सूर्यसिद्धान्त

राजन
(सूर्यसिद्धांत से अनुप्रेषित)

सूर्यसिद्धान्त भारतीय खगोलशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसका अनुमानित रचनाकाल चतुर्थ या पंचम शताब्दी ई० है।[1][2][3][4][5] वर्तमान समय में जो सूर्यसिद्धान्त उपलब्ध है, वह १५वीं शताब्दी में ताड़पत्र पर लिखित पाण्डुलिपि तथा उससे भी नयी पाण्डुलिपियों पर आधारित ग्रन्थ है जिसमें १४ अध्याय हैं।[6] इसमें ग्रहों एवं चन्द्रमा की गति की गणना की विधि, विभिन्न ग्रहों के ब्यास, तथा विभिन्न खगोलीय पिण्डों कक्षा (ऑर्बिट) की गणना करने की विधियाँ दी गयीं हैं।[7][8]

सूर्यसिद्धान्त के प्रथम श्लोक्क में रचनाकार ने ब्रह्म को नमस्कार करते हुए उसे अचिन्त्य, अव्यक्तरूप, निर्गुण, गुणात्मन, और समस्त जगत का आधार बताया है।

सूर्यसिद्धान्त के प्रथम अध्याय के प्रारम्भ में श्लोक-१ से लेकर श्लोक-१० तक आख्यान शैली में काल के आधारभूत सूर्य का महत्त्व बताते हुए सूर्य को प्रत्यक्ष देवता कहा गया है (यानी वह देवता जो हमें प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं)। कथा कुछ यों है- मय ने सूर्य की आराधना की । उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर सूर्यदेव ने उसे कालगणना का विद्वान होने का वरदान दिया था। मय उनसे कोई शक्ति प्राप्त नहीं करना चाहता था, वह केवल उनसे कालगणना और ज्योतिष के रहस्यों का जानना चाहता था । उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर सूर्य ने उसकी इच्छा पूरी की। लेकिन सूर्य कहीं ठहर नहीं सकते, सो उन्होंने अपने शरीर से एक और पुरुष की उत्पत्ति की और उसे आदेश दिया कि वो मय दानव को कालगणना और ज्योतिष के सारे रहस्यों को समझाए । सूर्य के प्रतिरूप से मिली शिक्षा के बाद मय दानव ने स्वयं भी ज्योतिष और वास्तु के कई सिद्धांत दिए जो आज भी प्रामाणिक हैं। सूर्य के प्रतिपुरुष और मयासुर के बीच की बातचीत को ही सूर्यसिद्धान्त का नाम दिया गया।

अल बेरुनी ने लिखा है कि सूर्यसिद्धान्त नामक ग्रन्थ की रचना लटदेव ने की थी जो आर्यभट के शिष्य थे।[6][9]

वर्ण्य विषय

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सूर्य सिद्धान्त में खगोलीय समय चक्रों का विस्तृत वर्णन है।

सूर्यसिद्धान्त १४ अध्यायों में विभक्त है।

अध्याय अध्याय का नाम वर्णित विषय
मध्यमाधिकारः ग्रहों की चाल
स्पष्टाधिकारः ग्रहों की स्थिति
त्रिप्रश्नाधिकारः दिशा, स्थान और समय
चन्द्रग्रहणाधिकारः चंद्रमा और ग्रहण
सूर्यग्रहणाधिकारः सूर्य और ग्रहण
छेद्यकाधिकारः ग्रहणों का पूर्व अनुमान/ आकलन
ग्रहयुत्यधिकारः ग्रहीय संयोग
भग्रहयुत्यधिकारः तारों के बारे में
उदयास्ताधिकारः उनका उदय और अस्त
१० चन्द्रशृंगोन्नत्यधिकारः चंद्रमा का उदय और अस्त
११ पाताधिकारः सूर्य और चंद्रमा के एकई अहितकर पक्ष
१२ भूगोलाध्यायः विश्वोत्पत्ति/ब्रह्माण्ड सृजन, भूगोल और सृजन के आयाम
१३ ज्यौतिषोपनिषदध्यायः सूर्य घड़ी का दण्ड
१४ मानाध्यायः लोकों की गति और मानवीय क्रिया-कलाप

