिकाडिंभ के पृष्ठ पर प्रकवच (शेल) बनता है और मुखद्वार के पीछे इन जीवों का पैर बनता है। पटिका प्रगति का अंग है।
चूर्णप्रावार श्रेणी के मुक्तिकावंश (यूनियनिडी फ़ैमिली) में डिंभ पराश्रयी होता है। इस कारण इसके शरीर का गठन भिन्न रूप का होता है। ये डिंभ मछलियों की त्वचा तथा जलश्वसनकाओं (गिल्स) में चिपक जाते हैं और पूर्णता प्राप्त करने के पश्चात् स्वावलंबी हो जाते हैं। चिपकने के लिए इनमें लागांशू (बिसस थ्रोड्स) होते हैं और प्रकवच नुकीले होते हैं। डिंभ की अवस्था में इनमें पाचकनली नहीं होती। ये मछली के शरीर से अपना खाद्य रस के रूप में शोषित करते हैं। पूर्णता प्राप्त करने पर लागांशु नहीं रह जाते और प्रकवच का आकर भी बदल जाता है। इस डिंभ को लागांशुडिंभ (ग्लॉकिडियम) कहते हैं।
संधिपापों (आर्थ्रोपोडा) की श्रेणी को कई भागों में बाँटा गया है; यथा, (आनिकोफोरा), कठिनिवर्ग (क्रस्टेशिआ), अयुतपाद (मिरिआपोडा), कीट (इंसेक्टा) और अष्टपाद (ऐरैक्निडा)। इन सभी में अंडे केंद्रपीती होते हैं और विभाजन (भेदन) उपरिष्ठ होता है। इनमें अष्टपाद तथा नखरिण में बच्चे पूर्ण विकसित अवस्था में ही अंडे के बाहर आते हैं। भ्रूणावस्था का कोई विशेष महत्त्व नहीं होता।
कटिनिवर्ग (क्रस्टेशिया) में डिंभ कई प्रकार के होते हैं और इनके एक दूसरे के संबंध के बारे में बहुत मतभेद है। इनमें त्रयुपांग (नॉप्लिअस) डिंभ सबसे निम्न श्रेणी का माना जाता है। इसके शरीर में खंडन का कोई चिह्न नहीं होता। आँख सरल (सिंपुल) और केवल एक होती है। उपांग (अपेंडेजेज) केवल तीन जोड़े और द्विशाख (बाइरैमस---दो शाखाओं में विभाजित) होते हैं। उच्च श्रेणी के कटिनिवर्ग में यह अवस्था अंडे के अंदर ही व्यतीत होती है।
दो अन्य उपांग उत्पन्न होने पर त््रयूपांग क्रमश: उत्तरत््रयूपांग (मेटानॉप्लिअस) हो जाता है और तब इसके शरीर का खंडन आरंभ हो जाता है। आँख केवल एक ओर सरल होती है। उत्तर त्रयूपांग, जब दो और उपांग बनते हैं, प्रजीव (प्रोटोज़ोइआ) बन जाता है। इसका शरीर क्रमश: लंबा होता जाता है और आँखें दो हो जाती हैं, एक सरल रहती है। जब एक और उपांग बनता है तब प्रजीव जीवक (ज़ोइआ) हो जाता है। इसकी आँखें दो होती हैं, पर वे डंडियों पर स्थित रहती हैं और वृंताक्षि कहलाती हैं। इसके पश्चात् जीवक से चलदंडाक्ष प्रजाती (माइसिस) बनता है, जिसमें खंडन संपूर्ण हो जाता है। सभी खंडों में उपांग होते हैं पर विशेषता यह है कि इसके चलने के पैर द्विशाखी (बाइरैमस) होते हैं। पूर्णता प्राप्त करने पर पैर एकशाखी (यूनिरैमस) हो जाते हैं।
इनके अतिरिक्त कटिनिवर्ग में और कई प्रकार के डिंभ होते हैं, यथा पूर्णपुच्छक प्रजाती (साइप्रिस), इरिक्थस, ऐलिमा, काचकर्क प्रजाती (फ़िलोसोमा), महाक्ष (मेगालोपा), इत्यादि; परंतु इन सबमें केवल आकार का ही परिवर्तन होता है।
कीटों में भ्रूण अंडे के नीचे की ओर बनता है और उनमें उरगों, पक्षियों तथा स्तनजाएरियों की भाँति तरल द्रव्य से भरी एक थैली, जिसे उल्ब (एम्निओन) कहते हैं, भ्रूण को वेष्टित किए रहती है:
कीट तीन प्रकार के माने जाते हैं। प्रथम प्रकार में बच्चा अंडे के भीतर ही पूर्णता प्राप्त कर लेता है। ऐसे कीट को अरचनांतरी (ऐमेटाबोला) कहते हैं। दूसरे प्रकार में बच्चा यद्यपि छोटा होता है, तथापि उसका रूप प्रौढ़ावस्था का होता है। केवल पंख और जननेंद्रिय क्रमश: बनते हैं। ऐसे कीट को अपूर्णरचनांतरी (हेटेरोमेटाबोला) और उसके बच्चों को कीटशिशु (निफ) कहते हैं। तीसरे प्रकार में बच्चा प्रथम अवस्था में एक ढोले के आकार का होता है, जो प्रौढ़ावस्था से पूर्णतया भिन्न होता है। ये रूपांतरण (मेटाफ़ार्मोसिस) के पश्चात् पूर्ण रूप जारण करते हैं। इनका पूर्णरचनांतरी (होलोमेटाबोला) कहते हैं।
अयुतपाद (मीरिआपोडा) में भी बच्चा प्राय: पूर्ण रूप का होता है, पर प्रथम अवस्था में कीटों की तरह इसके भी केवल तीन पैर होते हैं।
आद्यमुखी (प्रोटोस्टोमिअन) का भ्रूणतत्व यहीं समाप्त होता है। अपृष्ठवंशी प्राणियों में केवल शरकृमिवर्ग (किटोग्नाथा) और शल्यचर्म (एकिनोडर्माटा) द्वितीयमुखी होते हैं। शरकृमिवर्ग कुछ विषयों में द्वितीयमुखी से भिन्न होते हैं। इनमें मुखद्वार आद्यंत्रमुखी (ब्लैस्टोपोर) से ही बनता है, पर बहिर्मध्यस्तर नहीं होता और देहगुहा आंत्रगुही होती है।
शल्यचर्मवर्ग में द्वितीयमुखियों की सभी विशेषताएँ पाई जाती हैं। मलद्वार आद्यंत्रमुख से अथवा उसके निकट बनता है। मुखद्वार विपरीत दिशा में अलग से बनता है। इसके डिंभ चार मुख्य प्रकार के होते हैं; यथा, लघुवर्ध (आरिकुलेरिया), अभितोवर्ध (बिपिझेरिआ), प्लवडिंभ (प्लूटिअस), अहिप्लवडिंभ (ओफ़िप्लूटिअस) एवं पंचकोण वृताभ (पेंटाक्रिनॉयड)। इनमें पंचकोण वृंताभडिंभ पूर्णावस्था से बहुत मिलता है, केवल इसमें धरातल से संलग्न रहने के लिए एक डंडी रहती है, जो पूर्णावस्था में नहीं रह जाती।
अन्य सभी डिंभों में दो रोमिका पट्टियाँ होती हैं, पर प्रत्येक डिंभ में ये भिन्न रूप धारण करती हैं। एक रोमिका पट्टी मुखद्वार को चतुर्दिक् घेरे रहती है जिसे अभिमुख (ऐडोरल) रोमिका-पट्टी कहते हैं और दूसरी उसके बाहर शरीर को घेरे रहती है जिसे परिमुख (पेरिओरल) रोमिका-पट्टी कहते हैं।