सौर घड़ी द्वारा समय मापन के शुद्ध तरीके अध्याय 3 और 13 में वर्णित हैं।

खगोलशास्त्र

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ग्रहों की चाल

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भगण

- 12 राशियो का एक भगण होता है ।

- 60 विकला की एक कला ।

- 60 कला का - 1 अंश ।

- 30 अंश को - 1 राशी ।

- शीघ्र्‍ गति वाले ग्रह अल्पकाल मे तथा मंद गतिवाले अधिक काल मे 27 नक्षत्र का भोग करते है ।

- अश्विनी नक्षत्र सें भ्रमण करते हुये रेवती नक्षत्र तक ग्रहो का भगण पुरा होता है ।

- पुर्वाभिमुख गमन करने वाले सुर्य-बुध और शुक्र और मंगल शनि और गुरू की भगण संख्या 4320000 होती है ।

- एक महायुग मे चंद्रमा कि भगण संख्या – 57753336,

- एक महायुग मे मंगल कि भगण संख्या – 2296832,

- एक महायुग मे बुध कि भगण संख्या – 17937060,

- एक महायुग मे गुरु की भगण संख्या – 364220

- एक महायुग मे शुक्र की भगण संख्या – 7022376

- एक महायुग मे शनि की भगण संख्या – 146568

- चंद्र की भगण संख्या – 488203

- राहु-केतु की विपरीत गति से भगणों कि – 232236 संख्या होती है ।

- एक महायुग मे नक्षत्रो की भगण संख्या – 1582237828 होती है ।

- नाक्षत्र भगण मे से ग्रहो के अपने अपने भगण घटाने पर शेष ग्रहों के सावन दिन होते है

- एक महायुग मे सुर्य और चंद्रमा के भगणों के अंतर के समान चांद्रमास होते है ।

- युग चांद्रमास से युग सुर्य मास घटाने पर अधिमास मिलता है ।

- एक महायुग में 1577917828 सावन दिन होते है ।

- 1603000080 तिथियाँ होती है ।

- 1593336 आधिमास होते है ।

- 25082252 क्षय दिन होते है ।

- 51840000 सौर मास होते है ।

नक्षत्र भगण से सौर भगण घटाने पर सावन होता है ।

समय-मापन एवं इकाइयाँ

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इस ग्रंथ में वर्णित काल-मापन की इकाइयाँ आश्चर्यजनक एवं विलक्षण रूप से विशुद्ध हैं। हिन्दू ब्रह्माण्डीय कालगणना सूर्य सिद्धांत के पहले अध्याय के श्लोक 11–23 में आते हैं।[10]:

(श्लोक 11) - वह जो कि श्वास से आरम्भ होता है, यथार्थ कहलाता है; और वह जो त्रुटि से आरम्भ होता है, अवास्तविक कहलाता है। छः श्वास से एक विनाड़ी बनती है। साठ श्वासों से एक नाड़ी बनती है।

(श्लोक 12) - और साठ नाड़ियों से एक दिवस (दिन और रात्रि) बनते हैं। तीस दिवसों से एक मास (महीना) बनता है। एक नागरिक (सावन) मास सूर्योदयों की संख्याओं के बराबर होता है।

(श्लोक 13) - एक चंद्र मास, उतनी चंद्र तिथियों से बनता है। एक सौर मास सूर्य के राशि में प्रवेश से निश्चित होता है। बारह मास एक वरष बनाते हैं। एक वरष को देवताओं का एक दिवस कहते हैं।

(श्लोक 14) - देवताओं और दैत्यों के दिन और रात्रि पारस्परिक उलटे होते हैं। उनके छः गुणा साठ देवताओं के (दिव्य) वर्ष होते हैं। ऐसे ही दैत्यों के भी होते हैं।

(श्लोक 15) - बारह सहस्र (हज़ार) दिव्य वर्षों को एक चतुर्युग कहते हैं। एक चतुर्युग तिरालीस लाख बीस हज़ार सौर वर्षों का होता है।

(श्लोक 16) - चतुर्युगी की उषा और संध्या काल होते हैं। कॄतयुग या सतयुग और अन्य युगों का अन्तर, जैसे मापा जाता है, वह इस प्रकार है, जो कि चरणों में होता है:

(श्लोक 17) - एक चतुर्युगी का दशांश को क्रमशः चार, तीन, दो और एक से गुणा करने पर कॄतयुग और अन्य युगों की अवधि मिलती है। इन सभी का छठा भाग इनकी उषा और संध्या होता है।

(श्लोक 18) - इकहत्तर चतुर्युगी एक मन्वन्तर या एक मनु की आयु होते हैं। इसके अन्त पर संध्या होती है, जिसकी अवधि एक सतयुग के बराबर होती है और यह प्रलय होती है।

(श्लोक 19) - एक कल्प में चौदह मन्वन्तर होते हैं, अपनी संध्याओं के साथ; प्रत्येक कल्प के आरम्भ में पंद्रहवीं संध्या/उषा होती है। यह भी सतयुग के बराबर ही होती है।

(श्लोक 20) - एक कल्प में, एक हज़ार चतुर्युगी होते हैं और फ़िर एक प्रलय होती है। यह ब्रह्मा का एक दिन होता है। इसके बाद इतनी ही लम्बी रात्रि भी होती है।

(श्लोक 21) - इस दिन और रात्रि के आकलन से उनकी आयु एक सौ वर्ष होती है; उनकी आधी आयु निकल चुकी है और शेष में से यह प्रथम कल्प है।

(श्लोक 22) - इस कल्प में, छः मनु अपनी संध्याओं समेत निकल चुके, अब सातवें मनु (वैवस्वत: विवस्वान (सूर्य) के पुत्र) का सत्तैसवां चतुर्युगी बीत चुका है।

(श्लोक 23) - वर्तमान में, अट्ठाईसवां चतुर्युगी का कॄतयुग बीत चुका है।........

इस खगोलीय समय चक्र का आकलन करने पर, निम्न परिणाम मिलते हैं
  • उष्णकटिबनधीय वर्ष की औसत लम्बाई है 365.2421756 दिवस, जो कि आधुनिक आकलन से केवल 1.4 सैकण्ड ही छोटी है। (J2000). यह उष्णकटिबन्धीय वर्ष का सर्वाधिक विशुद्ध आकलन रहा कम से कम अगली छः शताब्दियों तक, जब मुस्लिम गणितज्ञ उमर खय्याम ने एक बेहतर अनुमान दिया. फ़िर भी यहआकलन अभी भी विश्व में प्रचलित ग्रेगोरियन वर्ष के मापन से अति शुद्ध ही है, जो कि वर्शः की अवधि केवल 365.2425 दिवस ही बताता है, यथार्थ 365.2421756 दिवस के स्थान पर.
  • एक नाक्षत्रीय वर्ष की औसत अवधि, पृथ्वी के द्वारा, सूर्य की परिक्रमा में लगे समय अवधि 365.2563627 दिवस होती है, जो कि आधुनिक मान 365.25636305 दिवस (J2000) के एकदम बराबर ही है। यह नाक्षत्रीय वर्ष का सर्वाधिक परिशुद्ध कलन यहा सहस्रों वर्ष तक.

नाक्षत्रीय वर्ष का दिया गया यथार्थ मान, वैसे उतना शुद्ध नहीं है। इसका मान 365.258756 दिवस दिया गया है, जो कि आधुनिक मान से 3 मिनट और 27 सैकण्ड कम है। यह इसलिये है, क्योंकि लेखक, या सम्पादक ने बाद में किये गये कलनों में हिन्दू ब्रह्माण्डीय समय चह्र की गणना से थोड़ा भिन्न हो कर यहां गणना की है। उसने शायद समय चक्र के जटिल गणना के आकलन को सही समझा नहीं है। सम्पादक ने सूर्य की औसत गति और समान परिशुद्धता का प्रयोग किया है, जो कि हिन्दू ब्रह्माण्डीय समय चक्र के आकलन से निम्न स्तर का है।

पृथ्वी गोल है

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सर्वत्रैव महीगोले स्वस्थानम् उपरि स्थितम् ।
मन्यन्ते खे यतो गोलस् तस्य क्वोर्धवम् क्व वाधः ॥ (सूर्यसिद्धान्त १२.५३)

अनुवाद : (अनुवादक: स्कॉट एल मॉण्टगोमरी, आलोक कुमार) इस गोलाकार धरती पर लोग अपने स्थान को सबसे ऊपर मानते हैं। किन्तु यह गोला तो आकाश में स्थित है, उसका उर्ध्व (ऊपर) क्या और नीचे क्या?

ग्रहों के व्यास

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सूर्य सिद्धान्त में ग्रहों के व्यास की गणना भी की गयी है। बुध का व्यास ३००८ मील दिया गया है जो आधुनिक स्वीकृत मान (३०३२ मील्) से केवल १% कम है। इसके अलावा शनि, मंगल, शुक्र और बृहस्पति के व्यास की गणना भी की गयी है। शनि का व्यास ७३८८२ मील बताया गया है जो केवल १% अशुद्ध है। मंगल का व्यास ३७७२ मील बताया गया है जो लगभग ११% अशुद्ध है। शुक्र का व्यास ४०११ मील तथा बृहस्पति का व्यास ४१६२४ मील बताया गया है जो वर्तमान स्वीकृत मानों के लगभग आधे हैं।

त्रिकोणमिति

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सूर्यसिद्धान्त आधुनिक त्रिकोणमिति का मूल है। सूर्यसिद्धान्त में वर्णित ज्या और कोटिज्या फलनों से ही आधुनिक साइन (sine) और कोसाइन (cosine) नाम व्युत्पन्न हुए हैं ( जो भारत से अरब-जगत होते हुए यूरोप पहुँचे)। इतना ही नहीं, सूर्यसिद्धान्त के तृतीय अध्याय (त्रिप्रश्नाधिकारः) में ही सबसे पहले स्पर्शज्या (tangent) और व्युकोज्या (secant) का प्रयोग हुआ है। निम्नलिखित श्लोकों में शंकुक द्वारा निर्मित छाया का वर्णन करते हुए इनका उपयोग हुआ है-

शेषम् नताम्शाः सूर्यस्य तद्बाहुज्या च कोटिज्या।
शंकुमानांगुलाभ्यस्ते भुजत्रिज्ये यथाक्रमम् ॥ ३.२१ ॥
कोटिज्यया विभज्याप्ते छायाकर्णाव् अहर्दले।
क्रान्तिज्या विषुवत्कर्णगुणाप्ता शंकुजीवया ॥ ३.२२ ॥

Of [the sun's meridian zenith distance] find the jya ("base sine") and kojya (cosine or "perpendicular sine"). If then the jya and radius be multiplied respectively by the measure of the gnomon in digits, and divided by the kojya, the results are the shadow and hypotenuse at mid-day.

उपरोक्त सूत्र से, आधुनिक प्रतीकों का उपयोग करते हुए, दोपहर के समय शंकुक (gnomon) की छाया की लम्बाई यह होगी-

 

तथा, दोपहर के समय, शंकुक के विकर्ण (hypotenuse) की लम्बाई यह होगी-

 

जहाँ   शंकुक की लम्बाई (उंचाई) है,   शंकुक की त्रिज्या है,   शंकुक की छाया की लम्बैइ है, और   शंकुक का विकर्ण है।

कैलेण्डरीय प्रयोग

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१८७१-७२ ई का हिन्दू पञ्चाङ्ग

भारत के विभिन्न भागों में भारतीय सौर पंचांग तथा चन्द्र-सौर पंचांग प्रयुक्त होते हैं। इनके आधार पर ही विभिन्न त्यौहार, मेले, क्रियाकर्म होते हैं। भारत में प्रचलित आधुनिक सौर तथा चान्द्रसौर पंचांग, सूर्य के विभिन्न राशियों में प्रवेश के समय पर ही आधारित हैं।

परम्परागत पंचांगकार, आज भी सूर्यसिद्धान्त में निहित सूत्रों और समीकरणों का ही प्रयोग करके अपने पंचांग का निर्माण करते हैं। भारतीयों के धार्मिक एवं सामाजिक जीवन पर पंचांग का बहुत अधिक प्रभाव है तथा अधिकांश घरों में पंचांग रखने की प्रथा है।

पारदाराम्बुसूत्राणि शुल्वतैलजलानि च।
बीजानि पांसवस्तेषु प्रयोगास्तेऽपि दुर्लभाः ॥१३.२२ ॥
अर्थ : ताड़ियों (spokes) में पारद भरा हुआ, जल, धागा (सूत्र), रस्सी, तेल और जल आदि से ये यंत्र बनाये जाते हैं। इसके अलावा बीज और महीन रेत भी इन यंत्रों में प्रयुक्त होती हैं। ये यन्त्र दुर्लभ हैं।

भाष्य एवं टीका

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सूर्यसिद्धान्त की महत्ता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इसकी कम से कम २६ टीकाएँ उपलब्ध हैं। इसके अलावा ८ और टीकाएँ भी हैं जिनके लेखकों के नाम अज्ञात हैं।[11] नीचे प्रमुख टिकाओं के नाम दिये गये हैं। लगभग सभी टीकाओं में इस ग्रन्थ की सामग्री को पुनर्व्यवस्थित या परिवर्तित किया गया है[12]

  • सूर्यसिद्धान्तटीका (1178) (मल्लिकार्जुन सूरि)
  • सूर्यसिद्धान्त-भाष्य (1185) (चन्देश्वर नामक एक मैथिल ब्राह्मण)
  • वासनार्णव (1375–1400 ई०) ('महाराजाधिराज' मदनपाल)
  • सूर्यसिद्धान्त-विवरण (1432) ( केरल के परमेश्वर नम्बुदिरी)
  • कल्प-वल्ली (1472) (आन्ध्रदेश के यल्लय)
  • सुबोधिनी (1472) (रामकृष्ण अराध्य)
  • सूर्यसिद्धान्त-विवरण (1572) (काम्पिल्य के भूधर)
  • कामदोग्धृ (1599) (परगीपुरी के तम्म यज्वन)
  • गूढार्थ-प्रकाशक (1603) (काशी के रङ्गनाथ)
  • सौर-भाष्य (1611) (काशी के नृसिंह)
  • गहनार्थ-प्रकाश (1628) (काशी के विश्वनाथ)
  • सौर-वासना (1658 के पश्चात) (काशी के कमलाकर)
  • किरणावली (1719) (दादाभाई नामक एक चितपावन ब्राह्मण)
  • सूर्यसिद्धान्त-टीका (रचना-काल अज्ञात) (दक्षिण भारत के कामभट्ट)
  • गणकोपकारिणी (रचना-काल अज्ञात) (दक्षिण भारत के चोल विपश्चित)
  • गुरुकटाक्ष (रचना-काल अज्ञात) (दक्षिण भारत के भूति-विष्णु)

मल्लिकारुज सूरि ने संस्कृत में "सूर्य-सिद्धान्त-टीका" रचने के पहले सन ११७८ में तेलुगु में इसकी एक टीका लिखी थी। [12] कल्पाकृति सूरि ने सूर्यसिद्धान्त पर तेलुगु में एक दूसरा टिका-ग्रन्थ लिखा।[13]

अनुवाद एवं व्याख्या

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  1. Menso Folkerts, Craig G. Fraser, Jeremy John Gray, John L. Berggren, Wilbur R. Knorr (2017), Mathematics, Encyclopaedia Britannica, Quote: "(...) its Hindu inventors as discoverers of things more ingenious than those of the Greeks. Earlier, in the late 4th or early 5th century, the anonymous Hindu author of an astronomical handbook, the Surya Siddhanta, had tabulated the sine function (...)"
  2. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; Bowman2005p596 नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  3. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; burgess नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  4. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; Markanday551–561 नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  5. Plofker, pp. 71–72.
  6. Thompson, Richard L. (2007). The Cosmology of the Bhāgavata Purāṇa: Mysteries of the Sacred Universe (अंग्रेज़ी में). Motilal Banarsidass. पपृ॰ 15–18. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-208-1919-1.
  7. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; Thompson2007p76 नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  8. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; montgomery104 नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  9. Hockey, Thomas (2014). "Latadeva". प्रकाशित Hockey, Thomas; Trimble, Virginia; Williams, Thomas R.; Bracher, Katherine; Jarrell, Richard A.; Marché, Jordan D.; Palmeri, JoAnn; Green, Daniel W. E. (संपा॰). Biographical Encyclopedia of Astronomers (अंग्रेज़ी में). New York, NY: Springer New York. पृ॰ 1283. S2CID 242158697. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-4419-9916-0. डीओआइ:10.1007/978-1-4419-9917-7. बिबकोड:2014bea..book.....H.
  10. cf. Burgess.
  11. Amiya K. Chakravarty (2001). The Sūryasiddhānta: The Astronomical Principles of the Text. Asiatic Society. पृ॰ viii. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788172361129.
  12. David Pingree (1981). Jyotiḥśāstra: Astral and Mathematical Literature. A History of Indian Literature. Otto Harrassowitz. पपृ॰ 23–24. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 3-447-02165-9.
  13. David Pingree, संपा॰ (1970). Census of the Exact Sciences in Sanskrit Series A. 1. American Philosophical Society. पृ॰ 47.
  • Ebenezer Burgess. "Translation of the Surya-Siddhanta, a text-book of Hindu Astronomy", Journal of the American Oriental Society 6 (1860): 141–498.
  • Victor J. Katz. A History of Mathematics: An Introduction, 1998.
  • Dwight William Johnson. Exegesis of Hindu Cosmological Time Cycles, 2003.

बाहरी कड़ियाँ

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